चित्र साभार गूगल
सुबह सुबह अलार्म की आवाज़ सुनकर अलसायी मैं मन ही मन बड़बड़ायी उठ कर बैठ गयी।
ऊँघती जम्हाईयाँ लेती अधमूँदी आँखों से बेडरूम से किचन तक पहुँच गयी लाईट ऑन कर पीने का पानी गर्म करते सोचने लगी आज सत्तू के पराठें बना लेती हूँ दोनों पापा बेटी को बहुत पसंद बिना नानुकुर किये टिफिन ले जायेगे।
अचानक बाहर से आती ऊँची आवाज़ो ने उसे चौंका दिया।
सोचती इतनी सुबह कौन हल्ला कर रहा बाहर गैस ऑफ कर बाहर बालकनी में आ गयी । सामने बन रहे अर्धनिर्मित इमारत के सामने भीड़ जमा थी।एक पुलिस जीप खड़ी थी कुछ पुलिस वाले भी थे।
क्या हुआ होगा?
उत्सुकता से आस पास देखने लगी कोई दिखे तो पूछूँ आखिर हुआ क्या ??
देखा तो पड़ोस की मिसेज त्रिपाठी भी अपनी बालकनी में नज़र आई ।
उनसे पूछा तो पता चला आज सुबह कोई लड़की नदी में बह गयी ।मैनें नाम पूछा तो बोली वही लड़की जो रहती थी यहाँ।
'सोमवारी! मैं स्तब्ध रह गयी, कुछ भी नहीं पूछा और चुपचाप अंदर आकर दैनिक काम निपटाने लगी। यंत्रवत हाथ चल रहे थे,और दिमाग उलझकर रह गया सोमवारी में।आखिर में यही होना था क्या उसका अंजाम।खुद के सवालों में उलझी रही।
अनमनी सी दोनो पापा बेटी को जगाया , उनके स्कूल और ऑफिस जाने के बाद निढाल सी आँखें बंद कर लेट गयी।
सिवा सोमवारी के और कोई ख्याल कैसे आते।
पिछले साल नवम्बर में मेरी बिल्डिंग के सामने वाली खाली जमीन पर किसी बिल्डर ने फ्लैट बनवाना शुरु किया था। खाली जमीन पर अब दिनभर मजदूरों की उठापटक , छेनी हथौड़ी की धम धड़ाम सो -सो ,सी सी,मशीनों की आवाजें गूँजने लगी थी। सुबह आठ बजे से से शाम के पाँच बजे तक मेला लगा रहता ,शुरु शुरु उत्सुकतावश खुले छत की लोहे की रेलिंग पकड़े बच्चों की तरह घंटों खडे होकर उन मज़दूरों की गतिविधि देखती रहती थी , सुबह सबके जाने के बाद घर के सारे काम निबटाकर छत पर चेयर डालकर गुनगुनी धूप में कोई किताब लेकर बैठती तो सारा ध्यान ईट गारे से जुड़ती बनती इमारत पर रहता था। अब इमारत की नींव पड़ चुकी थी खूब सारे मजबूत खंभों पर पहली फ्लोर के लिए छत की ढलाई हुये दो सप्ताह बीते होगे।
जाड़ो में अंधेरा जल्दी घिरने लगता है, एक शाम छत से कपड़े उठा रही थी, नज़र आदतन सामने वाली अर्द्धनिर्मित इमारत पर चली गयी, इमारत के कोने मे एक बड़ा सा पानी का हौजा था जिसको हर सुबह बगल के घर से पाईप द्वारा भर दिया जाता था, दिनभर इसी से मज़दूर पानी निकालकर काम करते रहते थे।शाम को पाँच बजे छुट्टी के समय सब मजदूर और रेजा औरतें यही मुँह हाथ पैर धोते फिर कंघी चोटी कर टिपटॉप हो अपने घर चले जाते।
उसी हौजे के की दीवार की ओट लिये एक लड़की छाती तक पेटीकोट बाँधे प्लास्टिक की मग से तल्लीनता एक बाल्टी में पानी भर रही थी।मुझे आश्चर्य हुआ शाम घिर रही थी सब तो चले गये ये कौन है??
