Wednesday, 3 May 2017

सज़ा

दस्तूर  ज़माने की तोड़ने की सज़ा मिलती है
बेहद चाहने मे, तड़पने की उम्रभर दुआ मिलती है

ज़मीं पर रहकर महताब को ताका नहीं करते
जला जाती है चाँदनी, जख्मों को न दवा मिलती है

किस यकीं से थामें रहे कोई यकीं की डोर बता
ख़्वाब टूटकर चुभ जाए ,तो ज़िंदगी लापता मिलती है

जिनका आशियां बिखरा हो उनका हाल क्या जानो
अश्क़ों के तिनके से बने ,मकां मे फिर जगह मिलती है

क्यों लौटे उस राह जिसकी परछाईयाँ भी अपनी नही
चंद ख़ुशियों की चाहत में, तन्हाइयाँ बेपनाह मिलती है

        #श्वेता🍁



भावों में बहना छोड़ दे

पत्थरों के शहर में रहना है गर
आईना बनने का सपना छोड़ दे

बदल गये है काँटों के मायने अब
साथ फूलों के तू खिलना छोड़ दे

या खुदा दिल बना पत्थर का मिरा
चाहूँ कि भावों में बहना छोड़ दे

एक दिन मरना तो है सबको यहाँ
हर पल तू घुट के मरना छोड़ दे

आस्तीनों में पलते यहाँ नफरत बहुत
प्रेम के ढोंग पे खुद को छलना छोड़ दे

ख्वाब चाँद पाने का सच होता नहीं
जमीं देख तू आसमां पे चलना छोड़ दे

       #श्वेता🍁

Tuesday, 2 May 2017

शहीदों के लिए

कडी़ निंदा करने का अच्छा दस्तूर हो गया
कब समझोगे फिर से बेटा माँ से दूर हो गया

रोती बेवाओं का दर्द कोई न जान पाया
और वो पत्थरबाज देश में मशहूर हो गया

कागज़ पर बयानबाजी अब बंद भी करो तुम
माँगे है इंसाफ क्या वीरों का खूं फिजूल हो गया

सह रहे हो मुट्ठीभर भेड़ियों की मनमानी को
शेर ए हिंदुस्तान इतना कबसे मजबूर हो गया

दंड दो प्रतिशोध लो एक निर्णय तो अब कठोर लो
हुक्मरानों की नीति का हरजाना तो भरपूर हो गया

उपचार तो करना होगा इस दर्द बेहिसाब का
सीमा का जख्म पककर अब नासूर हो गया

         #श्वेता🍁


Monday, 1 May 2017

ख्वाहिशों का पंछी

बरसों से निर्विकार,
निर्निमेष,मौन अपने
पिंजरे की चारदीवारियों
में कैद, बेखबर रहा,
वो परिंदा अपने नीड़
में मशगूल भूल चुका था
उसके पास उड़ने को
सुंदर पंख भी है
खुले आसमां में टहलते
रुई से बादल को देख
शक्तिहीन परों को
पसारने का मन हो आया
मरी हुई नन्ही ख्वाहिशे
बुलाने लगी है पास
अनंत आसमां की गोद,
में भूलकर, काटकर
जाल बंधनों का ,उन्मुक्त
स्वछंद फिरने की चाहत
हो आयी है।
वो बैठकर बादलों की
शाखों पर तोड़ना
चाहता है सूरज की लाल
गुलाबी किरणें,देखना
चाहता है इंद्रधनुष के
रंगों को ,समेटना
चाहता है सितारों को,
अपने पलकों में
समाना चाहता है
चाँद के सपनीले ख्वाब
भरना चाहता है,
उदास रंगहीन मन में
हरे हरे विशाल वृक्षो़ के
चमकीले रंग,
पीना है क्षितिज से
मिलती नदी के निर्मल जल को
चूमना है गर्व से दिपदिपाते
पर्वतशिख को,
आकाश के आँगन में
अपने को पसारे
उड़ान चाहता है अपने मन
के सुख का,
नादां मन का मासूम पंछी
भला कभी तोड़ भी पायेगा
अपने नीड़ के रेशमी धागों का
सुंदर पिंजरा,
अशक्त पर, सिर्फ मन की उडान
ही भर सकते है,
बेजान परों में ताकत बची ही नहीं
वर्जनाओं को तोड़कर
अपना आसमां पाने की।

