Showing posts with label शिला....अतुकांत दार्शनिक कविता. Show all posts
Showing posts with label शिला....अतुकांत दार्शनिक कविता. Show all posts

Monday 26 August 2019

शिला




निर्जीव और बेजान   
निष्ठुरता का अभिशाप लिये
मूक पड़ी है सदियों से
स्पंदनहीन शिलाएँ
अनगिनत प्रकारों में
गढ़ी जाती 
मनमाना आकारों में
बदलते ऋतुओं में 
प्रतिक्रियाहीन
समय की ठोकर में
बिना किसी शिकायत
निःशब्द टूटती-बिखरती
सहज मिट्टी में मिल जाती
गर्व से भरी शिलाएँ

हाँ, मैंने महसूस किया है
शिलाओं को कुहकते हुये
मूक मूर्तियों में गढ़ते समय 
औजारों की मार सहकर
दर्द से बिलखते हुये
नींव बनकर चुपचाप 
धरती की कोख में धँसते हुये
लुटाकर अस्तित्व वास्तविक
आत्मोत्सर्ग से दमकते हुये

आसान नहीं
सदियों
समय के थपेड़ों को
सहनकर
धारदार परिस्थितियों
से रगड़ाकर,टकराकर
निर्विकार रहना
अधिकतर शिलायें
खो देती है अपना स्वरूप
मिट जाती है यूँ ही
और कुछ
जो सह जाती है
समय की मार
परिस्थितियों का आघात
साधारण शिला से
असाधारण "शिव" और
शालिग्राम बनकर
पूजी जाती हैं
पारस हो जाती है।

#श्वेता सिन्हा

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...