Tuesday 3 September 2019

मंदी


हमारे औद्योगिक शहर में छोटे-मंझोले,बंद होते कल कारखानों,छँटनी के बाद मजदूर वर्ग के माथे पर दो समय की रोटी,भात पर चिंता की गहराती लकीरें
सोचने पर मजबूर कर रही है। पूरे देश में अतिशय प्रेम लुटाने वाले मानसून की अपने क्षेत्र में बेरुख़ी से
अकाल जैसी स्थिति बनने लगी है। नदियों की रेत से चिपका बहता मटमैला पानी आने वाले महीनों में पेयजल की किल्लत को समझाने के लिए काफी है।
स्थानीय सब्जियों और अनाज उत्पादन पर भी खासा असर पड़ रहा है। मौसमी बीमारी का प्रकोप भी कम नहीं। 
अब ऐसे में देश की बिगड़ती आर्थिक व्यवस्था का दंश झेलने के लिए जनता किस तरह तैयार हो सकती है?
अब जरूरत है देश की वर्तमान और भविष्य की आर्थिक नीतियों का पुनर्मूल्यांकन किया जाये?
सरल,अति साधारण ज्ञान रखने वाली देश की आधी से ज्यादा जनता को जीडीपी,मुद्रा के अवमूल्यन और अर्थव्यवस्था के लंबे चौड़े पेचीदा आँकड़े समझ नहीं आते है। साधारणतया एक आम आदमी अपने परिवार का भरण-पोषण कर सके,उतनी आमदनी हो यही उम्मीद और जरूरत है। भूखे के आगे से कुपोषित थाली भी छीनी जाने लगे तो
बेबस मन से आह और प्रतिकार निकलना स्वाभाविक है।
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एक आम आदमी की मन की अभिव्यक्ति-
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जुटाऊँ निवाला सूझता नहीं कैसे?
होने लगी है अब तो घबराहट
चूल्हे की ठंडी न पड़ जाय आग 
बेचैन मन की समझो कसमसाहट

बूढ़े माता-पिता,बच्चों के चेहरे
कैलेंडर की तारीखों के पहरे
अपनी इच्छाओं की कब्रगाह पर
नम आँखों की झिलमिलाहट

लचर,बदहाल अर्थव्यवस्था और
मंदी के शोर को समझने का दौर
कामगारों को लीलती कम्पनियाँ
बेरोजगारों की बढ़ती अकुलाहट

ब्लॉक क्लोज़र से चिंतित मजदूर
थाली से रोटी अब होने लगी दूर
कर्ज़ की बोझ से बुझते दीपों की
कंपकपाती मद्धिम टिमटिमाहट

किस मज़हब पर हुआ है आधा?
किस संप्रदाय पर असर ज्यादा?
मंदी की मार से घायल जनता की
मुझे तो एक-सी लगती छटपटाहट

अर्थ आँकड़ों का नहीं कोई ज्ञान 
किसे भेजूँ जलते पेट का संज्ञान
कुपोषित थाली भी छीनी जा रही
कैसे समझूँ अर्थहीन भिनभिनाहट?

#श्वेता सिन्हा




10 comments:

  1. विवशतापूर्ण मन का सटीक चित्रण।

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  2. अर्थ आँकड़ों का नहीं कोई ज्ञान
    किसे भेजूँ जलते पेट का संज्ञान
    व्वाहहहह
    सादर..

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  3. आर्थिक विषमता की मार मजदूर और आम आदमी झेलता है ..उस व्यथा और चिंता को रचना में जीवन्त कर दिया है श्वेता... हृदयस्पर्शी सृजन ।

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  4. आर्थिक विषमता का यथार्थ चित्रण,बेहतरीन
    रचना

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  5. मंद होती अर्थव्यवस्था में तेज होती 'आहत पेट की कुलबुलाहट' की दर्दनाक आहट!

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  6. अर्थ आँकड़ों का नहीं कोई ज्ञान
    किसे भेजूँ जलते पेट का संज्ञान

    इन पंक्तियों ने दिल मे तूफान मचा दिया

    बेहतरीन

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  7. श्वेता दी, मंदी की आर मजदूर को किस तरह तोड़ देती हैं इसका बहुत ही सटिक विश्लेषण किया हैं आपने।

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  8. भूखे के आगे से कुपोषित थाली भी छीनी जाने लगे तो बेबस मन से आह और प्रतिकार निकलना स्वाभाविक है। एकदम सटीक...
    समसामयिक अर्थव्यवस्था का लाजवाब विश्लेषण....
    अद्भुत,सराहनीय सृजन...वाह!!!!

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आपकी लिखी प्रतिक्रियाएँ मेरी लेखनी की ऊर्जा है।
शुक्रिया।

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