Saturday, 14 October 2017

रोहिंग्या

रोहिंग्या
इस विषय पर आप क्या सोचते है...कृपया अपने विचारों से जरूर अवगत करवाये।
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कौन है रोहिंग्या मुसलमान

म्यांमार में करीब 8 लाख रोहिंग्या मुस्लिम रहते हैं और वे इस देश में सदियों से रहते आए हैं, लेकिन बर्मा के लोग और वहां की सरकार इन लोगों को अपना नागरिक नहीं मानती है। बिना किसी देश के इन रोहिंग्या लोगों को म्यांमार में भीषण दमन का सामना करना पड़ता है। बड़ी संख्या में रोहिंग्या लोग बांग्लादेश और थाईलैंड की सीमा पर स्थित शरणार्थी शिविरों में अमानवीय स्थितियों में रहने को विवश हैं। 
वर्ष 1785 में बर्मा के बौद्ध लोगों ने देश के दक्षिणी हिस्से अराकान पर कब्जा कर लिया। तब उन्होंने रोहिंग्या मुस्लिमों को या तो इलाके से बाहर खदेड़ दिया या फिर उनकी हत्या कर दी। इस अवधि में अराकान के करीब 35 हजार लोग बंगाल भाग गए जो कि तब अंग्रेजों के अधिकार क्षेत्र में था। वर्ष 1824 से लेकर 1826 तक चले एंग्लो-बर्मीज युद्ध के बाद 1826 में अराकान अंग्रेजों के नियंत्रण में आ गया। रोहिंग्या मूल के मुस्लिमों और बंगालियों को प्रोत्साहित किया गया कि वे अराकान (राखिन) में बसें। स्थानीय बौद्ध राखिन लोगों में विद्वेष की भावना पनपी और तभी से जातीय तनाव पनपा जो कि अभी तक चल रहा है।

रोहिंग्या की स्थिति

दूसरे विश्व युद्ध के दौरान दक्षिण पूर्व एशिया में जापान के बढ़ते दबदबे से आतंकित अंग्रेजों ने अराकान छोड़ दिया और उनके हटते ही मुस्लिमों और बौद्ध लोगों में एक दूसरे का कत्ले आम करने की प्रतियोगिता शुरू हो गई। इस दौर में बहुत से रोहिंग्या मुस्लिमों को उम्मीद थी कि वे ‍अंग्रेजों से सुरक्षा और संरक्षण पा सकते हैं। इस कारण से इन लोगों ने एलाइड ताकतों के लिए जापानी सैनिकों की जासूसी की। जब जापानियों को यह बात पता लगी तो उन्होंने रोहिंग्या मुस्लिमों के खिलाफ यातनाएं देने, हत्याएं और बलात्कार करने का कार्यक्रम शुरू किया। इससे डर कर अराकान से लाखों रोहिंग्या मुस्लिम फिर एक बार बंगाल भाग गए। 
द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्त‍ि और 1962 में जनरल नेविन के नेतृत्व में तख्तापलट की कार्रवाई के दौर में रोहिंग्या मुस्लिमों ने अराकान में एक अलग रोहिंग्या देश बनाने की मांग रखी, लेकिन तत्कालीन बर्मी सेना के शासन ने यांगून (पूर्व का रंगून) पर कब्जा करते ही अलगाववादी और गैर राजनीतिक दोनों ही प्रकार के रोहिंग्या लोगों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की। सैनिक शासन ने रोहिंग्या लोगों को नागरिकता देने से इनकार कर दिया और इन्हें बिना देश वाला (स्टेट लैस) बंगाली घोषित कर दिया।
तब से स्थिति में कोई सुधार नहीं आया है। संयुक्त राष्ट्र की कई रिपोर्टों में कहा गया है कि रोहिंग्या दुनिया के ऐसे अल्पसंख्यक लोग हैं, जिनका लगातार सबसे अधिक दमन किया गया है।
लोग सुन्नी इस्लाम को मानते हैं और बर्मा में इन पर सरकारी प्रतिबंधों के कारण ये पढ़-लिख भी नहीं पाते हैं तथा केवल बुनियादी इस्लामी तालीम हासिल कर पाते हैं। 
बर्मा के शासकों और सै‍‍न्य सत्ता ने इनका कई बार नरसंहार किया, इनकी बस्तियों को जलाया गया, इनकी जमीन को हड़प लिया गया, मस्जिदों को बर्बाद कर दिया गया और इन्हें देश से बाहर खदेड़ दिया गया। ऐसी स्थिति में ये बांग्लादेश की सीमा में प्रवेश कर जाते हैं, थाईलैंड की सीमावर्ती क्षेत्रों में घुसते हैं या फिर सीमा पर ही शिविर लगाकर बने रहते हैं। 1991-92 में दमन के दौर में करीब ढाई लाख रोहिंग्या बांग्लादेश भाग गए थे।
संयुक्त राष्ट्र, एमनेस्टी इंटरनेशनल जैसी संस्थाएं रोहिंया लोगों की नारकीय स्थितियों के लिए म्यांमार की सरकारों को दोषी ठहराती रही हैं, लेकिन सरकारों पर कोई असर नहीं पड़ता है। पिछले बीस वर्षों के दौरान किसी भी रोहिंग्या स्कूल या मस्जिद की मरम्मत करने का आदेश नहीं दिया गया है।

