बूढ़े पीपल की
नवपत्रों से ढकी
इतराती शाखों पर
कूकती कोयल की तान
हृदय केे सोये दर्द को जगा गयी
हवाओं की हँसी से बिखरे
बेरंग पलाश के मुरझाये फूल,
मन के बंद कपाट पर
दस्तक देते उदास सूखे पत्तों की आहट
बोगनबेलिया से लदी टहनियोंं
की फुसफुसाहट
महुआ की गंध से व्याकुल हो
की फुसफुसाहट
महुआ की गंध से व्याकुल हो
इक चेहरा तसव्वुर के
दबी परतों से झाँकने लगता है
कुछ सपनों के बीज बोये थे जो
आबादी से दूर पहाड़ की तलहटी में
उससे उगे
उससे उगे
खपरैल महल के छत पर
चाँदनी की सुगंध में भीगी नशीली रात,
मौसम के बेल में
सुनहरे फूलों से खिलती लड़ियाँ,
इत्र छिड़कते जुगनुओं की टोली
रुह की खुशबू से बेसुध आशियां में
सपनीली अठखेलियों को,
इक रात पहाड़ से उतरी बरसात
ने ढक लिया अपनी बाहों में
छन से टूटकर खो गयी
धीमी लौ में जलती लालटेन
घुप्प गीले अंधेरे में ढूँढती रही
सपनों के बिखरे लम्स
धुँधलायी आँखों ने देखी
चुपचाप लौटती हुई परछाईयाँ
ऊँची पहाड़ों की गुम होती पगडंडी पर,
जब भी कभी बैठती हूँ
तन्हाई में
अनायास ही
उस महल के मलबे में
तलाशने लगती हूँ
मासूम एहसास का
अधूरा टुकड़ा।
-श्वेता सिन्हा