Tuesday, 12 June 2018

अच्छा नहीं लगता


अश्कों का आँख से ढलना हमें अच्छा नहीं लगता
तड़पना,तेरा दर्द में जलना हमें अच्छा नहीं लगता

भिगाती है लहर आकर, फिर भी सूखा ये मौसम है
प्यास को रेत का छलना  हमें अच्छा नहीं लगता 

क़फ़स में जां सिसकती है फ़लक सूना बहारों का
दुबककर मौत का पलना हमें अच्छा नहीं लगता

लोग पत्थर समझते हैं तो तुम रब का भरम रखो
तेरा टुकड़ोंं में यूँ गलना हमें अच्छा नहीं लगता

झलक खुशियों की देखी है वक़्त की पहरेदारी में
याद में ज़ख़्म का हलना हमें अच्छा नहीं लगता

कहो दामन बिछा दूँ मैं तेरी राहों के कंकर पर
ज़मीं पर चाँद का चलना हमें अच्छा नहीं लगता

    --श्वेता सिन्हा



Saturday, 9 June 2018

भरा शहर वीराना है


पहचाने चेहरे हैं सारे
क्यूँ लगता अंजाना है।
उग आये हैं कंक्रीट वन
भरा शहर वीराना है।

बहे लहू जिस्मों पे ख़ंजर
न दिखलाओ ऐसा मंज़र,
चौराहे पर खड़े शिकारी
लेकर हाथ में दाना है।

चेहरों पर चेहरे हैं बाँधें
लोमड़ और गीदड़ हैं सारे,
नहीं सलामत एक भी शीशा
पत्थर से  याराना है।

मरी हया और सूखा पानी
लूट नोच करते मनमानी,
गूँगी लाशें जली ज़मीर का
हिसाब यहीं दे जाना है।

वक़्त सिकंदर सबका बैठा
जो चाहे जितना भी ऐंठा,
पिघल पिघल कर जिस्मों को
माटी ही हो जाना है।

-श्वेता सिन्हा

Monday, 4 June 2018

विनाश की आहट

5 जून विश्व पर्यावरण दिवस पर फिर से एक बार प्रभावशाली स्लोगन जोर-जोर से चिल्लायेगे,पेड़ों के संरक्षण के भाषण,बूँद-बूँद पानी की कीमत पहचानिये..और भी न जाने क्या-क्या लिखेगे और बोलेगे। पर सच तो यही है अपनी सुविधानुसार जीवन जीने की लालसा में हम अपने हाथों से विकास की कुल्हाड़ी लिये प्रकृति की जड़ों को काट रहे हैं। आधुनिकता की होड़ ने हमें दमघोंटू हवाओं में जीने को मजबूर कर दिया है और इन सबके जिम्मेदार सिर्फ़ और सिर्फ़ हमारी असंतुलित,अव्यवस्थित आरामदायक जीवन शैली है।
प्रकृति की ऐसी दुर्दशा देख कर बस यही सवाल खुद से पूछती हूँ...कि आने वाली पीढ़ियों के लिए हम ये कैसी धरोहर संजो रहे हैं?
🌸🌸🌸🌸🌸
बदलते मौसम की सुगबुगाहट
तपती किरणों की चिलचिलाहट

सूखने लगे बाग के फूल सारे
कटते पेड़ों में मची कुलबुलाहट

गिरगिट सा रंग बदले मौसम
प्राणियों में होने लगी घबराहट

सूखते सोते जलाशयों में,
कंठों में बूँदों की अकुलाहट

पार्कों की जगह मॉल बन रहे
प्रकृति भी देख रही बदलाहट

कुदरत से खिलवाड दोस्तोंं
जीवन में मौत की बुलाहट

संतुलित रखो पर्यावरण को,
वरना सुनो विनाश की मौन आहट
---श्वेता सिन्हा


                                      


Saturday, 2 June 2018

कौन सा रूप तुम्हारा?


लिलार से टपकती
पसीने की बूँद
अस्त-व्यस्त बँधे केश का जूड़ा
हल्दी-तेल की छींटे से रंगा
हरा बाँधनी कुरता
एक हाथ में कलछी
और दूसरे में पूरियों की थाल लिये
थकी सुस्त
जब तु्म्हारे सम्मुख आयी 
लहकती दुपहरी में
तुम्हारी भूरी आँखों से उठती
भीनी-भीनी चंदन की शीतलता 
पलकों के कोरों से छलकती
प्रेम की तरलता ने
सूरज से बरसती आग को
सावन के फुहार में बदल दिया
तुम्हारे अधरों से झरते
शब्दों को चुनती बटोरकर रखती जाती
खिड़की के पास लगे
तकिये के सिरहाने
एकांत के पलों के लिए
जब स्मृतियों के आईने से निकाल कर
तुम्हारी तस्वीर देखकर
नख से शिख तक निहारुँ खुद को
तुम्हारी बातों का करके श्रृंगार इतराऊँ
बस पूछूँ तुमसे एक ही सवाल
प्रियतम कभी नाक पर गुस्सा
कभी आँखों में प्रेम रस धार
बहुरुपिये कौन सा रुप तुम्हारा है ?

