Saturday 30 January 2021

बापू


 व्यक्ति से विचार
और विचार से फिर
वस्तु बनाकर
 भावनाओं के 
 थोक बाज़ार में
 ऊँचे दामों में
 में बेचते देख रही हूँ।

चश्मा,चरखा,
लाठी,धोती,टोपी
खादी,
बेच-बेचकर 
संत की वाणी
व्यापारी बहेलियों को
शिकार टोहते देख रही हूँ।

सत्य से आँखें फेर,
आँख,कान,मुँह 
बंद किये 
आदर्शों का खद्दर ओढ़े
भाषणवीर 
अहिंसकों को
गाल बजाते देख रही हूँ।

 "बापू" की
करूणामयी
 रेखाचित्रों को
आज़ादी के 
ऐतिहासिक पृष्ठों से
निकालकर चौराहों पर 
पत्थर की मूर्तियों में
बदलते बहुरूपियों को
महत्वाकांक्षाओं की अटारी पर
कटारी लिए मचलते देख रही हूँ।

और...
आज भी
बापू की जीवित
आत्मा को मारने की
कुचेष्टा में
अपनी बौद्धिक वसीयत की बंदूकें
सौंपकर अपने बच्चों को
हत्यारे "गोडसे" का
प्रतिरूप
बनाते देख रही हूँ।
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#श्वेता सिन्हा
३० जनवरी२०२१


Thursday 28 January 2021

चश्मे... मतिभ्रम


उड़ती गर्द में
दृश्यों को साफ देखने की 
चाहत में
चढ़ाये चश्मों से
अपवर्तित होकर
बनने वाले परिदृश्य
अब समझ में नहीं आते 
तस्वीरें धुंधली हो चली है
निकट दृष्टि में आकृतियों की
भावों की वीभत्सता से
पलकें घबराहट से
स्वतः मूँद जाती हैं,
दूर दृष्टि में
विभिन्न रंग के
सारे चेहरे एक से... 
परिस्थितिनुरूप
अलग-अलग समय पर 
अलग-अलग
कोणों से
खींची तस्वीरों को
जोड़कर प्रस्तुत की गयी
कहानियों से
उत्पन्न मतिभ्रम 
पीड़ा का 
कारण बन जाता है।

सोचती हूँ
भ्रमित लेंस से बने
चश्मे उतार फेंकना ही
बेहतर हैं,
धुंध भरे दृश्यों 
से अनभिज्ञ,
तस्वीरों के रंग में उलझे बिना,
ध्वनि,गंध,अनुभूति के आधार पर
साधारण आँखों से दृष्टिगोचर
दुनिया महसूसना 
 ज्यादा सुखद एहसास हो 
शायद...।
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#श्वेता सिन्हा
२८ जनवरी २०२१

 

Tuesday 26 January 2021

सैनिक...धन्य कोख




 
धन्य धरा,माँ नमन तुम्हें करती है
धन्य कोख,सैनिक जो जन्म करती है।

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शपथ लेते, 
वर्दी देह पर धरते ही 
साधारण से 
असाधारण हो जाते
बेटा,भाई,दोस्त या 
पति से पहले,
माटी के रंग में रंगकर 
रक्त संबंध,रिश्ते सारे
एक ही नाम से 
पहचाने जाते।

महत्वाकांक्षी स्वप्न 
 हुक्मरानों के,
सियासी दाँव-पेंचों से तटस्थ,
सरहदों के बीच खड़े अडिग,
सिपाही,नायक,हवलदार,
सूबेदार,लैफ्टिनेंट,मेजर,
कर्नल नाम वाले
अनेक शब्दों के लिए
 एक शब्द...।
 
मूर्खतापूर्ण जुमलेबाज़ी  
अनदेखा कर,
निर्मम उपहासों का 
उपहार स्वीकारते,
जाति-धर्म के कुटिल चेहरों को
नहीं पहचानते,
विषम परिस्थितियों में भी 
कटिबद्ध,बेपरवाह,
बनते सुरक्षा कवच सहर्ष
लड़ते,भिड़ते,गिरते,
चोट खाते,फिर उठते,
काल के सम्मुख
सीना ताने निर्भीक
सैनिक...।

