मौन के इर्द-गिर्द
मन की परिक्रमा
अनुत्तरित प्रश्नों के रेत से
छिल जाते है शब्द
डोलते दर्पण में
अस्पष्ट प्रतिबिंब
पुतलियाँ सिंकोड़ कर भी
मनचाही छवि नहीं उपलब्ध
मौन ध्वनियों से गूँजित
प्रतिध्वनियों से चुनकर
तथ्य और तर्क से परे
जवाब का चेहरा निः शब्द
सवाल के चर अचर
संख्याओं में उलझा
बिना हल समीकरण
प्रीत का ऐसा ही प्रारब्ध
मौन के अँगूठे से दबकर
छटपटाते मन को स्वीकार
मिला हथेली भर प्रेम
समय की विरलता में जो लब्ध
#श्वेता सिन्हा
अनुत्तरित प्रश्नों के रेत से
ReplyDeleteछिल जाते है शब्द
बहुत खूबसूरत रचना
वाहःह वाहःह
बहुत- बहुत आभार आपका लोकेश जी।
Deleteमौन के इर्द-गिर्द
ReplyDeleteमन की परिक्रमा
अनुत्तरित प्रश्नों के रेत से
छिल जाते है शब्द.....
अत्यंत ही मुखर रचना, स्पष्ट संवाद करती हुई मानों मौन रुपी ये पहाड़ अब ध्वस्त होने ही वाला है। बहुत बहुत शुभकामनाएँ। बधाई।
हृदयतल से अति आभार आपका आदरणीय p.k ji.
Deleteमौन ध्वनियों से गूँजित
ReplyDeleteप्रतिध्वनियों से चुनकर
तथ्य और तर्क से परे
जवाब का चेहरा निः शब्द !
प्रीत क्या जाने तथ्य और तर्क.... मौन की प्रतिध्वनियों में गूँजता कोई नाम स्पष्ट और अस्पष्ट के बीच झूलता रह जाता है... मन की उलझन का सजीव चित्रण ! कल्पनाओं की मौलिकता गजब की है !!!!!
आपकी इतनी सारी सराहना पढ़कर फिर से अपनी रचना पढ़ने का मन हो आया...:)
Deleteहृदयतल से अति आभार आपका मीना जी।
स्नेह बनाये रखें।
वाह !!!बहुत खूबसूरत रचना
ReplyDeleteमन की उलझन का सजीव चित्रण
अति आभार आपका नीतू जी। तहेदिल से शुक्रिया।
Deleteमोन की मुखर रचना
ReplyDeleteबहुत बढिया।
बहुत-बहुत आभार आपका पम्मी जी। हृदयतल से शुक्रिया।
Deleteमौन ध्वनियों से गूँजित
ReplyDeleteप्रतिध्वनियों से चुनकर
तथ्य और तर्क से परे
जवाब का चेहरा निः शब्द
उलझा सा मन शब्द भी मौन
वाह!!!
बहुत सुन्दर, लाजवाब....
हृदयतल से अति आभार आपका सुधा जी। मनोबल बढ़ाने के बहुत शुक्रिया।
Deleteवाह!श्वेता ,क्या खूबसूरती के साथ वर्णन किया है मन की उलझन का । बहुत उम्दा .
ReplyDeleteअति आभार शुभा दी..:)
Deleteहृदयतल से बेहद शुक्रिया आपका। स्नेह बनाये रखें।
बहुत आभार दी आपके इस मान के लिए।
ReplyDeleteसुन्दर कविता |बधाई आपको
ReplyDeleteअति आभार आपका आदरणीय। स्वागत है आपका।
Deleteतथ्य और ट्रक जब चूक जाते हैं तभी तो निहशब्द होता है जवाब ... मौन अक्सर मुखर होता है जबकि। ओ भी होता है निशब्द ... सुंदर गहरी रचना ...
ReplyDeleteजी,आभार आपका नासवा जी,आपकी सुंदर प्रतिक्रिया के लिए हृदयतल से अति आभारी है हम।
Deleteमौन के अँगूठे से दबकर
ReplyDeleteछटपटाते मन को स्वीकार
मिला हथेली भर प्रेम
बहुत खूबसूरत रचना श्वेता जी.
बहुत बहुत आभार हृदयतल से अति शुक्रिया आपका मीना जी।
Deleteहथेली भर प्रेम गर बना रहे
ReplyDeleteभले ही न हल कर समीकरण
पर निर्बाध रहकर
कर ही देगा
बाएं पक्ष को
दाएं पक्ष के बराबर।
सुंदर प्रस्तुति।
वाह्ह्ह...बहुत खूब...सुंदर प्रतिक्रिया
Deleteअति आभार आपका,हृदय तल से शुक्रिया आपका अभि जी।
आपकी लिखी रचना "मित्र मंडली" में लिंक की गई है https://rakeshkirachanay.blogspot.in/2018/03/60.html पर आप सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद!
ReplyDeleteमन के उद्गारों को बंया करती.. खुबसूरत कविता...बस हथेली भर प्रेम ..मौन के अंगूठे से दबकर निखर पड़ा!!
ReplyDeleteमौन ध्वनियों से गूँजित
ReplyDeleteप्रतिध्वनियों से चुनकर
तथ्य और तर्क से परे
जवाब का चेहरा निः शब्द
...अलग-अलग स्थितियों को कम से कम शब्दों में खूबसूरती से व्यक्त किया है स्वेता जी !!
जिसकी हथेलियों में सूरज उगते हो, उसके हथेली भर प्रेम का प्रारब्ध भला अपरिमेय क्यों न हो और प्रणव के टंकार के उद्गम पर प्रणय का शाश्वत मौन ही शेष क्यों न रह जाए। इसी अबूझ समीकरण का उद्घाटन ही तो उस आध्यात्मिक पूर्ण की प्राप्ति का प्रयास है जिससे पूर्ण निकलकर भी पूर्ण ही बच जाता है! प्रेम के अन्तर्भूत रहस्य को समेटती सुन्दर रचना। बधाई श्वेता जी !!!
ReplyDeleteसुंदर सार्थक सृजन प्रिय श्वेता बहन !!!!!!
ReplyDeleteवाह ! क्या कहने हैं ! खूबसूरत सृजन ! बहुत सुंदर आदरणीया ।
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