शाम
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उतर कर आसमां की
सुनहरी पगडंडी से
छत के मुंडेरों के
कोने में छुप गयी
रोती गीली गीली शाम
कुछ बूँदें छितराकर
तुलसी के चौबारे पर
साँझ दीये केे बाती में
जल गयी भीनी भीनी शाम
थककर लौट रहे खगों के
परों पे सिमट गयी
खोयी सी मुरझायी शाम
उदास दरख्तों के बाहों में
पत्तों के दामन में लिपटी
सो गयी चुप कुम्हलाई शाम
संग हवा के दस्तक देती
सहलाकर सिहराती जाती
उनको छूकर आयी है
फिर से आज बौराई शाम
देख के तन्हा मन की खिड़की
दबे पाँव आकर बैठी है
लगता है आज न जायेगी
यादों में पगलाई शाम
#श्वेता🍁
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उतर कर आसमां की
सुनहरी पगडंडी से
छत के मुंडेरों के
कोने में छुप गयी
रोती गीली गीली शाम
कुछ बूँदें छितराकर
तुलसी के चौबारे पर
साँझ दीये केे बाती में
जल गयी भीनी भीनी शाम
थककर लौट रहे खगों के
परों पे सिमट गयी
खोयी सी मुरझायी शाम
उदास दरख्तों के बाहों में
पत्तों के दामन में लिपटी
सो गयी चुप कुम्हलाई शाम
संग हवा के दस्तक देती
सहलाकर सिहराती जाती
उनको छूकर आयी है
फिर से आज बौराई शाम
देख के तन्हा मन की खिड़की
दबे पाँव आकर बैठी है
लगता है आज न जायेगी
यादों में पगलाई शाम
#श्वेता🍁
बहुत शुक्रिया आभार आपका आदरणीय।।
ReplyDeleteशाम का मनमोहक चित्र उकेरा है श्वेता जी ने। दिन और रात के संधिकाल पर खूबसूरत रचना। बधाई।
ReplyDeleteवाह!!!
ReplyDeleteसुन्दर भावाभिव्यक्ति...
मनमोहक साँझ....
बहुत आभार बहुत बहुत शुक्रिया आपका सुधा जी।
Deleteबहुत बहुत आभार आपका रवींद्र जी।
ReplyDeleteखूबसूरत शाम का झिलमिल करता वर्णन...मेरी कुछ पंक्तियाँ आपके लिए प्रस्तुत हैं -
ReplyDeleteरात की रानी खिली
कौन आया इस गली,
संध्या की कातर-सी
बेला है !
मिल रहे प्रकाश औ' तम
किंतु दूर क्योंकर हम,
भटकता है मन कहीं
अकेला है !
उतर कर आसमां की
ReplyDeleteसुनहरी पगडंडी से
छत के मुंडेरों के
कोने में छुप गयी
बहुत ही उम्दा रचना
मन की अनकही शब्दों में व्यक्त हो गई
बहुत सुंदर शाम श्वेता जी, वो गीत याद आ रहा है,
ReplyDelete"वो शाम कुछ अजीब थी,ये शाम भी अजीब है"
आप का काव्य अप्रतिम है. हर रचना मन मोह लेती है.बहुत सुंदर रचना
सादर
शाम के अनेक रंग ...
ReplyDeleteहर रंग अपनी आभा लिए ... बहुत सुन्दर रचना ...
देख के तन्हा मन की खिड़की
ReplyDeleteदबे पाँव आकर बैठी है
लगता है आज न जायेगी
यादों में पगलाई शाम!!
वाह श्वेता तुम्हारा ये मुग्ध करने वाला काव्य मन को खूब भाता है | मेरा प्यार और शुभकामनायें |
मनमोहक सुंदर रचना आदरणीया दीदी जी बिल्कुल शाम की शालीनता सी सुंदर.....
ReplyDeleteआपकी कलम का कोई खास नाता है कुदरत से....लगता है जैसे प्रकृति के मन की हर हलचल आपकी कलम समझ लेती है
उत्क्रष्ट रचना...वाह 👌
बहुत बहुत सुंदर रचना श्वेता जी नमन आपको..
ReplyDeleteबहुत दूर तक खदेड़ आया हूँ
ReplyDeleteउसको धूप को,
क्षितिज के उस पार तक
बहुत जलाती थी..
सुबह होते ही खिड़की से,
कमरे तक चली आती थी
दिन के इस ओर से
उस छोर तक
संग रहा करती थी
बनके पसीना अंग-अंग
से, बहा करती थी
बहुत इठलाती थी, पर
मेरे साथ छाँव में जाने से,
शरमाती थी, घने वन की
सदन की, पेड़ की, उसको
आदत थी खुले गगन की
लू की थपेड़ की, आज स्मृति
के थपेड़ों से धमकाकर छोड़ आया
बहुत दूर, अब रात उसकी यादों की
अँगड़ाई में गुज़र जायेगी
क़ुर सुबह फिर किसी दरार से
वो कमरे में आएगी..
जिसे छोड़ आया था बहुत दूर..