ठाठें मारता
ज्वार से लबरेज़
नमकीन नहीं मीठा समुंदर
तुम्हारी आँखें
तुम्हारे चेहरे की
मासूम परछाई
मुझमें धड़कती है प्रतिक्षण
टपकती है सूखे मन पर
बूँद-बूँद समाती
एकटुक निहारती
तुम्हारी आँखें
नींद में भी चौंकाती
रह-रह कर परिक्रमा करती
मन के खोह,अबूझ कंदराओं,
चोर तहखानों का
स्वप्न के गलियारे में
थामकर उंगली
अठखेलियाँ करती
देह पर उकेरती
बारीक कलाकृत्तियाँ
तुम्हारी आँखें
बर्फ की छुअन-सी
तन को सिहराती
कभी धूप कभी चाँदनी
कभी बादल के नाव पर उतारती
दिन के उगने से रात के ढलने तक
दिशाओं के हर कोने से
एकटुक ताकती
मोरपंखी बन सहलाती
तुम्हारी आँखें
#श्वेता सिन्हा
बहुत शानदार
ReplyDeleteतिलिस्मी अठखेलियाँ करता सृजन
ReplyDeleteवाह श्वेता अप्रतिम अद्भुत ।
"तुम्हारे चेहरे की मासूम परछाई" से लेकर "मोरपंखी बन सहलाती तुम्हारी आँखें" ... रुमानियत भरे पल को सजीव करता शब्द-चित्र ..मौन और मुखर की परिधि से परे रचना ....
ReplyDeleteवाह बेहद शानदार रचना श्वेता जी
ReplyDeleteये तो मल्टी-टैलेंटेड आँखे हैं ! हमारी आँखें तो बस, देखने और तरेरने के ही काम आती हैं.
ReplyDeleteवाह बेहतरीन प्रस्तुति दिशाओं के हर कोने से एक टुक ताकती मोरपंख बन सहलाती तुम्हारी आंखें.....
ReplyDeleteसुंदर।
ReplyDeleteभावों का बेहतरीन संयोजन श्वेता जी,अति सुन्दर रचना
ReplyDeleteसुन्दर भावाभियक्ति. अनूठे बिम्ब. रसमय सृजन.
ReplyDeleteलाजवाब सृजन !!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर सृजन
ReplyDeleteबर्फ की छुअन-सी
ReplyDeleteतन को सिहराती
कभी धूप कभी चाँदनी
कभी बादल के नाव पर उतारती
बहुत खूब ,लाजबाब आँखें ,बेहद सुंदर रचना