     #श्वेता🍁

Sunday, 30 April 2017

तुम्हारा एहसास

जाने क्यूँ
अवश हुआ
जाता है मन
खींचा जा रहा
तुम्हारी ओर
बिन डोर
तितलियों के
रंगीन पंखों
पर उड़ता
विस्तृत आसमां
पर तुम्हें छूकर
आयी हवाओं के
संग बहा जा रहा है
कस्तूरी सा व्याकुल
मन अपने में गुम
मदमस्त
पीकर मधु रस
तुम्हारे एहसास का,
बूँद बूँद पिघल रहा है
अन्तर्मन के शून्य में,
अमृत सरित तुम
बरसों से सूखे पडे़
वीरानियों में सोये
शिलाखंड को
तृप्त कर रहे हो
और शिलाखंड
अमृत सरित के
कोमल स्पर्श से
घुल रहा है
अवश होकर
धारा के प्रवाह में
विलीन हर क्षण
हर उस पल को
समाहित करता
जिसमें तुम्हारा
संदली एहसास
समाया हुआ है।

    #श्वेता🍁


Thursday, 27 April 2017

तुम

ज़िदगी के शोर में खामोश सी तन्हाई तुम
चिलचिलाती धूप में मस्ती भरी पुरवाई तुम

भोर की पहली याद मेरी दुपहरी की प्यास
स्वप्निल शाम की नशीली अंगड़ाई तुम

अनसुना सा प्रेमगीत जेहन में बजती रागिनी
लफ्ज़ महके से तेरे मदभरी शहनाई तुम

हो रहा कुछ तो असर यूँ नहीं बहके ये मन
मुस्कुराए जा रहे मेरे लब की रानाई तुम

शांत ऊपर से लहर भीतर अनगिनत है भँवर
थाह न मिल पाये उस झील की गहराई तुम

        #श्वेता🍁

Wednesday, 26 April 2017

कुछ पल तुम्हारे साथ

मीलों तक फैले निर्जन वन में
पलाश के गंधहीन फूल
मन के आँगन में सजाये,
भरती आँचल में हरसिंगार,
अपने साँसों की बातें सुनती
धूप को सुखाती द्वार पर,
निर्विकार देखती उड़ते परिंदें को
जो बादल से छाँह लिये कुछ तिनके
दे जाते गूँथने को रिश्तों की नीड़
आसमाँ के निर्जीव टुकड़े से
तारे तोड़कर साँझ को मुंडेर पर रखती
बिना किसी आहट का इंतज़ार किये,
सूखी नदी के तट पर प्यासी शिला
बदलाव की आशा किये बिना,
पड़ी दिन काटती रही
इन ढेड़े-मेढ़े राह के एक मोड़ पर
निर्मल दरिया ने पुकारा
कल-कल बहता मन मोहता
अपनी चंचल लहरों के आगोश में
लेने को आतुर, सम्मोहित करता
अपनी मीठी गुनगुनाहट से
खींच रहा अपनी ठंडी शीतल लहरों में
कहता है बह चल संग मेरे
पी ले मेरा मदिर जल
भूल जा थकान सारी
खो जा मुझमें तू अमृत हो जा
पर तट पर खड़ी सोचती
शायद कोई मृग मरीचिका
तपती मरूभूमि का भ्रम
डरती है छूने से जल को
कही ख़्वाब टूट न जाये
वो खुश है उस दरिया को
महसूस करके,ठंडे झकोरे
जो उस पानी को छूकर आ रहे
उसकी संदीली खुशबू में गुम
उस पल को जी रही है
भर रही है कुछ ताज़े गुलाब
अपने आँगन की क्यारी में
आँचल में समेटती महकती यादें
पलकों में चुनती कुछ
अनदेखे ख़्वाब
समा लेना चाहती वो
जीवन की निर्झरी का संगीत
मौन धड़कनों के तार पर
टाँक लेना चाहती है
हृदय के साथ ,ताकि
अंतिम श्वास तक महसूस कर पाये
इस पल के संजीवन को

         #श्वेता🍁


Tuesday, 25 April 2017

कहाँ छुपा है चाँद

साँझ से देहरी पर बैठी
रस्ता देखे चाँद का
एक एक कर तारे आये
न दीखे क्यूँ चंदा जाने
क्या अटका है पर्वत पीछे
या लटका पीपल नीचे
बादल के परदे से न झाँके
किससे पूछूँ पता मैं
मेरे सलोने चाँद का

अबंर मौन बतलाता नहीं
लेकर संदेशा भी आता नहीं
कौन देश तेरा ठौर न जानूँ
मैं तो बस तुझे दिल से मानूँ
क्यों रूठा तू बता न हमसे
बेकल मन बेचैन नयन है
भर भर आये अब पलकें भी
बोझिल मन उदास हो ढूँढें
दीखे न निशां मेरे चाँद का

          #श्वेता🍁

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...