Thursday, 11 May 2023

निर्दोष


धर्म को पुष्ट करने हेतु
आस्था की अधिकता से
सुदृढ हो जाती है
कट्टरता ....
संक्रमित विचारों की बौछारों से
से सूख जाता है दर्शन 
संकुचित मन की परतों से
टकराकर निष्क्रिय हो जाते है
तर्कों के तीर
रक्त के छींटो से मुरझा जाते हैं
सौंदर्य के फूल
काल्पनिक दृष्टांतों के बोझ तले
टूट जाती है प्रमाणिकता
जीवन की स्वाभाविक गतिशीलता
को लीलती है जब कट्टरता
तब...
कोई भी गणितीय सूत्र या मंत्र
नहीं जोड़ पाती है
मानवता की साँस
नैतिकताओं को वध होते देखते
प्रत्यक्षदर्शी हम 
घोंघा बने स्वयं के खोल में सिमटे
मौन रहकर
जाने-अनजाने, न चाहते हुए भी
निर्लज्ज धर्मांधों का अनुचर बनकर
मनुष्यता के भ्रूण को
चुन-चुनकर मारती भीड़ का
का हिस्सा होकर
स्वयं को निर्दोष बताते हैं...।

#श्वेता

 

Sunday, 22 January 2023

तितलियों के टापू पर...


तितलियों के टापू पर
मेहमान बन कर जाना चाहती हूँ
चाहती हूँ पूछना उनसे-
 
बेफ्रिक्र झूमती पत्तियों को
चिकोटी काटकर,
खिले-अधखुले फूलों के 
चटकीले रंग चाटकर
बताओ न गीत कौन-सा
गुनगुनाती हो तितलियाँ?
 
चाँद के आने से पहले
सूरज के ठहरने तक
चिड़ियों की पुकार पर
ऋतुओं के बदलने तक
बागों में क्या-क्या गुज़रा
क्यों नहीं बताती हो तितलियाँ?

प्रेम में डूबी,खुशबू में खोयी
कल्पनाओं के फेरे लगाती
स्वप्नों के टूटने से फड़फड़ाकर
व्यथाओं से सरगम सजाती
क्या तुम भी भावनाओं से बेकल
 प्रार्थना मुक्ति की दोहराती हो तितलियाँ?

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-श्वेता 
२२ जनवरी २०२३


Wednesday, 12 October 2022

मौन शरद की बातें


 साँझ के बाग में खिलने लगीं
काली गुलाब-सी रातें।
चाँदनी के वरक़ में लिपटी
 मौन शरद की बातें।

 चाँद का रंग छूटा
चढ़ी स्वप्नों पर कलई,
हवाओं की छुअन से 
सिहरी शिउली की डलई,
सप्तपर्णी के गुच्छों पर झुके
बेसुध तारों की पाँतें।
साँझ के बाग में खिलने लगीं
काली गुलाब-सी रातें।

झुंड श्वेत बादलों के 
निकले सैर पर उमगते,
इंद्रधनुषी स्वप्न रातभर
क्यारी में नींद की फुनगते,
पहाडों से उतरकर हवाएँ
करने लगी गुलाबी मुलाकातें।
साँझ के बाग में खिलने लगीं
काली गुलाब-सी रातें।

शरद है वैभव विलास
ज़रदोज़ी सौंदर्य का,
सुगंधित शीतल मंद बयार
रस,आनंद माधुर्य-सा,
प्रकृति करती न्योछावर
अंजुरी भर-भर सौगातें।
साँझ के बाग में खिलने लगीं
काली गुलाब-सी रातें।
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-श्वेता सिन्हा
१२ अक्टूबर २०२२

Wednesday, 10 August 2022

संदेशवाहक


अनगिनत चिडियाँ
भोर की पलकें खुरचने लगीं
कुछ मँडराती रही 
पेडों के ईर्द-गिर्द
कुछ खटखटाती रही दरवाज़ा
बादलों का...।

कुछ
हवाओं संग थिरकती हुई
गाने लगी गीत
धूल में नहाई और 
बारिश के संग
बोने लगी जंगल...।

कुछ चिड़ियों ने 
तितलियों को चूमा
मदहोश तितलियाँ 
मलने लगी 
फूलों पर अपना रंग
अँखुआने लगा
कल्पनाओं का संसार...।

कुछ चिड़ियों के
टूटे पंखों से लिखे गये
प्रेम पत्रों की 
खुशबू से
बदलता रहा ऋतुओं की
किताब का पृष्ठ...।

हवाओं की ताल पर
कुछ
उड़ती चिड़ियों की
चोंच में दबी
सूरज की किरणें
सोयी धरती के माथे को
पुचकारकर कहती हैं
उठो अब जग भी जाओ
सपनों में भरना है रंग।

चिड़ियाँ सृष्टि की 
प्रथम संदेशवाहक है 
जो धरती की 
तलुओं में रगड़कर धूप
भरती  है महीन शिराओं में
चेतना का स्पंदन।
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-श्वेता सिन्हा
१० अगस्त २०२२

