बूढ़े पीपल की
नवपत्रों से ढकी
इतराती शाखों पर
कूकती कोयल की तान
हृदय केे सोये दर्द को जगा गयी
हवाओं की हँसी से बिखरे
बेरंग पलाश के मुरझाये फूल,
मन के बंद कपाट पर
दस्तक देते उदास सूखे पत्तों की आहट
बोगनबेलिया से लदी टहनियोंं
की फुसफुसाहट
महुआ की गंध से व्याकुल हो
की फुसफुसाहट
महुआ की गंध से व्याकुल हो
इक चेहरा तसव्वुर के
दबी परतों से झाँकने लगता है
कुछ सपनों के बीज बोये थे जो
आबादी से दूर पहाड़ की तलहटी में
उससे उगे
उससे उगे
खपरैल महल के छत पर
चाँदनी की सुगंध में भीगी नशीली रात,
मौसम के बेल में
सुनहरे फूलों से खिलती लड़ियाँ,
इत्र छिड़कते जुगनुओं की टोली
रुह की खुशबू से बेसुध आशियां में
सपनीली अठखेलियों को,
इक रात पहाड़ से उतरी बरसात
ने ढक लिया अपनी बाहों में
छन से टूटकर खो गयी
धीमी लौ में जलती लालटेन
घुप्प गीले अंधेरे में ढूँढती रही
सपनों के बिखरे लम्स
धुँधलायी आँखों ने देखी
चुपचाप लौटती हुई परछाईयाँ
ऊँची पहाड़ों की गुम होती पगडंडी पर,
जब भी कभी बैठती हूँ
तन्हाई में
अनायास ही
उस महल के मलबे में
तलाशने लगती हूँ
मासूम एहसास का
अधूरा टुकड़ा।
-श्वेता सिन्हा
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 15.03.2018 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2910 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
जी अति आभार आपका आदरणीय। बहुत शुक्रिया।
ReplyDeleteसादर।
कल्पनाओं के संसार का रंग,और प्रकृति के कण कण में संवाहित संवेदनशील संवेग, कितना अनुपम और गहरा होता है कि खूवसुरत रचना पढ़ने वालों को भी एकवारगी अचंभित कर देता है कि क्या यह सम्भव है ! सब कुछ है यहां। धन्यवाद।
ReplyDeleteप्रकृति की प्रतिपल होने वाली गतिविधियों के साथ मन के संवेगों का बड़ी खूबसूरती से वर्णन किया है . बहुत खूब श्वेता जी.
ReplyDeleteनिसर्ग और मन की भावनाओं का बहुत ही अद्भुत तालमेल किया बैठाया हैं तुमने, स्वेता। बहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत खुबसूरत अहसास!
ReplyDeleteतन्हाई में
ReplyDeleteअनायास ही
उस महल के मलबे में
तलाशने लगती हूँ
मासूम एहसास का
अधूरा टुकड़ा।
खूबसूरती से पिरोई गई रचना हेतु बधाई।
बहुत ही बेहतरीन
ReplyDeleteखूबसूरत वर्णन किया है ..... बहुत खूब
ReplyDeleteतन्हाई में अक्सर मन खोए हुए की तलाश पर निकल ही जाता है...भावपूर्ण अभिव्यक्ति श्वेता जी। जितनी बार पढ़ा, नए अर्थ के साथ मन में उतर गई। रचना का अंत लाजवाब !!!!!
ReplyDeleteजब भी कभी बैठती हूँ
तन्हाई में
अनायास ही
उस महल के मलबे में
तलाशने लगती हूँ
मासूम एहसास का
अधूरा टुकड़ा।
वाह!!श्वेता , बहुत ही खूबसूरत भावपूर्ण रचना ।
ReplyDeleteमौसम मैं होते परिवर्तन को सूक्ष्मता के साथ चित्रित किया गया है। साथ ही सृजक मन शांत चित्त होकर अपने कल्पनालोक में प्रकृति को अधिक से अधिक किस प्रकार महसूस करता है इस भाव को पूरा सम्मान मिला है।
ReplyDeleteरचना का भाव पक्ष बेजोड़ है।
बधाई एवं शुभकामनाएं। लिखते रहिए।
कृपया मैं को में पढ़ लीजिएगा। सधन्यवाद।
Deleteमखमली एहसास का खूबसूरत अंदाजे बयाँ !!!!!!!!!! बधाई प्रिय श्वेता बहन |
ReplyDeleteवाह अप्रतिम लेखन कहता सुनता कुछ सुगबुग करता सा
ReplyDeleteसपने के भीगे ख्वाबो को धीरे से चुनता सा ।
अनुभूति और अहसास सूक्ष्म से सूक्ष्म भावों का प्रकृति के साथ इतना सुंदर मनोगत विलक्षण वर्णन निशब्द क्या लिखूं शब्द नही मिलते।
ReplyDeleteअप्रतिम अद्भुत अद्वितीय
आपकी लिखी रचना आज के "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार 18 मार्च 2018 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteकल्पनाओं के विविध रंग कविता में उतर आयी है.बहुत सुंदर.
ReplyDeleteलाजवाब रचना... पढते ही हर पंक्ति आगे बढ़ने की उत्सुकता जगाती...मन का प्रकृति से तारतम्य स्थापित करवाती...और फिर अद्भुत कल्पनालोक
ReplyDeleteसैर....
वाह!!!!
बहुत ही सुन्दर...
कोमल एहसासों से भरी रचना. सुंदर प्रस्तुति .
ReplyDeleteनिमंत्रण
ReplyDeleteविशेष : 'सोमवार' १९ मार्च २०१८ को 'लोकतंत्र' संवाद मंच अपने सोमवारीय साप्ताहिक अंक में आदरणीया 'पुष्पा' मेहरा और आदरणीया 'विभारानी' श्रीवास्तव जी से आपका परिचय करवाने जा रहा है।
अतः 'लोकतंत्र' संवाद मंच आप सभी का स्वागत करता है। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
बूढ़े पीपल तले अनगिनत मासूम अहसास सृजित होते हैं ... उनमें से कुछ पूरे हो जाते हैं कुछ अधूरे रहते हैं ...
ReplyDeleteपलश बोगेमविलिया और महुआ की प्राकृति नैसर्गिकता से उतरी रचना अधूरे lams तलाशती है ...
सुंदर रचना है ...
वाह ! क्या बात है ! खूबसूरत प्रस्तुति ! बहुत खूब आदरणीया ।
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