Friday, 24 November 2017

शाम

शाम
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उतर कर आसमां की
सुनहरी पगडंडी से
छत के मुंडेरों के
कोने में छुप गयी
रोती गीली गीली शाम
कुछ बूँदें छितराकर
तुलसी के चौबारे पर
साँझ दीये केे बाती में
जल गयी भीनी भीनी शाम
थककर लौट रहे खगों के
परों पे सिमट गयी
खोयी सी मुरझायी शाम
उदास दरख्तों के बाहों में
पत्तों के दामन में लिपटी
सो गयी चुप कुम्हलाई शाम
संग हवा के दस्तक देती
सहलाकर सिहराती जाती
उनको छूकर आयी है
फिर से आज बौराई शाम
देख के तन्हा मन की खिड़की
दबे पाँव आकर बैठी है
लगता है आज न जायेगी
यादों में पगलाई शाम

      #श्वेता🍁
   

13 comments:

  1. बहुत शुक्रिया आभार आपका आदरणीय।।

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  2. शाम का मनमोहक चित्र उकेरा है श्वेता जी ने। दिन और रात के संधिकाल पर खूबसूरत रचना। बधाई।

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  3. वाह!!!
    सुन्दर भावाभिव्यक्ति...
    मनमोहक साँझ....

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    1. बहुत आभार बहुत बहुत शुक्रिया आपका सुधा जी।

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  4. बहुत बहुत आभार आपका रवींद्र जी।

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  5. खूबसूरत शाम का झिलमिल करता वर्णन...मेरी कुछ पंक्तियाँ आपके लिए प्रस्तुत हैं -
    रात की रानी खिली
    कौन आया इस गली,
    संध्या की कातर-सी
    बेला है !

    मिल रहे प्रकाश औ' तम
    किंतु दूर क्योंकर हम,
    भटकता है मन कहीं
    अकेला है !

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  6. उतर कर आसमां की
    सुनहरी पगडंडी से
    छत के मुंडेरों के
    कोने में छुप गयी

    बहुत ही उम्दा रचना
    मन की अनकही शब्दों में व्यक्त हो गई

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  7. बहुत सुंदर शाम श्वेता जी, वो गीत याद आ रहा है,
    "वो शाम कुछ अजीब थी,ये शाम भी अजीब है"
    आप का काव्य अप्रतिम है. हर रचना मन मोह लेती है.बहुत सुंदर रचना
    सादर

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  8. शाम के अनेक रंग ...
    हर रंग अपनी आभा लिए ... बहुत सुन्दर रचना ...

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  9. देख के तन्हा मन की खिड़की
    दबे पाँव आकर बैठी है
    लगता है आज न जायेगी
    यादों में पगलाई शाम!!
    वाह श्वेता तुम्हारा ये मुग्ध करने वाला काव्य मन को खूब भाता है | मेरा प्यार और शुभकामनायें |

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  10. मनमोहक सुंदर रचना आदरणीया दीदी जी बिल्कुल शाम की शालीनता सी सुंदर.....
    आपकी कलम का कोई खास नाता है कुदरत से....लगता है जैसे प्रकृति के मन की हर हलचल आपकी कलम समझ लेती है
    उत्क्रष्ट रचना...वाह 👌

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  11. बहुत बहुत सुंदर रचना श्वेता जी नमन आपको..

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  12. बहुत दूर तक खदेड़ आया हूँ
    उसको धूप को,
    क्षितिज के उस पार तक
    बहुत जलाती थी..
    सुबह होते ही खिड़की से,
    कमरे तक चली आती थी
    दिन के इस ओर से
    उस छोर तक
    संग रहा करती थी
    बनके पसीना अंग-अंग
    से, बहा करती थी
    बहुत इठलाती थी, पर
    मेरे साथ छाँव में जाने से,
    शरमाती थी, घने वन की
    सदन की, पेड़ की, उसको
    आदत थी खुले गगन की
    लू की थपेड़ की, आज स्मृति
    के थपेड़ों से धमकाकर छोड़ आया
    बहुत दूर, अब रात उसकी यादों की
    अँगड़ाई में गुज़र जायेगी
    क़ुर सुबह फिर किसी दरार से
    वो कमरे में आएगी..
    जिसे छोड़ आया था बहुत दूर..


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आपकी लिखी प्रतिक्रियाएँ मेरी लेखनी की ऊर्जा है।
शुक्रिया।

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