#श्वेता सिन्हा
२६/१/२०२१

Saturday 23 January 2021

चाँद और रात



(१)
र्द रात
गर्म लिहाफ़ में
कुनमुनाती,
करवट बदलती
छटपटाती नींद
पलकों से बगावत कर
बेख़ौफ़ निकल पड़ती है
कल्पनाओं के गलियारों में,
दबे पाँव 
चुपके से खोलते ही
सपनों की सिटकनी
आँगन में 
कोहरा ओढ़े चाँद 
माथे को चूमकर
मुस्कुराता है
और नींद मचलकर
माँगती है दुआ
काश!!
पीठ पर उग आए 
रेशमी पंख 
ओर वो उड़कर
चली जाए
क्षितिज के उसपार 
जहाँ ख़्वाहिशें
सुकून से सोती हैं...।

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(२)

समां की 
अंधेरी दीवारों से
टकराकर वापस
लौटती सदाएँ
हँस पडती है
ठंडी हवाओं की चुभन से
जगे सपनें
ओढ़ाकर लिहाफ़
सहलाकर उदास पलकें
समझाते हैं
आधी रात को
 साँसों की दस्तक
झींगुर सुन रहे हैं
और बाँट रहे हैं एहसास
मन की भाषा 
महसूसने के लिए
हमजुबाँ होना जरुरी तो नहीं 
शायद...।

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(३)
रती है चाँदनी
ठूँठ रात के घुप्प शाखों पर,
बेदर्दी से पत्तों को सोते से झकझोरती
बदतमीज़ हवाओं की 
सनसनाहट से
दिल अनायास ही
बड़ी ज़ोर से धुकधुकाया 
आँखों से गिरकर
तकिये पर टूटा एक ख़्वाब
आज फिर,
सारी रात
शिउली और चाँद की
रूनझुनी हँसी सुन-सुनकर
भोर होने तक 
 मुस्कुरायेगा।
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#श्वेता सिन्हा
२३/१/२०२१







Tuesday 19 January 2021

चिड़िया

धरती की गहराई को
मौसम की चतुराई को
भांप लेती है नन्ही चिड़िया
आगत की परछाई को।


तरू की हस्त रेखाओं की
सरिता की रेतील बाहों की
बाँच लेती है पाती चिड़िया
बादल और हवाओं की।


कानन की सीली गंध लिए
तितली-सी स्वप्निल पंख लिए
नाप लेती है दुनिया चिड़िया
मिसरी कलरव गुलकंद  लिए।


सृष्टि में व्याप्त मौन अभ्यर्थना
चोंच से निसृत पवित्र प्रार्थना
चुग लेती है तम कण चिड़िया
गूँथ रश्मि की सजल अल्पना।


द्रष्टा और दृश्य की परिभाषा
जन्म-मरण अहर्निश प्रत्याशा 
सोख लेती है अतृप्ति चिड़़िया
बूझो अगर तुम उसकी भाषा।



#श्वेता सिन्हा
१९ जनवरी २०२१


Friday 15 January 2021

सैनिक


हरी-भूरी छापेवाली
वर्दियों में जँचता
कठोर प्रशिक्षण से बना
लोहे के जिस्म में
धड़कता दिल,
सरहद की बंकरों में
प्रतीक्षा करता होगा
मेंहदी की सुगंध में 
लिपटे कागज़ों की,
शब्द-शब्द
बौराये एहसासों की
अंतर्देशीय, लिफ़ाफ़ों की।

उंगलियां छूती होंगी रह-रहकर
माँ की हाथों से बँधी ताबीज़ को, 
बटुए में लगी फोटुओं 
से बात करती आँखें
करवट लेते मौसम की अठखेलियाँ,
हवाओं,बादलों,चाँद से टूटकर छिटके 
चाँदनी की मोतियों,रंग बदलते
पहाड़ों,वादियों,सुबह और साँझों
से तन्हाई में गुफ्तगूं करते 
मन ही मन मुस्कुराकर 
कहते होंगे जरूर-

संगीनों पर सजा रखी है पोटली
याद की चिट्ठियों वाली
आँखों में बसा रखी है ज़िंदगी 
मौत की अर्जियों वाली।

#श्वेता सिन्हा
१५ जनवरी २०२१

Monday 11 January 2021

चमड़ी के रंग


पूछना है अंतर्मन से
चमड़ी के रंग के लिए
निर्धारित मापदंड का
शाब्दिक
 विरोधी
हैंं हम भी शायद...?

