Sunday, 20 August 2017

हादसा


हंसते बोलते बतियाते लोग
पोटली में बँधे सफर की ख्वाहिशें
अपनों के साथ कुछ सपनों की बातें
अनजानों के साथ समसामयिक चर्चायें
अचार और पूरियों की गंध से भरे
कूपों में तृप्ति की डकार भरते
तरह तरह के रंग बिरंगे चादरों में
पाँव से कंधे तक ढके गर्दन निकाले
फोन,टैब पर मनोरंजन करते
कुशल क्षेम की खबर पहुँचाते
फुरसत के ये पल़ों को जीते
अपने सीटों के आरामदायक बिस्तर पर
हिलते डुलते आधे सोये जागे
माँ के आँचल से झाँकते
लजाते मनमोहक आँखों से बोलते
बेवजह खिलखिलाते
उछले कूदते रोते गाते लुभाते
नन्ही मासूम मुस्कान से रिझाते बच्चे
एक दूसरे को चोर निगाहों से देखते
अखबार पत्रिकाओं के बहाने से परिचय बनाते
सब प्रतीक्षा रत थे सफर के गंतव्य के लिए
ये सफर आखिरी बनेगा कौन जानता था
अचानक आए जलजले से
समय भी सहमकर थम गया कुछपल
चरमराकर लड़खड़ाते
चीखते थमते लोहे के पहिए बेपटरी
एक दूसरे के ऊपर चढ़े डिब्बे
सीना चीरते चीत्कारों से गूँज उठा
कराहों से पिघल जाए  पत्थर भी
चीखते मदद को पुकारते
बोगियों में दबे, आधे फँसे सुन्न होते तन
मिट्टी गर्द खून में लिथड़े
एक एक पल की साँस को लड़ते
बेकसूर लोगों के कातिल
अपंग तन का जीवनभर ढ़ोने को मजबूर
सहानुभूति के चार दिन और
जिल्लत को आजीवन झेलने को बेबस
इन आम लोगों के दर्द का जिम्मेदार
चंद नोटों के मुआवजे की चद्दर में
अपनी गलती ढकने की कोशिश करते
हवा में उड़ने वाले ओहदेदार
बड़ी बातें करते , हादसों की जाँच पर
कमिटियाँ बनाते एक दूसरे पर
आरोप प्रत्यारोप करते
समसामयिक कुकुरमुत्ते
खेद व्यक्त करते चार दिन में गायब हो जायेगे
और ज़िदगी फिर पटरी पर डगमगाती दौड़ेगी
ऐसे अनगित हादसे जारी रहेगे ,
सामर्थ्य वान, समृद्धशाली, डिजिटल भारत
की ओर कदम बढ़ाते
देश में ऐसी छोटी घटनाएँ आम जो है।
   #श्वेता

Friday, 18 August 2017

युद्ध


       (1)
जीवन मानव का
हर पल एक युद्ध है
मन के अंतर्द्वन्द्व का
स्वयं के विरुद्ध स्वयं से
सत्य और असत्य के सीमा रेखा
पर झूलते असंख्य बातों को
घसीटकर अपने मन की अदालत में
खड़ा कर अपने मन मुताबिक
फैसला करते हम
धर्म अधर्म को तोलते छानते
आवश्यकताओं की छलनी में बारीक
फिर सहजता से घोषणा करते
महाज्ञानी बनकर क्या सही क्या गलत
हम ही अर्जुन और हम ही कृष्ण भी
जीवन के युद्ध में गांधारी बनकर भी
जीवित रहा जा सकता है
वक्त शकुनि की चाल में जकड़.कर भी
जीवन के लाक्षागृह में तपकर 
कुंदन बन बाहर निकलते है 
हर व्यूह को भेदते हुए
जीवन के अंतिम श्वास तक संघर्षरत
मानव जीवन.एक युद्ध ही है

          (2)
ऊँचे ओहदों पर आसीन
टाई सूट बूट से सुसज्जित 
माईक थामे बड़ी बातें करते
महिमंडन करते युद्ध का
विनाश का इतिहास बुनते
संवेदनहीन हाड़ मांस से बने 
स्वयं को भाग्यविधाता बताते 
पाषाण हृदय निर्विकार स्वार्थी लोग
देश के आत्मसम्मान के लिए
जंग की आवश्यकता पर 
आकर्षक भाषण देते 
मृत्यु का आहवाहन करते पदासीन लोग
युद्ध की गंध बहुत भयावह है
पटपटाकर मरते लोग
कीड़े की तरह छटपटाकर
एक एक अन्न.के दाने को तरसते
बूँद बूँद पानी को सूखे होंठ
अतिरिक्त टैक्स के बोझ से बेहाल
आम जनमानस
अपनों के खोने का दर्द झेलते
रोते बिसूरते बचे खुचे लोग
अगर विरोध करे युद्ध का 
देशद्रोही कहलायेगे
देशभक्ति की परीक्षा में अनुत्तीर्ण
राष्ट्रभक्त न होने के भय से मौन व्रत लिये
सोयी आत्मा को थपकी देते
हित अहित अनदेखी करते बुद्धिजीवी वर्ग
एक वर्ग जुटा होगा कम मेहनत से
ज्यादा से ज्यादा जान लेने की तरकीबों में
धरती की कोख बंजर करने को
धड़कनों.को गगनभेदी धमाकों और
टैंकों की शोर में रौंदते
लाशों के ढेर पर विजय शंख फूँकेगे
रक्त तिलक कर छाती फुलाकर नरमुड़ पहने
सर्वशक्तिमान होने का उद्घोष करेगे
शांतिप्रिय लोग बैठे गाल बजायेगे
कब तक नकारा जा सकता है सत्य को
युद्ध सदैव विनाश है 
पीढ़ियों तक भुगतेगे सज़ा 
इस महाप्रलय की अनदेखी का।

