Tuesday 11 July 2017

आराम कमाने निकलते है

आराम कमाने निकलते है आराम छोड़कर
जेब में रखते है मुट्ठीभर ख्वाहिश मोड़कर
दो निवाले भी मुश्किल हो जाते है सुकून से
कल की चिंता रख दे हर कदम झकझोर कर
टूटी गुल्लकों के साथ उम्मीद भरी आँखें मासूम
पापा हमें भी ला दो खिलौने और मिठाई मोलकर
रुपयों का मोल हर बार ज्यादा लगा दुकान पर
हर खुशी कम लगी जब देखी जेबे टटोलकर
कहते है सब खरीदा नही जा सकता है दाम देकर
कुछ भी न मिला भरे बाज़ार मे मीठे से बोलकर
अजीब है जिंंदगी ऊसूल भी गज़ब से लगते है
सिलसिला साँसों का टूट जायेगा यूँ ही भागदौड़ कर



6 comments:

  1. आराम कमाने निकलते है आराम छोड़कर
    जेब में रखते है मुट्ठीभर ख्वाहिश मोड़कर
    ....... अपने वजूद के ऊपर एक लाजवाब और सराहनीय रचना :)

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    1. जी,बहुत आभार शुक्रिया आपका संजय जी।
      एक कोशिश आम आदमी की जद्दोज़हद पर😊

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  2. बहुत खूब
    सुंदर रचना

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    1. बहुत आभार लोकेश जी।

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  3. बहुत सुन्दर...
    अद्भुत जीवन दर्शन..
    लाजवाब चिन्तन..
    सिलसिला साँसों का टूट जायेगा यूँ ही भागदौड़ कर।

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    1. जी बहुत बहुत आभार शुक्रिया आपका रचना का भाव समझने के लिए सुधा जी।

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आपकी लिखी प्रतिक्रियाएँ मेरी लेखनी की ऊर्जा है।
शुक्रिया।

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