आँखों के नाखून से
चमड़ी खुरचने के बाद
बहती चिपचिपी नदी का
रंग श्वेत है या अश्वेत...? 
नस्लों के आधार पर
मनुष्य की परिभाषा
तय करते श्रेष्ठता के
 
खोखले आवरण में बंद
घोंघों को 
अपनी आत्मा की प्रतिध्वनि 
भ्रामक लगती होगी...।

सारे लिज़लिज़े भाव जोड़कर 
शब्दों की टूटी बैसाखी से
त्वचा के रंग का विश्लेषण
वैचारिकी अपंगता है या 
निर्धारित मापदंड के
संक्रमण से उत्पन्न
मनुष्यों में पशुता से भी
निम्नतर,पूर्वाग्रह के 
विकसित लक्षण वाले
असाध्य रोग  ?

पृथ्वी के आकार के
ग्लोब में खींची
रंग-बिरंगी, टेढ़ी-मेढ़ी
असमान रेखाओं के
द्वारा निर्मित
विश्व के मानचित्र सहज
स्वीकारते मनुष्य का
पर्यावरण एवं जलवायु
के आधार पर उत्पन्न
चमड़ी के रंग पर 
नासमझी से मुँह फेरना
वैचारिक एवं व्यवहारिक 
क्षुद्रता का
ग्लोबलाइजेशन है शायद...।

#श्वेता सिन्हा
११ जनवरी २०२१

Friday 1 January 2021

संभावनाओं की प्रतीक्षा


बुहारकर फेंके गये
तिनकों के ढेर 
चोंच में भरकर चिड़िया
उत्साह से दुबारा बुनती है
घरौंदा। 

कतारबद्ध,अनुशासित 
नन्हीं चीटियाँ 
बिलों के ध्वस्त होने के बाद
गिड़गिड़ाती नहीं,
दुबारा देखी जा सकती हैं 
निःशब्द गढ़ते हुए
जिजीविषा की परिभाषा। 
 
नन्ही मछलियाँ भी
पहचानती हैं
मछुआरों की गंध
छटपटाती वेदना से रोती हुई
जाल में कैद के साथियों की पीड़ा देख
किनारे पर न आने की 
सौंगध लेती हैं
पर,लहरों की अठखेलियों में
भूलकर सारा इतिहास
खेलने लगती हैं फिर से
मगन किनारों पर।

प्रमाणित है-
बीत रहा समय लौटकर नहीं आता
किंतु सीख रही हूँ...
सूरज, चंद, तारे,हवा,
चिड़ियों,चींटियों, मछलियों 
की तरह 
संसार के राग-विराग,
विसंगतियों से निर्विकार,अप्रभावित
एकाग्रचित्त,मौन,
अंतस स्वर के नेतृत्व में
कर्म में लीन रहना,
सोचती हूँ,
समय की धार में खेलती 
भावनाओं की बिखरी अस्थियाँ 
और आस-पास उड़ रही 
आत्मविश्वास की राख़ 
बटोरकर गूँथने से 
मन की देह फिर से
 आकार लेकर दुरूहताओं से
जूझने के लिए तैयार होगी  ।

ठूँठ पर बने नीड़,
माटी में दबे बीज के फूटने की आस
की तरह,
जटिल परिस्थितियों में
नयी संभावनाओं की प्रतीक्षा में
जीवन की सुगबुगाहट
महसूसने से ही
सृष्टि का अस्तित्व है।

#श्वेता सिन्हा
०१/०१/२०२१



मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...