    #श्वेता🍁

Thursday, 17 August 2017

तन्हाई के पल


तन्हाई के उस लम्हें में
जब तुम उग आते हो 
मेरे भीतर गहरी जड़े लिये
काँटों सी चुभती छटपटाहटों में भी
फैल जाती है भीनी भीनी
सुर्ख गुलाब की मादक सुगंध
आँखों में खिल जाते है
गुच्छों से भरे गुलमोहर
दूर तक पसर जाती है रंगीनियाँ
तुम्हारे एहसास में
सुगबुगाती गर्म साँसों से
टपक पड़ती है 
बूँदें दर्द भरी 
अनंत तक बिखरे 
ख्वाहिशों के रेगिस्तान में
लापता गुम होती
कभी भर जाते है लबालब
समन्दर एहसास के
ठाठें मारती उदास लहरें
प्यासे होंठों को छूकर कहती है
अबूझे खारेपन की कहानी
कभी ख्यालों को जीते तुम्हारे
संसार की सारी सीमाओं से
परे सुदूर कहीं आकाश गंगा
की नीरवता में मिलते है मन
तिरोहित कर सारे दुख दर्द चिंता
हमारे बीच का अजनबीपन
शून्य में भर देते है खिलखिलाहट
असंख्य स्वप्न के नन्हे बीज
जिसके रंगीन फूल
बन जाते है पल पल को जीने की वजह
तुम्हारी एक मुस्कान से
इंन्द्रधनुष भर जाता है 
अंधेरे कमरे में
चटख लाल होने लगती है 
जूही की स्निग्ध कलियाँ
लिपटने लगती है हँसती हवाएँ
मैं शरमाने लगती हूँ
छुप जाना चाहती हूँ 
अपनी हरी चुड़ियों
और मेंहदी के बेलबूटे कढ़े 
हथेलियों के पीछे 
खींचकर परदा 
गुलाबी दुपट्टे का 
छुपछुप कर देखना चाहती हूँ
तन्हाई के उसपल में
चुरा कर रख लेना चाहती हूँ तुम्हें
बेशकीमती खज़ाने सा
तुम्हे समेटकर अपनी पलकों पर
सहेजकर हर लम्हें का टुकड़ा
बस तुम्हें पा लेना चाहती हूँ
कभी न खोने के लिए।


#श्वेता🍁

Wednesday, 16 August 2017

सोये ख्वाबों को


सोये ख्वाबों को जगाकर चल दिए
आग मोहब्बत की जलाकर चल दिए

खुशबू से भर गयी गलियाँ दिल की
एक खत सिरहाने दबाकर चल दिये

रात भर चाँद करता रहा पहरेदारी
चुपके से आके नींद चुराकर चल दिये

चिकनी दीवारों पे कोई रंग न चढ़ा
वो अपनी तस्वीर लगाकर चल दिये

उन निगाहों की आवारगी क्या कहे
दिल धड़का के चैन चुराकर चल दिये

बनके मेहमां ठहरे पल दो पल ही
उम्रभर की याद थमाकर  चल दिये

   #श्वेता🍁


Tuesday, 15 August 2017

उड़े तिरंगा शान से

उन्मुक्त गगन के भाल पर
उड़े तिरंगा शान से
कहे कहानी आज़ादी की
लहराये सम्मान से

रक्त से सींच रहे नित जिसे
देकर अपने बहुमूल्य प्राण
रखो सँभाल अमूल्य निधि
है आज़ादी जीवन वरदान
न भूलो उन वीर जवानों को
शहीद हुये जो आन से
बिना कफन की आस किये
सो गये सीना तान के

सत्तर वर्षों का लेखा जोखा
क्या खोया क्या पाया सोचे
क्या कम है गद्दारों से वो नेता
भोली जनता को जो नोचे
जागो उठो खुद देखो समझो
सुन सकते हो कान से
नर नारायण तुम ठान लो गर
सब पा सकते हो मान से

मातृभूमि के रक्षा से बढ़कर
और कोई भी संकल्प नहीं
आत्मसम्मान से जीने का
इससे अच्छा है विकल्प नहीं
आज़ादी को भरकर श्वास में
दो सलामी सम्मान से
जब तक सूरज चाँद रहे नभ पे
फहरे तिरंगा शान से