दो चार मिनट के बाद उस लड़की का ध्यान मुझपर गया एक पल को वो रूकी और दूसरे पल आधी भरी बाल्टी लिये झट से नीचे बैठ गयी।उसकी ऐसी हरकत पर मुझे हँसी आ गयी। मौसम की सिहरन महसूस होने लगी मैं अंदर आ गयी ।
दूसरे दिन सुबह सुबह छ: बजे नहा कर पूजा के लिए गमलों से फूल तोड़ने छत पर गयी तो देखा सामने वाली
इमारत के एक कोने में ईंटों को जोड़कर लकड़ी डालकर चूल्हा सुलगाया गया था जिसपर बड़ा सा पतीला चढ़ा था, वही लड़की मटमैले पीले फूल वाली नाईटी उसपर एक चमकीला हरे रंग शॉल ओढ़े सिर झुकाये सूप में चावल बीन रही थी और एक आदमी जो कि उस लड़की से लगभग दूनी उमर का था ,थोड़ी ही दूर पर गमछा बाँधे गंदला सा गाजरी रंग का स्वेटर पहने आधा लेटा सा बीड़ी पी रहा था। मैं अनुमान लगाया कि ये शायद मजदूर होगे। बिल्डर ने रखा होगा इन्हें।
वैसे तो उस बिल्डिंग एक एक ही हिस्सा दिखता था मुझे पर नये लोगों को जानने की उत्कंठा में दो दिन में ही उनदोंनों की सारी दिनचर्या मुझे याद हो गयी ।मेरे जगने के पहले ही वो लड़की उठ जाती होगी , खर खर करती झाड़ू की आवाज़ मुँह अँधेरे ही सुनाई पड़ती थी।इमारत के नीचे वाले हिस्से एक कोने में चटाई को आड़ा तिरछा घेर कर हवाओं से बचने के लिए ईंट जोड़कर चूल्हे जलाती , बड़े पतीले में भरकर चावल और साथ में कोई सब्जी बनाती, फिर सारा खाना ऊपर तल के कोने में रख देती, वो आदमी जो शायद उसका पति होगा उसको बड़े कटोरे में खाना परोसती वो खा लेता और चला जाता तो कटोरा धोकर वो भी खाती। फिर दिनभर ईटों को ढोती, सिर पर एक बार में बारह ईंटें रखकर क्या गज़ब चलती।
दिन भर हाड़ तोड़ मेहनत के बाद शाम को नहाकर फिर भात पकाती, रात के समय उस आधे बने इमारत के एक कोने में टिमटिमाती मद्धिम पीली रोशनी जब बंद हो जाती तो आस पास की इमारतों से आ रही परछाई में देखा मैंने
उसका पति देर शाम पीकर लुढ़क जाता और वो चुपचाप उसके बलिष्ठ शरीर को नाजुक कंधे और मजबूत हाथों का सहारा देकर लड़खड़ाती हुयी सी चारपाई पर लिटा देती।फिर अपना चटाई बिछाकर बन रहे इमारत के मुंडेर विहीन कोने पर बैठ जाती , बहुत उदास सी कभी कभी परछाई रोती सी लगती, शरीर हिलता दिखता,घुटनों पर सिर झुकाये वो हिलक हिलक के रोती होगी । ऐसे देखकर उसे मन भर आता। उनके क्रियाकलाप के दौरान ध्यान देने योग्य यही था कि वो लड़की और उसके पति के बीच कोई बात नहीं होती, सब कुछ यंत्रचालित सा हो रहा हो जैसे।
