पेड़ की फुनगी में
दिनभर लुका-छिपी
खेलकर थका,
डालियों से
हौले से फिसलकर
तने की गोद में
लेटते ही
सो जाता है,
उनींदा,अलसाया
सूरज।
पीपल की
पत्तियाँ फटकती हैं
दिनभर धूप,
साँझ को समेटकर
रख देती है,
तने की आड़ में
औंधा।
दिनभर
फुदकती है
चिरैय्या
गुलाबी किरणें
चोंच में दबाये
साँझ की आहट पा
छिपा देती हैं,
अपने घोंसलों में,
तिनकों के
रहस्यमयी
संसार में।
#श्वेता सिन्हा
१८मार्च२०२०
वाह
ReplyDeleteत्वरित प्रतिक्रिया के लिए आभारी हूँ सर।
Deleteसादर।
सुंदर सुंदर बिंबो से सजी खूबसूरत रचना श्वेता...बहुत बढ़िया ������
ReplyDeleteबहुत आभार दी
Deleteसस्नेह शुक्रिया।
सादर।
प्राकृतिक दृश्यों को लेकर आप हमेशा खूबसूरत रचनाएं रचती हैं लेकिन जब आप सामाजिक विषयों पर लिखती तब आप की छवि एक बेहद सशक्त कवित्री की नजर आती है कई दिनों से आपकी समसामयिक घटनाओं पर कविताएं पढ़ रही थी लेकिन आज अचानक से आप ने पेड़ की फुनगी पर चांद को चढ़ा दिया तो.मन फिर से मनोरम दृश्यों पर उलझ गया..लिखती रहिये ..आप बहुत अच्छा लिखती है
ReplyDeleteइसके पहले वाली रचना पढ़ो अन्नू..वो सामयिक है। मन जब ज्यादा उद्विग्न हो तो प्रकृति ही शांति प्रदान करती है। प्रकृति मेरी आत्मा है।
Deleteतुम्हारी स्नेहिल प्रतिक्रिया पाकर अच्छा लगा।
बहुत आभार।
सस्नेह शुक्रिया।
वाह!श्वेता ,अति सुंदर !!
ReplyDeleteजी आभारी हूँ दी।
Deleteसस्नेह शुक्रिया।
सादर।
वाह! सशक्त बिम्ब-विधान!
ReplyDeleteजी बहुत आभारी हूँ विश्वमोहन जी।
Deleteसादर शुक्रिया।
सुंदर रचना प्रिय श्वेता। म्मनमोहक बिंब विधान सराहनीय है । सस्नेह शुभकामनायें🌹🌹💐💐
ReplyDeleteजी बहुत आभारी हूँ दी।
Deleteसस्नेह शुक्रिया।
सादर।
बेहद खूबसूरत
ReplyDeleteजी आभारी हूँ लोकेश जी।
Deleteबहुत शुक्रिया।
सादर।
दिनभर
ReplyDeleteफुदकती है
चिरैय्या
गुलाबी किरणें
चोंच में दबाये
साँझ की आहट पा
छिपा देती हैं,
अपने घोंसलों में,
प्राकृतिक दृश्यों को लेकर खूबसूरत रचना :(
शाम रहती तो कुछ पल ही है ...
ReplyDeleteपर इतना कुछ समेटा होता है उसकी बुग्नी में ... जीवंत रचना
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 19 मई 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना, श्वेता दी।
ReplyDeleteBeautiful description of beautiful evening with beautiful words.
ReplyDeleteदिन भर की थकान के बाद अपने घोंसले में लौटते ही जो सुकून हैं वो कही नहीं ,चाहें वो शाम" जीवन " की आखिरी शाम ही क्युँ ना हो ,सुंदर सृजन श्वेता जी ,सादर नमन
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteप्रकृति प्रेम को करीने सा उकेरा है आपने श्वेता दीदी.
ReplyDeleteहृदय स्पर्शी सृजन.
सादर
वाह!!!!
ReplyDeleteअद्भुत बिम्ब....लाजवाब सृजन।
जब दिन भर की हाय तौबा का वजूद ओर गहरा होता जाता है तब ऐसा सृजन बेहद रसदार लगता है।
ReplyDeleteइस नीरस मानवता में आनंद भी छिपा है ठीक वैसी ही रचना है ये।
उम्दा।
मैम, आपकी हर रचना, मुझे पहलेवाले से अधिक सुंदर और आनन्दकर और प्रेरणादायक लगती है। आपने प्रकृति के स्वरूप का बहुत ही सुंदर वर्णन किया है।
ReplyDeleteमाता प्रकृति हमारी माँ है और हमारी सबसे अच्छी सखी भी। प्रकृति के निकट रहने से हमारे मन को बहुत शांति मिलती है और हमें सबसे अच्छी प्रेरणा भी प्रकृति ही देती है। आपकी यह कविता पढ़ कर एक बहुत ही सुंदर और निश्चिंत शाम की छवि आ जाती है। इसे पढ़ कर मेरी भी इच्छा हो रही है कि एक कप चाय ले कर , अपनी खिड़की पे बैठ कर सूर्यास्त देखा जाए। इतनी सुंदर रचना के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।