Monday, 8 May 2017

मिराज़ सा छलना

सुबह का चलकर शाम में ढलना
जीवन का हर दिन जिस्म बदलना

हसरतों की रेत पे दर्या उम्मीद की
खुशी की चाह में मिराज़ सा छलना

चुभते हो काँटें ही काँटे तो फिर भी
जारी है गुल पे तितली का मचलना

वक्त के हाथों से ज़िदगी फिसलती है
नामुमकिन इकपल भी उम्र का टलना

अंधेरे नहीं होते हमसफर ज़िदगी में
सफर के लिये तय सूरज का निकलना

      #श्वेता🍁

2 comments:

  1. सफ़र सूरज की रौशनी ... दोनों हमसफ़र हैं ... पर कभी कभी रात आई है जो चली जाती है ... हर शेर लाजवाब है ...

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    1. जी बहुत आभार आपका नासवा जी,बहुत शुक्रिया आपका।।

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आपकी लिखी प्रतिक्रियाएँ मेरी लेखनी की ऊर्जा है।
शुक्रिया।

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