धर्म,जातिऔर पार्टी के
आधार पर कर्मों को
अपने हिसाब से
विचारों के तराजू पर
व्यवस्थित कर तोलते,
एक एक दाने को
मसल मसल कर
कंकड़ ढूँढते,
पाप पुण्य सही गलत
के बही खाते में
जोड़ घटाव करते,
किसी के जीवन के
अंत पर अट्टहास करते
नर से पिशाच मे बदलते मानव,
इंसानियत से सरोकार नहीं
पहनकर खाल भेड़ की
निर्दयी रक्त पिपासु भेड़िये,
क्रांति की आड़ में
जलाते देश का सुकून
धर्मग्रंथ का चश्मा पहने,
पकड़े दृढ़ संकल्प का चाकू
इंसान को कंकाल मे बदलने का,
पीठ पर बाँध कर चलते
सच की बुझी हुई मशालें
उठती आवाज़ों को बंद कर
कब्रों की लिजलिजी मिट्टी में
ठोककर ख़ामोशी की कील
ढ़ोग की श्रद्धांजलि चढ़ाते,
बदलते ज़माने के नगाड़े
की कानफोडू आवाज़ में
बेबस,लाचारों के निरर्थक नारे,
जुलूस में कुचली रोटियों को
चुनने में लहुलुहान मनुष्यता,
मानवता की तलाश में आज
टटोलते है पत्थर बने इंसानों
की सोयी ज़मीरों को।
#श्वेता
साझा संकलन 'सबरंग क्षितिज' में प्रकाशित।
वाह... क्या कहूं आदरणीय श्वेता जी, शब्द नहीं हैं मेरे पास आपकी रचना की प्रशंशा के . अतुलनीय, बेबाक जैसे शब्दों की गोलियों से समय के अंधे पहरेदारों को भूना जा रहा हो.
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार एवं तहे दिल से शुक्रिया आपका अपर्णा जी।आपने सुंदर नेहभरी प्रतिक्रिया से रचना का मान बढ़ाया है।आपका बहुत बहुत धन्यवाद जी।
Deleteआपकी सामयिक रचना उनकी आवाज़ है जो ख़ामोश होकर भी व्यथित हैं देश के ताज़ा हालात से।
ReplyDeleteयह ललकार सोइ हुई संवेदना को झकझोरकर उठाएगी अवश्य क्योंकि मानवतावादी सृजन सर्वोत्कृष्ट है। यह रचना हिंसक मस्तिष्क में कुलबुलाते कीड़ों को मारने का यथेष्ट नुस्ख़ा है।
ऐसा हस्तक्षेप प्रासंगिक है।
कविवर रामधारी सिंह "दिनकर" जी की पंक्तियाँ अमर है,
हरदम हमारे ज़मीर को ललकारती हुई कहती हैं -
"समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।"
भावुक कर देने वाली उत्कृष्ट प्रस्तुति श्वेता जी।
रवींद्र जी,
Deleteआपकी ओजपूर्ण प्रभावशाली प्रतिक्रिया सदैव विशेष होती है।एक साधारण रचना भी आपके विचारों से खास लगने लगती है।
आपने रामधारी सिंह जी की अत्यंत सारगर्भित और सुंदर पंक्तियाँ लिखकर रचना का भान बढ़ाया है उसके लिए जितना भी धन्यवाद कहे कम होगा।
कृपया यूँ ही उत्साहवर्धन करते है सदैव।
ऐसा ही होता है - शब्द मौन हो जाते हैं अच्छी और सच्ची बातें कितनी सहजता से कह जाती हैं आप कटु सत्य
ReplyDeleteअति आभार आपका संजय जी,तहेदिल से शुक्रिया आपका।
Deleteसरल , सहज शब्दों में समाज की कडवी सच्चाइयों से रूबरू करवाती रचना आपके सजग नागरिक होने को इंगित करती हैं - आदरणीय श्वेता जी | समय ने मानवता के गुनाहगारों को कभी क्षमा नहीं किया -----समय कि चोट में आवाज नहीं होती |
ReplyDeleteइंसानियत से सरोकार नहीं
पहनकर खाल भेड़ की
निर्दयी रक्त पिपासु भेड़िये,
क्रांति की आड़ में ---------
ऐसे अपराधी - जो आज मानवता को सता हर निर्दयता से अट्टहास करते हैं --एक दिन समय उन पर अट्टहास करता है --सुंदर सार्थक रचना के लिए आपको साधुवाद |
आदरणीय रेणु जी,
Deleteरचना के संबंध में आपके मंतव्य के लिए हृदय तल से अति आभार,जी समसामयिक घटनाओं के प्रति भाव,विचार एवं आक्रोश सबके मन में आते है।आपके सुंदर विचार और प्रतिक्रिया से रचना का मतंव्य और सपष्ट हुआ। कृपया, अपनी प्रतिक्रिया स्वरुप प्रसाद के नेह की निरंतरता बनाये रखे।
जमीर ही सो जाए तो इंसान और पशु में अंतर क्या बचा ? सही आकलन ।
ReplyDeleteबहुत अच्छी बात कही मीना जी रचना का मुख्य मंतव्य ही यही बताना बहुत बहुत आभार एवं सस्नेह तहेदिल से शुक्रिया आपका।
Deleteसामाजिक विसंगतियों से रूबरू करवाती प्रभावी रचना.
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार तहेदिल से शुक्रिया आपका मीना जी।
Deleteसटीक रचना
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका ओंकार जी।
Deleteबहुत बढ़िया।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका सर।
Deleteइंसानियत जाने कितनी बार शर्मसार होती है लेकिन आज इंसान उससे कोसों दूर भाग रहा है
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी रचना
बहुत बहुत आभार हृदय तल से,तहेदिल से शुक्रिया आपका कविता जी।
Deleteवाह !!!
ReplyDeleteक्रांति की आड़ में
जलाते देश का सकून
लाजवाब .....
समसामयिक एवं सटीक प्रस्तुति...
बहुत बहुत आभार आपका सुधा जी तहेदिल से शुक्रिया जी।
Deleteबहुत बहुत आभार आपका दी:)
ReplyDeleteबहुत ही बेहतरीन
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार शुक्रिया आपका लोकेश जी।
Deleteमानव जब दानव बन्ने की और बढेगा तो मानवता कहाँ रह जायगी समाज में ...
ReplyDeleteसार्थक प्रश्न खड़ा करती रचना ...
जी,सही कहा आपने,बहुत बहुत आभार तहेदिल से शुक्रिया आपका नासवा जी।
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