Wednesday, 26 July 2023

संवेदना


 तेजी से बदलते परिदृश्य
एक के ऊपर लदे घटनाक्रमों से
भ्रमित पथराई स्मृतियों को
पीठ पर टाँगकर
बीहड़ रास्तों पर दौड़ती,मीलों हाँफती
लहुलुहान पीड़ा
चंद शब्दों के मरहम की उम्मीद लिए
संवेदनहीन नुकीले पत्थरों के 
संकरे गलियारों में
असहाय सर पटक-पटककर 
दम तोड़ देती है...।

जाने ये कौन सा दौर है
नरमुंडों के ढेर पर बैठी
रक्त की पगडंडियों पर चलकर
उन्माद में डूबी भीड़
काँच के मर्तबानों में बंद
तड़पती रंगीन गूँगी मछलियों की 
की चीखों पर
कानों पर उंगली रखकर
तमाशबीन बनकर
ढोंग करती हैं
घड़ियाली संवेदना का
क्या सचमुच बुझ सकेगा
धधकता दावानल
कृत्रिम आँसुओं के छींटे से?
कोई क्यों नहीं समझता
रिमोट में बंद संवेदना से
नहीं मिट सकता
मन का अंर्तदाह...।
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-श्वेता

Thursday, 20 July 2023

धिक्कार है....


धिक्कार है ऐसी मर्दांनगी पर
घृणित कृत्य ऐसी दीवानगी पर।
भीड़ से घिरी निर्वस्त्र स्त्री,
स्तब्ध है अमानुषिक दरिंदगी पर ।

गौरवशाली देश हमारा
झूठ यह हर दिन दोहराता है।
नारी जननी पूजनीय देवी,
कह-कहकर बरगलाता है।
झूठे प्रलाप सभी छद्म सेवी , 
स्त्रियों का अस्तित्व रौंदा जाता है।
भीड़ से घिरी निर्वस्त्र स्त्री
क्यों हैरान नहीं कोई हैवानगी पर?

बेटियों की अस्मिता सुरक्षित!
चहुँओर, भ्रमित जुमलों का शोर है। 
स्वच्छंद बहेलिए प्रशिक्षित ,
धर्म जाति में बँटे, लोग आदमखोर हैं।
क्रांतिकारी,ओजस्वी भाषणवीर
जिनकी झोली में विषबुझे तुणीर,
भीड़  से घिरी निर्वस्त्र स्त्री
क्यों मौन हैं सारे, बेपर्दगी पर?

व्यथित, दुखी और अपमानित
माँ भारती आँसुओं से सराबोर है।
अहिल्या,सीता,द्रौपदी या सुनीता
 क्या बदला नारी के लिए दौर है ? 
बेचैनियों की गिरह कौन खोले?
नपुंसकों की सभा है किससे बोले?
भीड़ से घिरी निर्वस्त्र स्त्री
अकर्मण्यता क्यों?कैसी लाचारगी है?

-श्वेता


Thursday, 22 June 2023

आसान है शायद...



हिंदी,अंग्रेजी, उर्दू,बंग्ला, उड़िया,मराठी
भोजपुरी, मलयाली, तमिल,गुजराती
आदि,इत्यादि ज्ञात,अज्ञात
लिखने वालों की अनगिनत है जमात
कविता,लेख ,कथा,पटकथा,नाटक
विविध विधा के रचनात्मक वाचक
सोचती हूँ अक़्सर
लिखने वालों के लिए भाषा है अनमोल 
या पूँजी है आत्मा के स्वर का संपूर्ण कलोल?
वर्तमान परिदृश्य में...
चमकदार प्रदर्शन की होड़ में
बाज़ारवाद के भौड़े शोर में
सिक्कों के भार से दबी लेखनी, 
आत्मा का बोझ उठाए कौन?
बेड़ियाँ हैं सत्य, उतार फेंकनी,
दुकान-दुकान घूमकर
 लेखन बेचना रद्दी के भाव
जूतों की तल्ली घिसने तक
हड्डियों के भीड़ में पीसने तक 
  आसान नहीं 
शायद सबसे आसान है
अपनी आत्मा को रखना गिरवी 
क्योंकि
स्वार्थी,लोलुप अजब-गजब किरदार
आत्मविहीन स्याही के व्यापारी, ख़रीददार
चाहते हैं रखना बंधक, बुद्धि छाँट
छल,बल से जुटाते रहते हैं चारण और भाट
बिचौलिए बरगलाते हैं मर्म
कठपुतली है जिनके हाथों की
 सत्ता और धर्म...।

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 #श्वेता

 


Thursday, 11 May 2023

निर्दोष


धर्म को पुष्ट करने हेतु
आस्था की अधिकता से
सुदृढ हो जाती है
कट्टरता ....
संक्रमित विचारों की बौछारों से
से सूख जाता है दर्शन 
संकुचित मन की परतों से
टकराकर निष्क्रिय हो जाते है
तर्कों के तीर
रक्त के छींटो से मुरझा जाते हैं
सौंदर्य के फूल
काल्पनिक दृष्टांतों के बोझ तले
टूट जाती है प्रमाणिकता
जीवन की स्वाभाविक गतिशीलता
को लीलती है जब कट्टरता
तब...
कोई भी गणितीय सूत्र या मंत्र
नहीं जोड़ पाती है
मानवता की साँस
नैतिकताओं को वध होते देखते
प्रत्यक्षदर्शी हम 
घोंघा बने स्वयं के खोल में सिमटे
मौन रहकर
जाने-अनजाने, न चाहते हुए भी
निर्लज्ज धर्मांधों का अनुचर बनकर
मनुष्यता के भ्रूण को
चुन-चुनकर मारती भीड़ का
का हिस्सा होकर
स्वयं को निर्दोष बताते हैं...।

#श्वेता

 

Sunday, 22 January 2023

तितलियों के टापू पर...


