खो रहा मेरा गाँव
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पंछी और पथिक ढूँढ़ते सघन पेड़ की छाँव,
रो-रो गाये काली चिड़िया खो रहा मेरा गाँव।
दहकती दुपहरी ढूँढ़ रही मिलता नहीं है ठौर;
स्वेद की बरखा से भींजे तन सूझे न कुछ और,
पुरवा आके सहला जा कड़वे नीम के बौर;
माटी के आँगन में हँसता बचपन का वो दौर,
बसवारी की लुका-छिपी खेलों का नहीं चाव;
यादों की सिगड़ी पर सिंकता खो रहा मेरा गाँव।
ताल-तलैया पाट दिये गुम झरनों का गीत;
बूँदों को मारे फिरें अब नदी कहाँ मनमीत,
पनघट,गगरी क़िस्से हो गये खो गये सारे रीत;
कोयल कूहके ठूँठ पर कैसे पात हो गये पीत,
साँझ ढले अब नहीं लौटते धूल उड़ाते पाँव;
भेड़-बकरियाँ मिमियायें खो रहा मेरा गाँव।
बरगद,नीम राह तके ख़ाली अब चौपाल है;
केंदु,इमली,जामुन,बेर मिल जाए तो कमाल है,
टेसू न श्रृंगार बने, सखुआ,पाकड़ का बुरा हाल है;
अमराई सूनी झूलों से भँवरों के लाख़ सवाल है,
महुआ की गंध से बौराये न काक करे अब काँव;
सरसों बिन तितली के रोये खो रहा मेरा गाँव।
शहरों की चकाचौंध ने बदल दिये सब रंग;
पगडण्डियाँ सड़कें बन रहीं हरियाली है तंग,
खेत के काले मेड़ कहरते फैक्टरियों के संग;
दौर बदला, अब बदल गया जीने का सब ढंग,
सिकुड़ी नदियाँ बारिश में ही अब चलती है नाव,
प्रदूषण ने पैर पसारे खो रहा मेरा गाँव।
कितने क़िस्से कितनी बातें सबका एक निचोड़,
बस रहे कंकरीट के जंगल हरे पहाड़ को फोड़।
न खेत बचे तो क्या खायेंगे फिर धरती को खोड़,
मौसम का बीजगणित समझो संग प्रकृति को जोड़।
मौन आहट क़दमों की ये सब विनाश के दाँव,
धरती फूट-फूटकर रोये ख़ो रहा मेरा गाँव।
श्वेता
२७ मई २०१८
(आकाशवाणी जमशेदपुर से
साहित्यिक कार्यक्रम सुवर्ण रेखा में प्रसारित)
कितने क़िस्से कितनी बातें सबका एक निचोड़,
ReplyDeleteबस रहे कंकरीट के जंगल हरे पहाड़ को फोड़।
हृदयस्पर्शी !!
सचमुच औद्योगीकरण और शहरीकरण ने गावों को लील लिया है । सशक्त भावाभिव्यक्ति ।
खो रहे गाँव और सुरसा की तरह लील रहे कंकरीट के जंगल वाक़ई दुनिया को एक ऐसे युग में धकेल रहे हैं जिसका अंत अति भयानक हो सकता है, मानव को समय रहते चेतना होगा।
ReplyDeleteअत्यंत प्रभावशाली लेखन श्वेता जी !
वाह
ReplyDeleteबहुत बहुत सुन्दर
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