भारत और रोहिंग्या

हमारे देश में सत्ता और विपक्षी दलों को एक दूसरे के किये हर काम का विरोध करने की परंपरा रही है। फिर बात जब मुसलमानों की आती है तो कोई भी मुद्दा ज्यादा गंभीर हो जाता है।
अभी म्यांमार से विस्थापित करीब छह हजार रोहिंग्या मुस्लिम दिल्ली, हैदराबाद और कुछ अन्य भारतीय शहरों में बेहद बेचारगी की जिंदगी जी रहे हैं।इन्हें देश की सुरक्षा के लिए खतरा भी बताया जा रहा है।

मेरी सोच
पर,सरकार और दलों की राजनीतिक विचारों से अलग एक आम नागरिक की दृष्टि से सोचने पर मुझे यही समझ आता है कि, "अपने देश के नागरिकों की समस्याएँ कम नहीं,गरीब,भूख,आवास और,बेरोजगारी से देश का कौन सा हिस्सा अछूता है?? उसपर इन शरणार्थियों का बोझ हम कितना सह पायेगे??"अपनी थाली के भोजन से पेट का एक हिस्सा खाली रह जाता है कौन सा हिस्सा काट कर उनका पेट भरेगे।
जब कथित शरणार्थी यहाँ रहेगे तो इतने लोगों की मूलभूत सुविधाओं को पूरा करने के लिए आम जनता पर अतिरिक्त टैक्स का बोझ बढ़ेगा जिससे सामान्य जनता और भी परेशान होगी।बस मानवता,इंसानियत और एक धर्मनिरपेक्ष सर्वहितकारी देश का तमगा लेने के नाम पर हम अपने देश के जरूरतमंद जनता का निवाला छीन नहीं सकते ।शरणार्थियों की मदद करना और बात होगी एवं अपने देश में उनका स्वागत करना  दूसरी बात।माना ये दुखी और बहुत जरूरत मंद भी है, किंतु हमारे देश में भी ऐसे अनेक जरूरत मंद है कृपया पहले उनकी समस्याओं का समाधान कीजिए।

यहाँ मेरी इस स्वार्थी सोच से शायद बहुत से लोग सहमत न हो आलोचना करे कि," मैंने  मजबूर ,लाचार, हालात के मारे उन शरणार्थियों प्रति मानवता और इंसानियत को परे रख दिया है।"
मुझे भी उनके लिए सहानुभूति है जो संभव हो उस मदद के पक्ष में भी हूँ। जरूर उनको उनका अधिकार मिलना चाहिए,परंतु उदारवादी,परोपकारी,और मानवतावादी सोच रखने वाला हमारा देश हमेशा ऐसे शरणार्थियों की वजह से परेशानी झेलता रहा है, फिर ऐसा ठीकरा हमारे ही देश में क्यूँ फूटे??

अच्छा हो अन्य सभी देश मिलकर इस बाबत बर्मा सरकार के साथ बैठकर कोई हल निकाले।उस पर दवाब डाले आखिर मूलतः वहाँ के निवासी है ये। यह सुझाव इतना आसान तो नहीं पर असंभव नहीं।पड़ोसी की मदद करना ही चाहिए,जहाँ तक मदद करना संभव हो।

कृपया,दलगत भावना ,हिंदु-मुसलमान के सांप्रदायिक सोच से ऊपर उठ कर देश हित के लिए एक बार गंभीरता से जरुर सोचियेगा कि क्या सही और क्या गलत है।

नोट: मेरा ये लेख किसी भी व्यक्ति, दल ,धर्म या जाति से प्रभावित नहीं ये मेरे व्यक्तिगत विचार है।


    #श्वेता🍁

22 comments:

