Wednesday, 3 January 2018

तुम्हारा ख़्याल


गहराते रात के साये में
सुबह से दौड़ता-भागता शहर
थककर सुस्त क़दमों से चलने लगा
जलती-बुझती तेज़ -फीकी
दूधिया-पीली रोशनी के
जगमगाते-टिमटिमाते
असंख्य सितारे
ऊँची अट्टालिकाओं से झाँकते 
निर्निमेष ताकते हैं राहों को
सड़कों पर दौड़ती मशीनी
 ज़िंन्दगी
लौटते अपने घरौंदे को
बोझिलता का लबादा पहने
सर्द रात की हल्की धुंध में
कंपकंपाती हथेलियों को
रगड़ते रह-रहकर 
मोड़कर कुहनियों को
मुट्ठी बाँधते जैकेट में 
गरमाहट ढूँढ़ते
बस की खिड़की से बाहर
स्याह आसमां की
कहकशाँ निहारते
पूरे चाँद को जब देखता हूँ
तुम्हारा ख़्याल अक्सर
हावी हो जाता है
तुम्हारी बातें 
घुलने लगती हैं 
संदली ख़ुशबू-सी
सिहरती हवाओं 
के साथ मिलकर 
गुनगुनाने लगती हैं
जानता हूँ मैं
तुम भी ठंड़ी छत की
नम मुँडेरों पर खड़ी
उनींदी आँखों से
देखती होओगी चाँद को
एक चाँद ही तो है
जिसे तुम्हारी आँखें छूकर
भेजती हैं एहसास 
जो लिपट जाते हैं मुझसे
आकर बेधड़क,
और छोड़ जाते हैं  
गहरे निशां 
तुम्हारी रेशमी यादों के ।


    #श्वेता🍁

Sunday, 31 December 2017

नववर्ष

रात की बोझिल उदासी को
किरणों की मुस्कान से खोलता
शीत का दुशाला ओढ़े
क्षितिज के झरोखे से झाँकता
बादलों के पंख पर उड़कर
हौले-हौले पर्वत शिखाओं को
चूमकर पाँव फैला रहा है
हवाओं में जाफरानी खुशबू घोलकर
पेड़ों,फूलों पर तितली सा मँडरा रहा है
पोखर, नदी,झील के आँचल में
चिड़ियों सा चहचहा रहा है
मंजुल प्रकाश भर भर कर
गाँव, शहर,बस्तियों में
पंखुड़ियों सा बिखर जा रहा है
वसुधा के प्रांगण में
करने को नवीन परिवर्त्तन
जन-जन की आँखों में
मख़मली उम्मीदों के 
बंदनवार सजाकर
आत्ममुग्ध स्वच्छ शुचि उद्गम् ले
नववर्ष मनभावन 
आशाओं की किरणों का
हाथ थामकर स्मित मुस्कुराता
चला आ रहा है।

        #श्वेता🍁

Friday, 29 December 2017

नन्ही ख़्वाहिश


एक नन्ही ख़्वाहिश 
चाँदनी को अंजुरी में भरने की,
पिघलकर उंगलियों से टपकती
अंधेरे में ग़ुम होती 
चाँदनी देखकर
उदास रात के दामन में
पसरा है मातमी सन्नाटा 
ठंड़ी छत को छूकर सर्द किरणें
जगाती है बर्फीला एहसास
कुहासे जैसे घने बादलों का
काफिला आकर 
ठहरा है गलियों में
पीली रोशनी में
नम नीरवता पाँव पसारती
पल-पल गहराती
पत्तियों की ओट में मद्धिम
फीका सा चाँद
अपने अस्तित्व के लिए लड़ता
तन्हा रातभर भटकेगा 
कंपकपाती नरम रेशमी दुशाला 
 तन पर लिपटाये
मौसम की बेरूखी से सहमे
शबनमी सितारे उतरे हैं
फूलों के गालों पर
भींगी रात की भरी पलकें
सोचती है 
क्यूँ न बंद कर पायी
आँखों के पिटारे में
कतरनें चाँदनी की, 
अधूरी ख़्वाहिशें 
अक्सर बिखरकर 
रात के दामन में 
यही सवाल पूछती हैं।

Tuesday, 26 December 2017

बदलते साल में....



सोचते  हैं 
इस नये साल में 
क्या बदल जाएगा....?
तारीख़  के साथ 
किसका हाल बदल जाएगा।

सूरज,चंदा,तारे 
और फूल
नियत समय निखरेंगे, 
वही दिन होगा 
असंभव है रात्रि
तम का जाल
 बदल जाएगा।

मथ कर विचार 
तराश लीजिए
मन की काया,
गुज़रते वक़्त  में 
तन का हाल बदल जाएगा।

कुंठित मानसिकता में 
लिपटे इस समाज में,
कौन कहता है
नारी के प्रति
मनभाव बदल जाएगा...?