एक सप्ताह के बाद मुझे मौका मिला उससे पहली बार रूबरू होने का ।मैं बाज़ार से लौट रही थी, वो शायद कुछ लेने गयी थी मुहल्ले के राशन दुकान से, हमदोंनों ही एक दूसरे को देखकर ठिठक गये। पहली बार सामने से देखा उसे ताबंई रंग दो बड़ी बड़ी उदास आँखें जो बरबस ध्यान खींच रही थी घुँघराले बालों की कमर तक चोटी, थोड़े से लटके मोटे होठों पर फीकी मुस्कान ,सुंदर संतुलित शारीरिक गठन , झोलदार मटमैली पीले काले फूल वाली नाईटी पहने थी , गहने के नाम काला धागा में गूँथा गया चाँदी के रंग का एक रूपये के सिक्के जैसा कुछ था और एडियों से थोड़ी ऊपर नाईटी के झालर के नीचे चाँदी का ही पतला कड़ा पहने थी। उमर बीस बाईस साल से ज्यादा नहीं थी।
मैने ही बातों का सिरा सँभाला ज्यादा उसे चुपचाप देखकर , जैसे उसे बात करना आता ही नहीं मैंने कहा कल शाम आना घर ,तुमने देखा है न उस बिल्डिंग में चौथे माले पर ।
छोटे बच्चों सा सिर हिलाकर वो तेजी से भाग गयी।
दूसरे दिन शाम को आयी वो मेरे ड्राईग में अंदर आने से झिझक रही थी, मैंने हाथ पकड़कर अंदर खींचा उसे। वो सहमी सी सकुचायी सी गोल गोल आँखों से मेरे ड्राईग रूम को देख रही थी । मैं चाय बना लाई और साथ में बिस्किट भी वो न न करती रही पर मैंने साग्रह उसे थमा दिया , इधर उधर की बातें करते थोड़ी देर में वो सहज लगने लगी।
उसने बताया "उसके माँ बाप बचपन में मर गये उसके रिश्ते के चाचा और चाची ने पाला पोसा , पढ़ना लिखना नहीं आता , बचपन घर और खेत खलिहानों में खटते बीता पन्द्रह साल की उमर में गाँव के एक आदमी से ब्याह दी गयी। वो आदमी जो उसका पति है , उसकी पहली बीबी मर गयी थी , चाचा ने उससे कर्जा लिया था वो सधा नहीं पाये तो उसका ब्याह कर दिया उस आदमी से। वो बहुत डरती है अपने आदमी से, गुस्सा आए तो रूई जैसा धुन देता है बिना गलती के भी। कहते कहते उसे झुरझुरी आ गयी । मेरा मन भर आया। वो चली गयी अपना बोझ मेरे मन पर रख कर।
वो फिर एक बार और.आयी बस जाने किस संकोच में वो नहीं आती थी। एक दिन अचानक उसी रस्ते पर मिली मैं तो पहचान नहीं पायी , वो खुश लग रही थी, आज चटख गुलाबी दुपट्टा कंधे पर डाला हुआ था उसने।आँखों में काजल की महीन रेखा , बालों को खोला हुआ था घुँघराले बालों की लट उसके होठ़ो को चूम रहे थे। हाथों की लाल हरी और सुनहरी चुडि़यों की मोहक खनक बार बार लुभा रहे थे। मैंने कहा क्या बात है बहुत सुंदर लग रही हो तो वो खिलखिला पड़ी ।तांबई गालों पे लाली छा गयी , शरमाते हुये पैर के अँगूठे से मिट्टी कुरदने लगी फिर हँसकर भाग गयी।
सर्दियाँ खत्म हो रही थी, एक दिन रात के एक बजे होगे, मेरी तबियत ठीक नहीं थी एसीडिटी की वजह से नींद नहीं आ रही थी सोचा थोड़ा दवा लेकर टहल लूँ फिर आराम आयेगा तो सो जाऊँगी। छत पर निकल कर घूमने लगी । पूरणमासी की रात थी हल्की ठंडी हवाएँ चल रही थी रजनीगंधा की खुशबू से मन प्रसन्न हो गया । स्वाभावतः उस बन रहे इमारत की ओर देखने लगी सोचने लगी आज सोमवारी खुश लग रही थी , मैं मुस्कुरा उठी सहसा एक परछाई उस इमारत की आधी अधूरी सीढ़ियों से ऊपर जाते देखा, मैं चौंक गयी इतनी रात गये कौन हो सकता है??? सोमवारी का पति तो बेसुध पड़ा है। वो परछाई छत के उस कोने में गुम हो गयी जहाँ सोमवारी सोती थी। अब सबकुछ मेरी आँखों की पहुँच से दूर था पर मन में एक झंझावत भर आया ।
