फिर हो गया है हसींं इक सवेरा
बुझ गया चंदा बुझ गये दीपक
रात तक रुक गया ख़्वाबों का फेरा
मोड़कर सिरहाने लिहाफोंं के नीचे
छुप गया साँझ तक तन्हाई का लुटेरा
पोटली उम्मीद की बाँध चले घर से
लेकर के लौटेगे खुशियों कटोरा
यही ज़िंंदगानी है दो चार दिन की
कुछ टूटते नये बनते सपनों का बसेरा।
#श्वेता
ओहहहो आभार दी मेरी पुरानी रचना शेयर करने के लिए आभारी हूँ दी।
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया।
लाजवाब बस लाजवाब और शब्द नहीं है मेरे पास ।
ReplyDeleteअनुपम।
मधुर रचना प्रिय श्वेता।कहाँ से आते हैं ये सुन्दर भाव???
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