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Thursday, 31 August 2017

क्षणिकाएँ

ख्वाहिशें
रक्तबीज सी
पनपती रहती है
जीवनभर,
मन अतृप्ति में कराहता
बिसूरता रहता है
अंतिम श्वास तक।

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मौन
ब्रह्मांड के कण कण
में निहित।
अभिव्यक्ति
होठों से कानों तक
सीमित नहीं,
अंतर्मन के
विचारों के चिरस्थायी शोर में
मौन कोई नहीं हो सकता है।

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दुख
मानव मन का
स्थायी निवासी है
रह रह कर सताता है
परिस्थितियों को
मनमुताबिक
न देखकर।

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बंधन
हृदय को जोड़ता
अदृश्य मर्यादा की डोर है।
प्रकृति के नियम को
संतुलित और संयमित
रखने के लिए।

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दर्पण
छलावा है
सिवाय स्वयं के
कोई नहीं जानता
अपने मन के
शीशे में उभरे
श्वेत श्याम मनोभावों को।

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श्वेता🍁



Wednesday, 26 July 2017

क्षणिकाएँ


प्यास

नहीं मिटती
बारिश में गाँव के गाँव
बह रहे
तड़प रहे लोग दो बूँद
पानी के लिए।
★★★★★★★★★★★
सूखा

कहाँ शहर भर गया
लबालब
पेट जल रहे है झोपड़ी में
आँत सिकुड़ गये
गीली जीभ फेर कर
पपड़ी होठों की तर कर रहे है।
★★★★★★★★★★★★
सपने

रतजगे करते है
सीले बिस्तर में दुबके
जब भी नींद से पलकें झपकती है
रोटी के निवाले मुँह तक
आने के पहले
अक्सर भोर हो  जाती है।
★★★★★★★★★★★★★
बोझ

जीवन के अंतिम पड़ाव में
एहसास होता है
काँधे पर लादकर चलते रहे
ज़माने को बेवजह
मन की गठरी यूँ ही
वजनदार हो गयी।
★★★★★★★★★★★★★★
जीवन

बह रहा वक्त की धार पर अनवरत
भीतर ही भीतर छीलता तटों को
मौन , निर्विकार , अविराम
छोड़कर सारे गाद किनारे पर
अनंत सागर के बाहुपाश में
विलीन होने को।


   #श्वेता🍁

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...