'ये किस राह पर निकल पड़ी सोमवारी। मैं घबराकर भीतर आ गयी गटगटाकर पानी का गिलास.खाली.कर दिया और बिस्तर पर गिर गयी।'
मैं उसे समझाना चाहती थी मिलकर बताना चाहती थी एक आध बार कोशिश भी की पर शायद उसे मेरी बात पसंद नहीं आयी उसने मुझसे मिलना बंद कर दिया। रस्ते पर मिलती तो नजरे चुराकर भाग जाती।
बारिश शुरू हो गयी थी, उस बन रहे बिल्डिंग का रूका हुआ था अब मैंने भी उस ओर ध्यान देना छोड़ दिया था।
दस दिन पहले की ही बात है उस शाम डोरबेल बजी मैने दरवाजा खोला तो सामने बाल बिखराये सूखे होठ और रो रोकर सूजी आँखों से निरीह सी ताकती सोमवारी को पाया।
अंदर बुलाया और पानी का गिलास थमाया और सिर पर हाथ फेरा तो फूट फूट कर रो पड़ी । मैंने रोने दिया उसे उसने कहा वो माँ बनने वाली है अगर उसके पति को पता चला तो वो उसे मार डालेगा। जिस लड़के पर उसने अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया वो अब उसकी सूरत भी नहीं देखना चाहता वो कल ही उसे उसके हाल पर छोड़कर बंबई चला गया है।
मैंने उसे दिलासा दिया और कहा कल उसे डॉक्टर के पास ले जाऊँगी। फिर वो चली गयी। मैं उसे लेकर चिंतित थी, उसकी मदद भी करना चाहती थी एक अनजाना लगाव हो गया था उससे। पर दूसरे दिन वो नहीं आयी मैं झाँकने गयी तो बिल्डिंग में पीली रोशनी लिये धीमा सा बल्ब जल रहा था पर कोई दिख नहीं रहा था। कुछ समझ नहीं आया।
सप्ताह भर से लगातार रूक रूक कर बारिश हो रही थी।
नदियाँ पूरे उफान पर थी, निचले कई इलाकों में पानी भर गया था हाई अलर्ट जारी किया गया था।
पाँच दिन पहले ही अधूरी इमारत का काम फिर से शुरू हुआ अब तीसरे माले की छत की ढलाई की तैयारी थी।
परसों ही वो वापस दिखाई दी। उदास, मरियल सी जैसे किसी ने सारा रक्त निचोड़ लिया हो उसके शरीर का।
मैं सोच ही रही थी उससे मिलने के लिए और ये हो गया।
वो हार गयी अपने जीवन के दर्द से। मेरी आँखों से लगातार आँसू बह रहे थे। डोरबेल की आवाज़ से मैं अतीत से वापस आ गयी। आँसू पोंछकर मुँह पर पानी का छींटा मारा दरवाजा खोला तो देखा महरी खड़ी थी।
काम करते करते बड़बड़ाये जा रही थी अरे मेमसाब, बरसात से भरी नदी के पास उसको उधर जाने का ही नहीं था ,क्या जरूरत थी उधर जाने की पैर फिसल गया होगा बिचारी का, उसका गुलाबी दुपट्टा वही पत्थरों में अटका मिला है।
#श्वेता🍁