Sunday, 17 July 2022

बचा है प्रेम अब भी...।


आहट तुम्हारी एहसास दिलाती है,
मेरी साँसों में बचा है प्रेम अब भी...।

काँपती स्मृतियों में स्थिर तस्वीर
भीड़ में तन्हाई की गहरी लकीर,
हार जाती भावनाओं के दंगल में
दूर तक फैले सन्नाटों के जंगल में,
पुकार तुम्हारी गुदगुदाकर कहती है,
मेरी साँसों में बचा है प्रेम अब भी...।

बींध गया झटके से उपेक्षा का तीर
राग-मोह छूटा, बना मन फ़कीर,
बौराई फिरती हूँ ज्ञान वेधशाला में
तुलसी की माला में ध्यान की शाला में,
आँखें तुम्हारी मुस्कुराकर बताती है
मेरी साँसों में बचा है प्रेम अब भी...।

धुँधलाई आँखें, पथराये से कान
मुरझाऐ  उमस भरे सूने दालान,
प्रतीक्षा की सीढ़ी पे सोयी थककर
तारों के पैताने चाँद पे सर रखकर,
स्पर्श तुम्हारा, दुलराती जताती हैं
मेरी साँसों में बचा है प्रेम अब भी...।
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- श्वेता सिन्हा
१७ जुलाई २०२२
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Thursday, 30 June 2022

आह्वान


आओ मेरे प्रिय साथियों 
कुछ हरी स्मृतियाँ संजोये,
बिखरे हैं जो बेशकीमती रत्न
बेमोल पत्थरों की तरह
उन्हें चुनकर सजायें,
कुछ कलात्मक कलाकृतियाँ बनायें
,तुम्हारे साथ है धैर्य और सहनशीलता
विपरीत परिस्थितियों में जुझारूपन से
तुम्हें सींचना हैं बंजर -सी हो रही धरती पर
विरासत में बोयी गयी बीजों को
उगाने है काँटों में भी नीले,पीले फूल 
निरंतर तुम्हारे मूक प्रयास के हल चल रहे हैं
अनाम खेतों की माटी कोड़ते रहो
रेहन में रखे लहलहाते सपनों के लिए
मुट्ठीभर चावल जुटाने का प्रयास करते रहो
एक दिन तुम्हारे पवित्र स्वेद की
अनोखी गंध से भींगे
प्रेम के कभी न मुरझाने वाले फूल
क्यारियों में खिलेंगे
तृप्त कर दे जो ज्ञान की क्षुधा 
रस भरे अनाजों से भंडार भरेंगे
घेर लो अपनी हथेलियों से
लगातार काँपती हवाओं में
फड़फड़ा रही लौ को 
फिर तो कभी न बुझने वाले
सद्भावना के दीप जलेंगे
जिसके कोमल प्रकाश 
आने वाली पीढ़ियों के लिए
पथप्रदर्शक बनेंगें।

#श्वेता सिन्हा
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Wednesday, 18 May 2022

तुमसे प्रेम करते हुए...(३)



सिलवट भरे पन्नों पर जो गीली-सी लिखावट है,
मन की स्याही से टपकते, ज़ज़्बात की मिलावट है।

पलकें टाँक रखी हैं तुमने भी तो,देहरी पर,
ख़ामोशियों की आँच पर,चटखती छटपटाहट है ।

लाख़ करो दिखावा हमसे बेज़ार हो जीने का,
नाराज़गी के मुखौटे में छुप नहीं पाती सुगबुगाहट है।

मेरी नादानियों पर यूँ सज़ा देकर हो परेशां तुम भी
सुनो न पिघल जाओ तुम पर जँचती मुस्कुराहट है।

-श्वेता सिन्हा


Sunday, 15 May 2022

शब्द प्रभाव

चित्र:मनस्वी

खौलते शब्दों के छींटे
देह पर गिरते ही
भाप बनकर 
मन में समा जाते हैं...
असहनीय वेदना से
छटपटाता,व्याकुल
भीतर ही भीतर सीझता मन
मरहम के फाहे के लिए
उन्हीं शब्दों के 
ठंडा होने की
प्रतीक्षा करता है।

जलते शब्दों के अमिट निशान
चिपक जाते हैं उम्रभर के लिए
मन के अदृश्य सतह पर
अनुपयोगी 
बर्थमार्क की तरह,
जिसे खुरचकर हटाया नहीं
नहीं जा सकता आजीवन
पर वक़्त के साथ 
देह पर पनपे अनचाहे, अन्य
निशानों की तरह ही
स्वीकार कर लिया जाता है।

मछलियों की तरह 
शब्दों के लहरों में तैरता 'मन'
भावनाओं को स्पर्श
करने के क्रम में
खिंचता चला जाता है अवश
भँवर की अतल गहराईयों में
पर...
मन के सारे रंग
निचोड़कर फेंक देता है भँवर
निर्जीव-सी देह को,
जो हल्की होकर बहने लगती है
धाराओं के अनुकूल,
संसार की नदी में
कठोर पत्थरों और
रेतीले किनारों से रगड़ाती हुई
अस्तित्व के विलुप्त होने तक,
उस भँवर की मरीचिका में
मन भटकता रहता है,
उलझता  रहता है
तृप्ति -अतृप्ति की
अंतहीन यात्राओं में...।

-श्वेता सिन्हा
१५ मई २०२२

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...