आज फिर से
भूली-बिसरी
राहों से गुज़रते
हरे मैदान के
उपेक्षित कोने में
गुलाब के सूखे झाड़
ने थाम लिया दुपट्टा मेरा
टूटकर बिखरी पंखुड़ियाँ
हौले से
छू गयी पाँव की उंगलियां
सुर्ख रंग
पोरों से होकर
ठिठुरती धूप में फैल गयी
काँपती धड़कनों में,
कुनकुनी किरणें
अथक प्रयास करने लगी
जमी वादियों की बर्फ़ पिघलाने की
एक गुनगुना एहसास
बंद मुट्ठियों तक आ पहुँचा
पसीजी हथेलियों की
आडी़ तिरछी लकीरों से
अनगिनत रंग बिरंगे
सोये ख़्वाब फिर से
ख़्वाहिशों के आँगन में
तितली बन उड़ने लगे।
-----श्वेता🍁
बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteवाह!!!श्वेता जी क्या कमाल लिखती है आप!!बहुत ही सुंंदर ।
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना सोमवारीय विषय विशेषांक "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 29 जनवरी 2018 को साझा की गई है.................. http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteवाह...
ReplyDeleteश्वेता जी,अति सुंदर.
पूरा दृश्य सजीव हो उठा.
उड़ने दीजिए ख्वाहिशों को पर लगा कर.
कमाल की रचना । बहुत सुंदर। सादर
ReplyDeleteमन के रेशमी एहसास और सुकोमल शब्दावली !!!!!!!! जाने पहचाने अंदाज में अप्रितम रचना | प्रिय श्वेता आपका जवाब नहीं | मेरी शुभकामनाएं |
ReplyDeleteप्रेम के महीन अहसासों और उम्र की नाजुक स्मृतियों की अनुभतियों को कमाल के शब्द और अभिव्यक्ति दे दी है इस रचना में
ReplyDeleteसुंदर सृजन इसे ही कहते हैं
ढेर सारी बधाई
वाह ! क्या बात है ! खूबसूरत एहसास ! लाजवाब प्रस्तुति !! बहुत सुंदर आदरणीया ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर मनमोहक रचना
ReplyDeleteबहुत बहुत बधाई
बहुत सुंदर रचना, स्वेता।
ReplyDeleteअमूल्य भावाँकन.
ReplyDeleteकमाल..बस..
ReplyDeleteकमाल की रचना..
वाह बहुत सुंदर रचना 👌
ReplyDeleteबहुत सुंदर शब्दांकन एवं भावाभिव्यक्ति !
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