लौटकर पक्षी  को 
अपने नीड़ में
आना होगा,
अपना मानकर बैठा है   
कैसे वो डाल बदल जाएगा।

कुछ नहीं  बदलता 
समय की धारा में 
दिवस के सिवा,
अपने कर्मों  में 
विश्वास रखिये
इतिहास बदल जाएगा।

नव वर्ष के 
ख़ुशियों के पर्व पर
है नवीन संकल्प 
नवप्रभात का,
ख़ुशियाँ बाँट लें
दिल कहता है
ग़म का जाल बदल जाएगा। 

#श्वेता🍁

Saturday, 23 December 2017

लफ़्ज़ मेरे तौलने लगे..


अच्छा हुआ कि लोग गिरह खोलने लगे।
दिल के ज़हर शिगाफ़े-लब से घोलने लगे।।

पलकों से बूंद-बूंद गिरी ख़्वाहिशें तमाम।
उम्रे-रवाँ के  ख़्वाब  सारे  डोलने  लगे।।

ख़ुश देखकर मुझे वो परेश़ान हो  गये।
फिर यूँ हुआ हर लफ़्ज़ मेरे तौलने लगे।।

मैंने ज़रा-सी खोल दी  मुट्ठी भरी  हुई।
तश्ते-फ़लक पर  तारे रंग घोलने लगे।।

सिसकियाँ सुनता नहीं सूना हुआ शहर।
हँस के जो बात की तो लोग बोलने लगे।।

          #श्वेता🍁

शिग़ाफ़े-लब=होंठ की दरार
उम्रे-रवाँ=बहती उम्र
तश्ते-फ़लक=आसमां की तश्तरी

Friday, 22 December 2017

सूरज तुम जग जाओ न


धुँधला धुँधला लगे है सूरज
आज बड़ा अलसाये है
दिन चढ़ा देखो न  कितना
क्यूँ.न ठीक से जागे है
छुपा रहा मुखड़े को कैसे
ज्यों रजाई से झाँके है

कुछ तो करे जतन हम सोचे
कोई करे उपाय है
सूरज को दरिया के पानी मे
धोकर आज सुखाते है
चमचम फिर से चमके वो
वही नूर ले आते है

सब जन ठिठुरे उदास है बैठे
गुनगुनी धूप भर जाओ न
देकर अपनी मुस्कान सुनहरी
कलियों के संग गाओ न
नील गगन पर दमको फिर से
संजीवन तुम भर जाओ न
मिलकर धरती करे ठिठोली
सूरज तुम जग जाओ न

Saturday, 16 December 2017

विधवा


नियति के क्रूर हाथों ने
ला पटका खुशियों से दूर,
बहे नयन से अश्रु अविरल
पलकें भींगने को मजबूर।

भरी कलाई,सिंदूर की रेखा
है चौखट पर बिखरी टूट के
काहे साजन मौन हो गये
चले गये किस लोक रूठ के
किससे बोलूँ हाल हृदय के
आँख मूँद ली चैन लूट के

छलकी है सपनीली अँखियाँ
रोये घर का कोना-कोना
हाथ पकड़कर लाये थे तुम
साथ छूटा हरपल का रोना
जनम बंध रह गया अधूरा
रब ही जाने रब का टोना

जीवन के कंटक राहों में
तुम बिन कैसे चल पाऊँगी?
तम भरे मन के झंझावात में
दीपक मैं कहाँ जलाऊँगी?
सुनो, न तुम वापस आ जाओ
तुम बिन न जी पाऊँगी

रक्तिम हुई क्षितिज सिंदूरी
आज साँझ ने माँग सजाई
तन-मन श्वेत वसन में लिपटे 
रंग देख कर आए रूलाई
रून-झुन,लक-दक फिरती 'वो',
ब्याहता अब 'विधवा' कहलाई

    #श्वेता🍁

Tuesday, 12 December 2017

किसी साँझ के किनारे


किसी साँझ के किनारे
पलकें मूँदती हौले से,
आसमां से उतरकर
पेडों से शाखों से होकर
पत्तों का नोकों से फिसलकर,
ख़ामोश झील के
दूर तक पसरे सतह पर
कतरा-कतरा पिघलकर
सूरज की डूबती किरणें
गुलाबी रंग घोल देती है,
रंगहीन मन के दरवाजे पर
दस्तक देती साँझ, 
स्याह आँगन में
जलते बुझते टिमटिमाते
सपनीली ख़्वाहिशों के सितारे
मौन वेदना लिए निःशब्द
प्रतीक्षारत से वृक्ष,
जो अक्सर बेचैन करते है
गुलाबी झील में गुम हुई
परछाईयों में यादों को,
ढूँढता है मन संवेदनाओं में
लिपटे गुजरे कुछ पल,
उस उदास झील के 
तन्हा गुलाबी किनारे पर।

          #श्वेता



मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...