Tuesday, 4 June 2019

तुम्हारी आँखें

ठाठें मारता 
ज्वार से लबरेज़
नमकीन नहीं मीठा समुंदर
तुम्हारी आँखें

तुम्हारे चेहरे की
मासूम परछाई
मुझमें धड़कती है प्रतिक्षण
टपकती है सूखे मन पर
बूँद-बूँद समाती
एकटुक निहारती
तुम्हारी आँखें

नींद में भी चौंकाती
रह-रह कर परिक्रमा करती
मन के खोह,अबूझ कंदराओं,
चोर तहखानों का
स्वप्न के गलियारे में 
थामकर उंगली
अठखेलियाँ करती
देह पर उकेरती 
बारीक कलाकृत्तियाँ
तुम्हारी आँखें

बर्फ की छुअन-सी
तन को सिहराती
कभी धूप कभी चाँदनी
कभी बादल के नाव पर उतारती
दिन के उगने से रात के ढलने तक
दिशाओं के हर कोने से
एकटुक ताकती
मोरपंखी बन सहलाती
तुम्हारी आँखें

#श्वेता सिन्हा

12 comments:

  1. तिलिस्मी अठखेलियाँ करता सृजन
    वाह श्वेता अप्रतिम अद्भुत ।

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  2. "तुम्हारे चेहरे की मासूम परछाई" से लेकर "मोरपंखी बन सहलाती तुम्हारी आँखें" ... रुमानियत भरे पल को सजीव करता शब्द-चित्र ..मौन और मुखर की परिधि से परे रचना ....

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  3. वाह बेहद शानदार रचना श्वेता जी

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  4. ये तो मल्टी-टैलेंटेड आँखे हैं ! हमारी आँखें तो बस, देखने और तरेरने के ही काम आती हैं.

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  5. वाह बेहतरीन प्रस्तुति दिशाओं के हर कोने से एक टुक ताकती मोरपंख बन सहलाती तुम्हारी आंखें.....

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  6. भावों का बेहतरीन संयोजन श्वेता जी,अति सुन्दर रचना

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  7. सुन्दर भावाभियक्ति. अनूठे बिम्ब. रसमय सृजन.

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  8. लाजवाब सृजन !!

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  9. बर्फ की छुअन-सी
    तन को सिहराती
    कभी धूप कभी चाँदनी
    कभी बादल के नाव पर उतारती
    बहुत खूब ,लाजबाब आँखें ,बेहद सुंदर रचना

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आपकी लिखी प्रतिक्रियाएँ मेरी लेखनी की ऊर्जा है।
शुक्रिया।

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