  1. सबसे पहले इस अत्यंत प्रासंगिक, समीचीन और सार्थक लेख पर आपका हार्दिक अभिनन्दन और बधाई!आपने सूचनाओं को सही ढंग से रखा है और समस्या के राजनितिक अतीत में घुसने की सफल कोशिश की है. मूलतः बौद्ध और मुस्लिम के बीच के सबसे बड़े भेद का मूल उन दोनों धर्मों के दार्शनिक पक्ष में ज्यादा है. आप सोचिये कि एक इस्लामिक मुल्क में बकरीद के दिन जब किसी वैष्णव को रख दिया जाय तो उसकी क्या स्थिति होगी. और यहाँ अहिंसा की शांत सलिला से सिक्त बौद्ध देश में मुसलमान जब इस तरह का कार्य करें तो वहां की बौद्ध जनता पर क्या असर होता होगा. उसमे भी भारत जैसे प्रजातांत्रिक धर्म निरपेक्ष देश में तो कुछ भी चल सकता है लेकिन जहां का राज धर्म ही बौद्ध हो वहां की जनता भला कब तक ऐसे वीभत्स दृश्यों को पचा पाएगी. समस्या का दूसरा तत्व आतंकवाद की कोख में इस समुदाय ( मै सारे मुसलमानों को आतंकवादी नहीं मानता) से अच्छी संख्या में लोगों का पनपना है.इनकी आतंकवादियों गतिविधियों ने यहाँ तक कि बंगला देश की नाकों में भी दम कर रखा है. और तीसरी बात वही जो चाणक्य ने शरणार्थियों के विषय में व्यक्त किये.उन्हें समस्त मानवीय सुविधाएं प्रदान की जाय, नागरिकता और मतदान जैसे अधिकार कदापि नहीं. सम्मानित अतिथि मात्र बनकर रहें. भारत में समूचा बंगाल, सीमांचल बिहार, उत्तर प्रदेश और कई अन्य राज्य इन समस्यायों से जूझ रहे है.वोट बैंक की राजनीति में! बात उसी दर्शन का है जिसके गर्भ से धर्म विशेष का उद्भव हुआ है. शरणार्थी भारत में तिब्बत से भी हैं और बंगलादेशी मुस्लिम भी हैं . परन्तु देखिये किसकी कितनी धमक सुनाती पड़ती है. इसलिए मेरा व्यक्तिगत मत है कि मानवीय आधार पर सीमित समय के लिए अपने पास उपलब्ध संसाधनों के आलोक में शरार्थियों को आश्रय देना हमारा पुनीत कर्तव्य है , किन्तु आश्रितों के चाल, चेहरा, चरित्र और राष्ट्रिय हितों की अनदेखी किये बिना !आपकी लेखनी यूँ ही प्रवाहित होती रहे . बहुत बहुत बधाई और भविष्य के लिए अशेष शुभ कामनाएं श्वेताजी!!!!!!! चरैवती चरैवती!!!!!!!!!

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    1. जी विश्वमोहन जी,
      आपके विचार से हम भी सहमत है।आपकी विश्लषणात्मक प्रतिक्रिया ने मनोबल बढ़ा दिया मेरा और भी लेख लिख खने की कोशिश कर सकते है हम।
      हम अभिभूत है आपकी प्रतिक्रिया से ,मेरे प्रथम लेख पर आपके आशीष से रचना का मान बढ़ गया।आपकी चिरवैती शुभकामनाएँ गदगद कर गयी।
      आभार,आभार,आभार तहेदिल से शुक्रिया खूब सारा आपका। कृपया,अपना आशीष बनाये रखे।

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  2. रोहिन्ग्या समुदाय के अतीत पर अच्छी जानकारी जुटाकर आपने एक बेहद प्रासन्गिक मुद्दे पर अपने विचार रखे हैं. ND टीवी और कुछ अन्य news chanal इस मुद्दे पर अपने प्राइम टाइम में बहुत कुछ kah चुके हैं. मै आपके विचारों से सहमत हूं. एक समीचीन आलेख.
    सहानुभूति,मानवता,राजनीति और नागरिक सुविधायें और सुरक्षा, इन सब पक्षों पर गहराई से विचार करने के बाद ही कोई निर्णय लिया जाना चाहिये.
    सुंदर आलेख. साधुवाद.
    सादर

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    1. जी,अपर्णा जी हम जानते है कि यह चर्चित मुद्दा है,बहुत सारी खबरें भी आती है पर एक आम जन के नज़रिये से एक विचार व्यक्त किये है।

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    2. आभार आपका आपके सुंदर संतुलित विचार के लिए।