तितलियों के टापू पर
मेहमान बन कर जाना चाहती हूँ
चाहती हूँ पूछना उनसे-
 
बेफ्रिक्र झूमती पत्तियों को
चिकोटी काटकर,
खिले-अधखुले फूलों के 
चटकीले रंग चाटकर
बताओ न गीत कौन-सा
गुनगुनाती हो तितलियाँ?
 
चाँद के आने से पहले
सूरज के ठहरने तक
चिड़ियों की पुकार पर
ऋतुओं के बदलने तक
बागों में क्या-क्या गुज़रा
क्यों नहीं बताती हो तितलियाँ?

प्रेम में डूबी,खुशबू में खोयी
कल्पनाओं के फेरे लगाती
स्वप्नों के टूटने से फड़फड़ाकर
व्यथाओं से सरगम सजाती
क्या तुम भी भावनाओं से बेकल
 प्रार्थना मुक्ति की दोहराती हो तितलियाँ?

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-श्वेता 
२२ जनवरी २०२३


Wednesday, 12 October 2022

मौन शरद की बातें


 साँझ के बाग में खिलने लगीं
काली गुलाब-सी रातें।
चाँदनी के वरक़ में लिपटी
 मौन शरद की बातें।

 चाँद का रंग छूटा
चढ़ी स्वप्नों पर कलई,
हवाओं की छुअन से 
सिहरी शिउली की डलई,
सप्तपर्णी के गुच्छों पर झुके
बेसुध तारों की पाँतें।
साँझ के बाग में खिलने लगीं
काली गुलाब-सी रातें।

झुंड श्वेत बादलों के 
निकले सैर पर उमगते,
इंद्रधनुषी स्वप्न रातभर
क्यारी में नींद की फुनगते,
पहाडों से उतरकर हवाएँ
करने लगी गुलाबी मुलाकातें।
साँझ के बाग में खिलने लगीं
काली गुलाब-सी रातें।

शरद है वैभव विलास
ज़रदोज़ी सौंदर्य का,
सुगंधित शीतल मंद बयार
रस,आनंद माधुर्य-सा,
प्रकृति करती न्योछावर
अंजुरी भर-भर सौगातें।
साँझ के बाग में खिलने लगीं
काली गुलाब-सी रातें।
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-श्वेता सिन्हा
१२ अक्टूबर २०२२

Wednesday, 10 August 2022

संदेशवाहक


अनगिनत चिडियाँ
भोर की पलकें खुरचने लगीं
कुछ मँडराती रही 
पेडों के ईर्द-गिर्द
कुछ खटखटाती रही दरवाज़ा
बादलों का...।

कुछ
हवाओं संग थिरकती हुई
गाने लगी गीत
धूल में नहाई और 
बारिश के संग
बोने लगी जंगल...।

कुछ चिड़ियों ने 
तितलियों को चूमा
मदहोश तितलियाँ 
मलने लगी 
फूलों पर अपना रंग
अँखुआने लगा
कल्पनाओं का संसार...।

कुछ चिड़ियों के
टूटे पंखों से लिखे गये
प्रेम पत्रों की 
खुशबू से
बदलता रहा ऋतुओं की
किताब का पृष्ठ...।

हवाओं की ताल पर
कुछ
उड़ती चिड़ियों की
चोंच में दबी
सूरज की किरणें
सोयी धरती के माथे को
पुचकारकर कहती हैं
उठो अब जग भी जाओ
सपनों में भरना है रंग।

चिड़ियाँ सृष्टि की 
प्रथम संदेशवाहक है 
जो धरती की 
तलुओं में रगड़कर धूप
भरती  है महीन शिराओं में
चेतना का स्पंदन।
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-श्वेता सिन्हा
१० अगस्त २०२२

Sunday, 17 July 2022

बचा है प्रेम अब भी...।


आहट तुम्हारी एहसास दिलाती है,
मेरी साँसों में बचा है प्रेम अब भी...।

काँपती स्मृतियों में स्थिर तस्वीर
भीड़ में तन्हाई की गहरी लकीर,
हार जाती भावनाओं के दंगल में
दूर तक फैले सन्नाटों के जंगल में,
पुकार तुम्हारी गुदगुदाकर कहती है,
मेरी साँसों में बचा है प्रेम अब भी...।

बींध गया झटके से उपेक्षा का तीर
राग-मोह छूटा, बना मन फ़कीर,
बौराई फिरती हूँ ज्ञान वेधशाला में
तुलसी की माला में ध्यान की शाला में,
आँखें तुम्हारी मुस्कुराकर बताती है
मेरी साँसों में बचा है प्रेम अब भी...।

धुँधलाई आँखें, पथराये से कान
मुरझाऐ  उमस भरे सूने दालान,
प्रतीक्षा की सीढ़ी पे सोयी थककर
तारों के पैताने चाँद पे सर रखकर,
स्पर्श तुम्हारा, दुलराती जताती हैं
मेरी साँसों में बचा है प्रेम अब भी...।
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- श्वेता सिन्हा
१७ जुलाई २०२२
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मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...