चित्र: साभार गूगल
आँख मूँदें तुम्हारे एहसास में गुम
जब भी चाहती हूँ
तुम्हारी आत्मा से प्रेम करना
तुम्हारे देह में उलझ कर रह जाती हूँ
निर्मल मुस्कान, भोली आँखों में,
तुम्हारे स्पर्श की स्फुरण को झटक
मोहिनी तोड़कर
आगे बढ़ना आसान नहीं होता
देह की नदी की धाराओं के
उस पार
अस्तित्वविहीन आत्मा को ढूँढ़ती
तुम्हारे मन को टोहने लगती हूँ
तुम्हारे दुःख,सुख,आँसू मुस्कान,हंसी
सारे भावों को
अपने भीतर पाती हूँ
पर निराकार नहीं
साकार तुम्हारी देह के साथ
तुम कहते हो न
प्रेम आत्मा का आत्मा से प्रगाढ़ आलिंगन है
पर कहो न फिर
कुछ अनुत्तरित से है प्रश्न मेरे
देह,आत्मा और प्रेम के
देह से परिचित होकर ही तो
तुम्हारी आत्मा तक जाने का पुल बना!
कैसे मिटाकर देह को
देखूँ आत्मा?
निष्कलुष मन
जो तुम्हें महसूस करता है निःस्वार्थ
तुमसे बिना किसी कांक्षा के
क्या कहूँ इस उद्दाम,उत्कंठ भाव को?
क्या है प्रेम?
तुम्हारे साथ बीतते बेसुध पल?
तुम्हें सदेह महसूस करता मन?
या ईश्वर की तरह तुम्हारा अस्तित्व
जो अदृश्य होकर भी
पल-पल में होने का आभास देता है
तुम्हारी देह के परिचय के साथ।
श्वेता सिन्हा