Wednesday, 12 April 2017

रात

मेरे बड़े से झरोखे के सामने
दूर तक फैली नीरवता
नन्हें नन्हें दीयों सी झिलमिलती
अंधेरों में लिपटे इमारतों के
दरारों से छनकर आती रोशनी
दिन भर के मशक्कत से थके लोग
अब रैन बसेरे में ख्वाबों में
चलने की तैयारी में होगे
एक अलग दुनिया दिखती है
दिनभर का शोर अब थम गया है
दूर से सड़क के एक ओर
कतारों में सजी पीली रोशनी
राहें अब सुबह तक इंतज़ार करेगी
फिर से राहगीरों को उनकी
मंज़िल तक पहुँचाने के लिए
और नज़र आता है
दूर तक फैला गहन शून्य में डूबा
कुछ कुछ स्याह हुआ आसमां
उस पर चुपचाप मुस्कुराते सितारे
जो लगभग नियत जगह ही उगते है
स्थिर  अचल अनवरत टिमटिमाते
और एक आधा पूरा चाँद
जिसकी रोशनी म़े कभी पीपल के पत्ते
खूब झिलमिलाते है तो कभी
नीम अंधेरे में डूब जाते है
एक अलग ही संसार होता है रात का
खामोश अंधेरों में धड़कती है
ख्वाबों में खोयी बेखबर ज़िदगी
पहरेदारी करता उँघता चाँद
और भोर का बेसब्री से इंतज़ार करती
आहिस्ता आहिस्ता सरकती रात।

       #श्वेता🍁


6 comments:

  1. खामोश अंधेरों में धड़कती है
    ख्वाबों में खोयी बेखबर ज़िदगी
    पहरेदारी करता उँघता चाँद
    और भोर का बेसब्री से इंतज़ार करती
    आहिस्ता आहिस्ता सरकती रात।.....
    वाह! क्या बात है! शब्दों की कूची से चतुर चित्रकारी!!!

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    1. बहुत बहुत आभार शुक्रिया विश्वमोओहन जी।

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  2. बहुत सुंदर कविता

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    1. बहुत बहुत आभार लोकेश जी।

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  3. बेहतरीन पंक्तियाँ...
    कुछ कुछ स्याह हुआ आसमां
    उस पर चुपचाप मुस्कुराते सितारे
    जो लगभग नियत जगह ही उगते है
    स्थिर अचल अनवरत टिमटिमाते
    और एक आधा पूरा चाँद
    जिसकी रोशनी म़े कभी पीपल के पत्ते
    खूब झिलमिलाते है तो कभी
    नीम अंधेरे में डूब जाते है
    साधुवाद
    सादर

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    1. बहुत बहुत आभार दी।शुक्रिया आपका हृदय से।

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आपकी लिखी प्रतिक्रियाएँ मेरी लेखनी की ऊर्जा है।
शुक्रिया।

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