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  3. स्वेता, बहुत ही प्रासंगिक और सार्थक लेख लिखा है आपने। मुझे भी यही लगात है कि इंसानियत के नाते हम उनकी जितनी सहायता कर सकते है करे लेकिन क्या ऐसा कुछ नही हो सकता कि दुनिया सभी देश मिल कर म्यांमार पर ही ऐसा कुछ दबाव बनाए ताकि इन लोगो को अपने खुद के देश में सम्मानजनक जिंदगी जीने मील।
    बहुत बढ़िया आलेख स्वेता। बधाई।

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    1. अति आभार आपका ज्योति जी,तहेदिल से शुक्रिया आपके समर्थन से मेरी सोच मेरा मनोबल बहुत बढ़ गया। ऐसे ही सहयोग की अपेक्षा करते है आपसे।

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  4. रोहिंग्या मुसलमानों को लेकर दुनिया जो भी सोच रही हो लेकिन भारत में यह मुद्दा हिंदू-मुस्लिम पालों में बंटकर निरर्थक बहस में उलझ गया है। आदरणीया श्वेता जी आपने इस प्रासंगिक मुद्दे से जुड़े तमाम पक्ष बेबाकी से सामने रखे हैं जिससे अनेक सुधिजन वस्तुस्थिति से अवगत हो सकें किंतु आप अपने निष्कर्ष और सुझाव के साथ बहुसंख्यकवाद के साथ खड़ी हो गयीं हैं।

    बिडम्बना यही है कि ऐसे मुद्दों को सांप्रदायिक नज़रिये से देखकर विशुद्ध राजनैतिक बना दिया जाता है। सनातन धर्म से ही जैन,बौद्ध,सिख आदि धर्मों की शाखाऐं विकसित हुई हैं। एक ओर बौद्ध रोहिंग्या मुस्लिमों पर अमानवीय अत्याचार कर रहे हैं (यहां उल्लेखनीय है रोहिंग्या भी प्रतिहिंसा और जघन्य अपराधों में संलग्न मिले ) वहीँ दूसरी ओर खालसा एड जैसी संस्था मानवीय मदद के लिए रोहिंग्या मुस्लिमों को बांग्लादेश पहुँचकर भोजन ,कपड़े और दवाई लेकर दुनिया के सामने आयी। और भारत में वर्तमान सरकार की बहुसंख्यक तुष्टिकरण-नीति के साथ खड़े होकर हमने ऐसे तर्क पेश किये जो मानवता में भी भेदभाव का चश्मा लगाए हुए हैं।
    माना कि ये रोहिंग्या मुस्लिम भारत की सुरक्षा के लिए ख़तरा हैं ,देश पर आर्थिक बोझ हैं , हमारे रोज़गार को चुनौती हैं ,अतिरिक्त करभार का कारण हैं लेकिन हमें अपना पिछला इतिहास भी देखना चाहिए। दूसरों को आत्मसात करने की भारतीय संस्कृति का निष्कर्ष क्या अब हमने यह मान लिया है कि यह उदारता हमें रसातल में ले गयी और अब इससे फटाफट उबरना चाहिए ?

    भारत में रोहिंग्या मुस्लिम वर्षों से हैं जोकि विधिवत शरणार्थी कम अवैध रूप से सीमा में घुस आये घुसपैठिये ज़्यादा हैं जोकि हमारी सुरक्षा व्यवस्था की कमज़ोरी है। भारत की जनता का दूसरा पक्ष इन्हें ( 40,000 रोहिंग्या मुस्लिम ) अपने यहां बसाये रखने का विचार नहीं रखता बल्कि म्यांमार में हालात सामान्य होने पर उन्हें उनके देश भेज दिया जाय क्योंकि अभी वहां की सेना कत्लेआम पर उतारू है। संयुक्त राष्ट्र संघ और विश्व बिरादरी के प्रभावी दख़ल के बाद म्यांमार को इन्हें वापस लेना होगा जैसा कि म्यांमार सरकार का हालिया बयान भी है। किसी को जबरन मौत के मुँह में धकेलना अमानवीय है क्योंकि इनमें केवल अपराधी तत्व ही शामिल नहीं हैं बल्कि मासूम बच्चे ,महिलायें ,वृद्ध और अपाहिज भी हैं।

    माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी एक याचिका पर सुनवाई करते हुए इसे मानवीय मुद्दा माना है जिसका फ़ैसला अभी लंबित है। बेशक देश के संसाधनों पर पहला हक़ उसके नागरिकों का होता है लेकिन संकटकालीन परिस्थियों में ऐसा भावनात्मक ज्वार जोकि मानवता को कठघरे में खड़ा करता हो चिंतनीय है। देश से बाहर भारतीय नागरिक भी अनेक दुराग्रहों का सामना करते हैं साथ ही विश्व बिरादरी की सहानुभूति भी हासिल करते हैं।यहाँ दक्षिणपंथ और वामपंथ की बहस व्यर्थ का चिंतन है।
    आपको इस सुंदर लेख के लिए बधाई। इस मुद्दे पर ज़्यादा से ज़्यादा बहस के बाद कुछ अच्छा सामने आ सके यही मेरी भी मंशा है। यह केवल भावनात्मक मुद्दा नहीं है।

