निर्जीव,बिखरते पत्तों की
खड़खडाहट पर अवश खड़ा
शाखाओं का कंकाल पहने
पत्रविहीन वृक्ष
जिसकी उदास बाहें
ताकती हैं
सूखे नभ का
निर्विकार चेहरा
हवा के बेपरवाह झकोरों से
काँपते नीड़ों से
झाँकती,फुदकती ,किलकती
चिड़िया
अपने सुखधाम के
रहस्योद्घाटन से भयभीत
उड़ जाती है
सघन छाँह की ओर
और कुछ सहमी,दुबकी रहती हैं
तिनकों की ओट में असहज,
अकेलेपन के
घाम से व्याकुल वृक्ष
साँझ की शीतल छाँह में
चाँदनी की झीनी चादर में
भीगता,सिहरता रातभर
प्रथम रश्मि के स्पर्श से
अपनी बाहों में फूटे
रेशमी नव कोंपलों को
ओढ़कर इतराता है
वृद्ध होता वृक्ष
यौवन का उल्लास लिये
काल के कपाल पर नित
उगता ,खिलखिलाता,
मुस्काता,थमता,मरुआता,
टूटता,मिटकर फिर से
हरियाता निरंतर
प्रवाहित जीवन चक्र,
आस-निराश का सार समझाता है।
#श्वेता सिन्हा