Wednesday 10 May 2017

कभी यूँ भी तो हो

कभी यूँ भी तो हो....

साँझ की मुँडेर पे चुपचाप
तेरे गीत गुनगुनाते हुए
बंद कर पलको की चिलमन को
एहसास की चादर ओढ़
तेरे ख्याल में खो जाये
हवा के झोंके से तन सिहरे
जुल्फें मेरी खुलकर बिखरे
तस्व्वुर में अक्स तेरा हो
और ख्यालों से निकल कर
सामने तुम आओ

कभी यूँ भी तो हो.....

बरसती हो चाँदनी तन्हा रात में
हाथों में हाथ थामे बैठे हम
सारी रात चाँद के आँगन में
साँसों की गरमाहट से
सितारें पिघलकर टपके
फूलों की पंखुडियाँ जगमगाये
आँखों में खोये रहे हम
न होश रहे कुछ भी
और ख्वाब सारे उस पल में
सच हो जाए

कभी यूँ भी तो हो...

     #श्वेता🍁

5 comments:

  1. बहुत बढ़िया अभिव्यक्ति आभार "एकलव्य"

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत बहुत आभार ध्रुव आपका।

      Delete
  2. Replies
    1. बहुत बहुत आभार शुक्रिया संजय जी।

      Delete

आपकी लिखी प्रतिक्रियाएँ मेरी लेखनी की ऊर्जा है।
शुक्रिया।

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...