जहाँ हो बात इंसानियत की
मोहब्बत का एहतराम करते हैं
इंसान को इंसान समझकर
नेकियों के सजदे सरेआम करते हैं
मज़हबी दड़बों से बाहर झाँककर
मनुष्यता की पोथी,किताब बाँचकर
धर्म के नाम पर ढ़ोंग लाख़ करते हैं
काफ़िर कहलाने से हम भी डरते हैं
ठठरी लाशों संग बैठकर दो-चार पल
दीनों के सजदे सुबह-शाम करते हैं
बुतपरस्तों के शहर के पहरेदार
ज़ाबाज़ वतनपरस्त हरदम तैयार
बनती-मिटती सरहद की दीवारों में
सूनी कलाईयों,कोख की चीत्कारों में
ख़ामोशी से फ़र्ज़ निभाते वीरों के
वफ़ाओं के सज़दे बे-नाम करते हैं
धरा पर बहती संवेदनाओं की नदी
बुत मानवता को कहती रही सदी
जल,ज़मीन,जंगल हवाओं की मस्ती
कुदरत के रेशों से बुनी इंसानी बस्ती
साँसों के तोहफों में भूलकर दुख-दर्द
ज़िंदगी के सजदे हर जाम करते हैं
सुकून गँवाये जन्नत की ख़्वाहिश में
रब ढूँढ रहे इंसानों की आजमाइश में
ईमान की कैफियत,धर्म की दुहाई
जहन्नुम से खौफ़ज़दा,नर्क से रिहाई
आईने हक़ीक़त के देखकर अक़्सर
दिलों के सजदे हम बे-दाम करते है
#श्वेता सिन्हा