Tuesday, 13 June 2017

भँवर

स्याह रात की नीरवता सी
शांत झील मन में
तेरे ख्यालों के कंकर
हलचल मचाते है
एक एक कर गिरते
जल को तरंगित करते
लहरें धीरे धीरे तेज होती
किनारों को छूती है
भँवर बेचैनी की तड़प बन
खींचने लगते है
बेबस बेकाबू मन सम्मोहित
अनन्त में उतर जाता है
निचोड़कर प्राण  फिर
छोड़ देता है सतह पर
निर्जीव देह जिसे सुध न रहती
बहता जाता है मानो
जीवन के प्रवाह में अंत की तलाश में

#श्वेता🍁




4 comments:

  1. आदि और अन्त की अनवरत तालाश, इक अबूझ सी पहेली समझ जूझते हैं हम। आदि अंत को ढूंढ़ता है और अन्त फिर आदि के लिए अस्त होता है। कहूं तो अंतहीन यात्रा है यह। कौन था, कौन है और कौन रहेगा किसने देखा ? क्या वो कहेंगे जो सघन वन में मौन हो , पालथी भर कर भृकुटी में आसमान खोजते हैं ! या वो ऊंचा, बहुत ऊंचा शून्य को परिभाषित करने की निर्रथक कोशिश में जुटा देव-दरख्त। मै भी चाहता हूं कि इक प्रयत्न मैं भी करूँ उस की जड़ों में मौन हो, जा विराजू और मौन को ओढ़ मिट्टी हो जाऊं।

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  2. बहुत सुंदर विचार आपके।
    बहुत शुक्रिया आभार आपका।

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  3. इस कविता मे आप ने दिल के भाव जाहिर किये हे सुंदर कविता के लिये धन्यवाद

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    1. जी आपका धन्यवाद आपने भाव समझा कविता के रचनाकार का प्रयास सफल हुआ।
      बहुत आभार धन्यवाद शुक्रिया आपका।

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आपकी लिखी प्रतिक्रियाएँ मेरी लेखनी की ऊर्जा है।
शुक्रिया।

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