    #श्वेता🍁

Sunday, 13 August 2017

कान्हा जन्मोत्सव



 कान्हा जन्मोत्सव की शुभकामनाएँ
भरी भरी टोकरी गुलाब की
कान्हा पे बरसाओ जी
बेला चंपा के इत्र ले आओ
इनको स्नान कराओ जी
मोर मुकुट कमर करधनी
पैजनिया पहनाओ जी
माखनमिसरी भोग लला को
जी भर कर के लगाओ जी
कोई बन जाए राधा रानी
बन गोपी रास रचाओ जी
ढोल मंजीरे करतल पे ठुमको 
मीरा बन कोई गीत सुनाओ जी
सखा बनो कोई बलदाऊ बन 
मुरलीधर को मुरली सुनाओ जी
नंद यशोदा बन झूमो नाचो
हौले से पलना डुलाओ जी 
मंगल गाओ खुशी मनाओ
मंदिर दीपों से सजाओ जी
खील बताशे मेवा मिठाई 
खुलकर आज लुटाओ जी 
जन्मदिवस मेरे कान्हा का है
झूम कर उत्सव मनाओ जी
कृष्णा कृष्णा हरे हरे कृष्णा
कृष्णा कृष्णा ही गुण गाओ जी

तुम एक भारतवासी हो

*चित्र साभार गूगल*

किसी जाति धर्म के हो किसी राज्य के वासी हो
कभी न भूलो याद रखो तुम एक भारतवासी हो

खेत हमारी अन्नपूर्णा जीवन हरा सुख न्यारा है
साँसों में घुले संजीवन ये पवन झकोरा प्यारा है
पर्वत के श्रृंगार से दमके नभ भू मंडल सारा है
कलकल बहती नदिया मासूम कभी आवारा है
बहुरंगी छटा निराली जैसे देश मेरा वनवासी हो
कभी न भूलो  याद रखो तुम एक भारतवासी हो

पहनो चाहे रेशम ,टाट ,मलमल खद्दर फर्क नहीं
रहलो जैसे महल झोपड़ी रस्ते पर भी तर्क नहीं
गीता,कुरान,बाइबिल,गुरूग्रंथ प्रेम कहे दर्प नहीं
विविध रंग से सजी रंगोली स्वर्ग सुंदर नर्क नहीं
पग पग काबा और मदीना लगे मथुरा काशी हो
कभी न भूलो याद रखो तुम एक भारतवासी हो

कदम बढ़ाओ हाथ मिलाओ नवभारत निर्माण करो
कैसे न जागेगा भाग्य अब सत्य का तुमुलनाद करो
भूख,अशिक्षा,भ्रष्टाचार के समूल वंश का नाश करो
लेके दीप विकास का भारत को स्वच्छ साफ करो
तुम ही कर्मशील तुम जाज्वल्यमान संन्यासी हो
कभी न भूलो  याद रखो तुम एक भारतवासी हो

मस्तक ऊँचा रहे  देश का मान न कोई हर पाये
रख देना तुम आँख फोड़ के न कोई शत्रु ठहर पाये
नापाक इरादे माँ के आँचल पर न कोई कदम आये
शपथ उठा ले तिरंगे की ले गंगाजल ये कसम खाये
तुम ही तो हो देश के रक्षक शिव अंश अविनाशी हो
कभी न भूलो याद रखो तुम एक भारतवासी हो

    #श्वेता🍁

Friday, 11 August 2017

भूख

*चित्र साभार गूगल*
भूख
एक शब्द नहीं
स्वयं में परिपूर्ण
एक संपूर्ण अर्थ है।
कर्म का मूल आधार
है भूख
बदले हुये
स्थान और
भाव के साथ
बदल जाते है
मायने भूख के

अक्सर
मंदिर के सीढ़ियों पर
रेलवे स्टेशनों पर
लालबत्ती पर
बिलबिलाते
हथेलियाँ फैलाये
खड़ी मिलती है
रिरियाती भूख

हाड़ तोड़ते
धूप ,जाड़ा बारिश
से बेपरवाह
घुटने पेट पर मोड़े
खेतों में जुते
कारखानों की धौंकनी
में छाती जलाते
चिमनियों के धुएँ में
परिवार के सपने
गिनते लाचार भूख

देह की भूख
भारी पड़ती है
आत्मा की भूख पर
लाचार निरीह
बालाओं को
नोचने को आतुर
लिजलिजी ,भूखी आँखों
को सहती भूख

जनता को लूटते
नित नये स्वप्न दिखाकर
अलग अलग भेष में
प्रतिनिधि बने लोगों
की भूख
विस्तृत होती है
आकाश सी अनंत
जो कभी नहीं मिटती
और दो रोटी में
तृप्त होती है
संतोष की भूख

मान, यश के
लिए
तरह-तरह के
मुखौटे पहनती
लुभाती
अनेकोंं
आकार-प्रकार
से सुसज्जित
भूख

मन की भूख
अजीब होती है
लाख बहलाइये
दुनिया की
रंगीनियों में
पर
मनचाहे साथ
से ही तृप्त होती है
मन की भूख।

   #श्वेता सिन्हा

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...