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    1. आपका तहेदिल से शुक्रिया रवींद्र जी,
      हम पहले ही स्पष्ट कर चुके है मेरे विचार किसी भी व्यक्ति या समुदाय से प्रेरित नहीं है।
      आपके मानवतावादी,मनुष्यता से संबंधित विचार अत्यंत सराहनीय है परंतु ज़ज़्बातों में बहकर देश हित को नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता।

      आभार आपका रवींद्र जी,एक स्वस्थ चर्चा बहुत जरुरी होती है।पक्ष-विपक्ष जान समझकर सोच परिष्कृत होती है। आपने एक पक्ष विपक्ष का रखकर बताया लोग ऐसा भी सोच सकते है।
      बहुत आभारी है आपके।

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  5. बहुत ही प्रासंगिक विषय चुना है आपने श्वेता जी !मैं आपके विचारों से सहमत हूँ,भावनाओं में बहकर और कितने शरणार्थी.... जब अपने देशवासी ही गरीबी भुखमरी झेल रहे हैं.......
    बहुत ही विचारणीय लेख....

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    1. बहुत बहुत बहुत आभार आपका सुधा जी,मेरे मन की बात लिख दी आपने बहुत अच्छी एवं सराहनीय प्रतिक्रिया आपकीतहेदिल से शुक्रिया खूब सारा आपका।

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  6. मूसलाधार बारिश के चलते एक गाय ने दयावश बाहर भीगते कुत्ते को अपने छप्पर में जगह दे दी,देखते ही देखते वहाँ अन्य जीव छिपकली, साँप,बिच्छू, और भी बारिश से बचाव के लिए घुसने लगे, गाय यह सोचकर चुप रही कि बारिश बन्द होते ही ये चले जायेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ छप्पर में सभी तरह के जीव जन्तुओं का जमावड़ा इतना बढ गया कि जगह कम पड़ने लगी आखिर सभी जगह के लिए लड़ने लगे और अंततः सभी ने मिलकर विचार किया कि गाय सबसे ज्यादा जगह ले रही है इसे ही यहाँ से बाहर कर दिया जाय......
    शरणार्थियों को शरण देते देते कहीं.......
    भलाई का जमाना वैसे कम ही दिखता है अब.....

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    1. प्रभावशाली उदाहरण दिया आपने सुधा जी रचना का मतंव्य और भी स्पष्ट हुआ।
      वाह्ह्ह👌👌👌👌👌
      बहुत ही तार्किक प्रतिक्रिया।
      तहेदिल से शुक्रिया आपका खूब सारा।

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  7. यथार्थ‎परक लेख श्वेता जी .

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    1. बहुत बहुत आभार आपका मीना जी।तहेदिल से शुक्रिया जी।

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  8. बहुत प्रासंगिक और सार्थक चिंतन। आपकी कलम बहुआयामी है। एक ज्वलन्त विषय पर आपकी यह चर्चा बहुत प्रभावी है। आंगें ऐसे ही अन्य लेखों की आपसे अपेक्षा है। wahhhhh

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    1. जी,बहुत बहुत आभार आपका अमित जी,आपकी सराहना सदैव अपेक्षित है।तहेदिल से.शुक्रिया खूब सारा। यूँ ही मनोबल बढ़ाते रहे।

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  9. बहुत प्रासंगिक लेख
    बहुत ही सार्थक और हकीकत को बयां करता हुआ

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    1. बहुत बहुत आभार आपका लोकेश जी,तहेदिल से शुक्रिया खूब सारा आपका।

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  10. विषय बहुत ही प्रासंगिक चुना है भारत में रोहिंग्या मुस्लिम वर्षों से हैं जोकि विधिवत शरणार्थी कम अवैध रूप से सीमा में घुस आये घुसपैठिये ज़्यादा हैं जोकि हमारी सुरक्षा व्यवस्था की कमज़ोरी है

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    1. बहुत बहुत आभार आपका हंजय जी,तहेदिल से शुक्रिया आपका मेरे विचारों के समर्थन के लिए।

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आपकी लिखी प्रतिक्रियाएँ मेरी लेखनी की ऊर्जा है।
शुक्रिया।

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...