   #श्वेता सिन्हा



Wednesday, 30 May 2018

प्रेम संगीत


जबसे साँसों ने
तुम्हारी गंध पहचानानी शुरु की है
तुम्हारी खुशबू
हर पल महसूस करती हूँ
हवा की तरह,
ख़ामोश आसमां पर
बादलों से बनाती हूँ चेहरा तुम्हारा
और घनविहीन नभ पर
काढ़ती हूँ तुम्हारी स्मृतियों के बेलबूटे
सूरज की लाल,पीली,
गुलाबी और सुनहरी किरणों के धागों से,
 जंगली फूलों पर मँडराती
 सफेल तितलियों सी बेचैन 
स्मृतियों के पराग चुनती हूँ,
 पेड़ो से गिरती हुई पत्तियों से
 चिड़ियों के कलरव में
 नदी के जल की खिलखिलाहट में
 बस तुम्हारी बातें ही सुनती हूँ
 अनगिनत पहचाने चेहरों की भीड़ में
 तन्हा मैं 
 हँसती, मुस्कुराती,बतियाती यंत्रचालित,
 दुनिया की भीड़ में अजनबी
 बस तुम्हें ही सोचती हूँ
 शाम की उदासियों में
 तारों की मद्धिम टिमटिमाहट में
 रजत कटोरे से टपकती
 चाँदी की डोरियों में
बाँधकर सारा प्रेम
 लटका देती हूँ मन के झरोखे से
 पवनघंटियों की तरह
 जिसकी मधुर रुनझुन 
 विस्मृत कर जीवन की सारी कड़वाहट
खुरदरे पलों की गाँठों में
घोलती रहे 
सुरीला प्रेमिल संगीत।

 ---श्वेता सिन्हा




Sunday, 27 May 2018

क्या है प्रेम..?

चित्र: साभार गूगल

आँख मूँदें तुम्हारे एहसास में गुम
जब भी चाहती हूँ
तुम्हारी आत्मा से प्रेम करना
तुम्हारे देह में उलझ कर रह जाती हूँ
निर्मल मुस्कान, भोली आँखों में,
तुम्हारे स्पर्श की स्फुरण को झटक
मोहिनी तोड़कर
आगे बढ़ना आसान नहीं होता
देह की नदी की धाराओं के
उस पार
अस्तित्वविहीन आत्मा को ढूँढ़ती
तुम्हारे मन को टोहने लगती हूँ
तुम्हारे दुःख,सुख,आँसू मुस्कान,हंसी
सारे भावों को
अपने भीतर पाती हूँ 
पर निराकार नहीं  
साकार तुम्हारी देह के साथ
तुम कहते हो न
प्रेम आत्मा का आत्मा से प्रगाढ़ आलिंगन है
पर कहो न फिर 
कुछ अनुत्तरित से है प्रश्न मेरे
देह,आत्मा और प्रेम के
देह से परिचित होकर ही तो
तुम्हारी आत्मा तक जाने का पुल बना!
कैसे मिटाकर देह को
देखूँ  आत्मा?
निष्कलुष मन
जो तुम्हें महसूस करता है निःस्वार्थ 
तुमसे बिना किसी कांक्षा के
क्या कहूँ इस उद्दाम,उत्कंठ भाव को?
क्या है प्रेम?
तुम्हारे साथ बीतते बेसुध पल?
तुम्हें सदेह महसूस करता मन?
या ईश्वर की तरह तुम्हारा अस्तित्व
जो अदृश्य होकर भी
पल-पल में होने का आभास देता है
तुम्हारी देह के परिचय के साथ।

  श्वेता सिन्हा


Wednesday, 23 May 2018

जेठ की तपिश

चित्र:मनस्वी प्राजंल

त्रिलोकी के नेत्र खुले जब
अवनि अग्निकुंड बन जाती 
वृक्ष सिकुड़कर छाँह को तरसे
नभ कंटक किरणें बरसाती
बदरी बरखा को ललचाती  
जब जेठ की तपिश तपाती 

उमस से प्राण उबलता पल-पल
लू की लक-लक दिल लहकाती
मन के ठूँठ डालों पर झूमकर 
स्मृतियाँ विहृ्वल कर जाती 
पीड़ा दुपहरी कहराती 
जब जेठ की तपिश तपाती 

प्यासी  नदियां,निर्जन गुमसुम
घूँट-घूँँट जल आस लगाए
चिचियाए खग व्याकुल चीं-चीं
पवन झकोरे  आग लगाए
कलियाँ दिनभर में मुरझाती 
जब जेठ की तपिश तपाती 
  
   #श्वेता सिन्हा

Saturday, 19 May 2018

तुम जीवित हो माने कैसे?

चित्र-मनस्वी प्रांजल

लीपे चेहरों की भीड़ में
सच-झूठ पहचाने कैसे?
अनुबंध टूटते विश्वास की
मौन आहट जाने कैसे?

नब्ज संवेदना की टटोले
मोहरे बना कर मासूमियत को,
शह मात की बिसात में खेले
शकुनियों के रुप पहचाने कैसे?

खींचते है प्राण,अजगर बन
निष्प्राण अवचेतन करके
निगलते सशरीर धीरे-धीरे
फनहीन सर्पों को पहचाने कैसे?

सोच नहीं बदलता ज़माना 
कभी नारी के परिप्रेक्ष्य में
बदलते युग के गान में दबी
सिसकियों को पहचाने कैसे?

बैठे हो कान में उंगलियाँ डाले
नहीं सुनते हो चीखों को?
नहीं झकझोरती है संवेदनाएँ?
मृत नहीं तुम जीवित हो माने कैसे?


   --श्वेता सिन्हा


मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...