निर्जीव और बेजान
निष्ठुरता का अभिशाप लिये
मूक पड़ी है सदियों से
स्पंदनहीन शिलाएँ
अनगिनत प्रकारों में
गढ़ी जाती
मनमाना आकारों में
बदलते ऋतुओं में
प्रतिक्रियाहीन
समय की ठोकर में
बिना किसी शिकायत
निःशब्द टूटती-बिखरती
सहज मिट्टी में मिल जाती
गर्व से भरी शिलाएँ
हाँ, मैंने महसूस किया है
शिलाओं को कुहकते हुये
मूक मूर्तियों में गढ़ते समय
औजारों की मार सहकर
दर्द से बिलखते हुये
नींव बनकर चुपचाप
धरती की कोख में धँसते हुये
लुटाकर अस्तित्व वास्तविक
आत्मोत्सर्ग से दमकते हुये
आसान नहीं
सदियों
समय के थपेड़ों को
सहनकर
धारदार परिस्थितियों
से रगड़ाकर,टकराकर
निर्विकार रहना
अधिकतर शिलायें
खो देती है अपना स्वरूप
मिट जाती है यूँ ही
और कुछ
जो सह जाती है
समय की मार
परिस्थितियों का आघात
साधारण शिला से
असाधारण "शिव" और
शालिग्राम बनकर
पूजी जाती हैं
पारस हो जाती है।
#श्वेता सिन्हा