आदिम पठारों,
के आँचल में फैले
बीहड़ हरीतिमा में छिपे,
छुट्टा घूमते
जंगली जानवरों की तरह
खूँखार,दुर्दांत ..
क्या सच्चा साम्यवादी औजार
सहज सुलभ उपलब्ध,अचूक
तस्करी की जा रही बंदूक है?
एक झटके में बारुद की गंध
हवाओं मे घुलकर
महुआ से भी ज्यादा
खुमारी भर जाती होगी शायद?
जिसके नशे में झूमता
ख़ुद को
मार्क्स और लेनिन
के विचारों का वाहक
जताने वाला
ज्वाला,बारुद और रक्त गंध का
व्यसनी हो उठता है,
जंगल के काले चट्टानों पर
लाल रंग से लिखी
पूँजीपतियों के विरुद्ध इबारतें
ठठाकर हँस पड़ती हैं
जब रात के अंधेरो़ में
रसूख़दारों के द्वारा
फेंकीं गयी हड्डियाँ चूसकर
डकारता है,
विदेशी बोतलों
विदेशी बोतलों
से बुझाकर प्यास,
नाबालिग आदिवासी बालाओं
पर करता है मनमाना अत्याचार,
कंधे पर लटकाये
क्रांति का वाहक
उंगलियों पर नचाता
पीला कारतूस
दिशाहीन विचारों को
हथियारों के नोंक से
सँवारने का प्रयास,
ये रक्तपिपासु
मानवता के रक्षक हैं?
जिनके बिछाये खूनी जाल में
उलझकर,चीथड़े हो जाते हैं
निर्दोष सिपाहियों के
धड़कते देह
अतड़ियाँ,चेहरे,हड्डियाँ
निर्जीव होकर
काननों की वीरान
पगडंडियों की माटी
को लाल कर देती है
विधवाओं के चीत्कार,
मासूम बच्चों की रूदन पर
विजय अट्टहास करते
निर्दयी,
निर्दयी,
किस अधिकार की चाह लिए
इंसानियत की बलि
चढ़ाते है?
धरती से उठते धुँयें और
चमकती धूप में उलझी दृष्टि
किसी मरीचिका की तरह
अबूझ पहेली-सी...
सुलगती गूँज पर
सहमा हुआ वर्तमान,
सुखद भविष्य के लिये
ख़ाकी रक्त से लिखे पंचाग
किसके लिये शुभ फलदायक
हो सकते हैं?
#श्वेता सिन्हा
२४मार्च२०२०
ख़ुद को
ReplyDeleteमार्क्स और लेनिन
के विचारों का वाहक
जताने वाला
ज्वाला,बारुद और रक्त गंध का
व्यसनी हो उठता है
खाकी रक्त गजब।
ReplyDeleteरक्त किसी भी बात का निवारण नहीं है ... एक रक्त दूसरा मांगता है ...
ReplyDeleteसामयिक रचना है ...
बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteघर मे ही रहिए, स्वस्थ रहें।
कोरोना से बचें।
भारतीय नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ।
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 25 मार्च 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDelete
ReplyDeleteकिस अधिकार की चाह लिए
इंसानियत की बलि
चढ़ाते है?
प्रिय श्वेता , एक विशेष विचारधारा जो कभी शोषितों की आवाज बनी थी , उसे अपनाने का प्रपंच रच कर प्रकृति के पुजारी आदिवासी नक्सल के नाम पर जो हिंसा करते हैं वह अत्यंत अमानवीय और नृशंसता से भरी है | अपने कर्तव्य निर्वहन को तत्पर सैनिकों और अन्य लोगों को जी निर्ममता से कहीं भी , किसी भी हाल में मौत के घाट उतारा जाता है , उससे ना जाने कितने गरीब घरों के दीपक असमय बुझ जाते हैं |सच है कौन सा अधिकार है जिसे इस रक्तपात से प्राप्त करने का प्रयास किया जा रहा है बहुत ही मार्मिक रचना , जिसमें एक संवेदनशील कवि मन का दर्द छलका है | सुकमा में होते बार- बार रक्तपात ह्रदय को विदीर्ण कर देते हैं | दिवंगत शहीद सैनिकों को कोटि नमन |सस्नेह
वाह!श्वेता ,बहुत खूब!
ReplyDeleteकिस अधिकार की चाह लिए इंसानियत की बली चढाते हैं ....सहमा हुआ वर्तमान ,सुखद भविष्य के लिए
खाकी रक्त से लिखे पंचाग .....।.अमर शहीद ोो को वंदन🙏
साम्यवादी हो या फिर पूंजीवादी हो, शोषण और दमन तो सबकी फ़ितरत में है !
ReplyDeleteसुखद भविष्य के लिये
ReplyDeleteख़ाकी रक्त से लिखे पंचाग
किसके लिये शुभ फलदायक
हो सकते हैं?
- आपकी चिन्ताएँ और विलक्षणताएँ दोनों ही बखूबी उभर आईं है इस रचना में ।
शुभकामनाएँ आदरणीया श्वेता जी।
कुछ अरसा पहले एक अधिकारी मुझ से मिलने आए थे किसी काम के सिलसिले में,,,,जो घटनाएं समाचार पत्रों या मीडिया में देखते हैं,,वो सब असल में घटी घटना का मात्र ५०% ही होती हैं,,हर दूसरा आदमी मुखबिर है उनका,,,विकास और स्थानीय अधिकारों के बीच समस्या में विषेला है वातावरण,,,स्थानीय जो विकास नहीं चाहते,,सरकार जो विकास करना चाहती है,,समस्या की पूंछ पर पैर रख कर समस्या का समाधान होगा ? वस जवानों के रक्त रंजित शरीर, कभी टुकड़ों में समेट कर घर लाए जाते हैं,,,90 प्रतिशत से ज्यादा लोग नहीं चाहते कि विकास हो,,सड़कें बने,,,हल क्या ? यही सब होगा,,होता रहेगा,,खाकी पहने बन्दूक थामे बीहड़ों में तलाशते हैं उन्हें जो चप्पे चप्पे से वाकिफ हैं,,झन हर चीज खिलाफ है,, मिलता है तो बस वही जो आपने कहा,,,
ReplyDeleteलेनिन तो स्वयं एक लाख के आस पास हत्याओं का जिम्मेदार था, फिर उसकी विरासत की कैसी मिशाल। गांधी, बुद्ध, महावीर नानक, कबीर, गुरु आदि आदि असंख्य महात्माओं और क्रांतिवीरों की धरती पर भला मार्क्स कहाँ से पनप पाएंगे! कविता की चिंता जायज किन्तु संदर्भ, मिसाल और विरासतों का जिक्र अवांछित, अग्राह्य और अप्रासंगिक!!!
ReplyDeleteअपने हक्क के लिए लड़ना
ReplyDeleteअपनी कर्तव्य के लिए लड़ना
मजबूरी में लड़ना
स्वाद के लिए लड़वाना
सब में लड़ाई में भूख प्रधान होती है
भूख गोस्त की
भूख आतंकित करने की
भूख पेट की।
पेट की भूख वो भूख है
जो हर विचारधारा का साथ देने के लिए तैयार रहती है।
बहुत लाजवाब रचना लिख मारी है।
☺️