Wednesday 13 March 2019

जीवन-चक्र


निर्जीव,बिखरते पत्तों की
खड़खडाहट पर अवश खड़ा 
शाखाओं का कंकाल पहने
पत्रविहीन वृक्ष
जिसकी उदास बाहें
ताकती हैं
सूखे नभ का 
निर्विकार चेहरा
हवा के बेपरवाह झकोरों से
काँपते नीड़ों से
झाँकती,फुदकती ,किलकती
चिड़िया
अपने सुखधाम के
रहस्योद्घाटन से भयभीत
उड़ जाती है 
सघन छाँह की ओर
और कुछ सहमी,दुबकी रहती हैं
तिनकों की ओट में असहज,
अकेलेपन के
घाम से व्याकुल वृक्ष
साँझ की शीतल छाँह में
चाँदनी की झीनी चादर में
भीगता,सिहरता रातभर
प्रथम रश्मि के स्पर्श से
अपनी बाहों में फूटे
रेशमी नव कोंपलों को
ओढ़कर इतराता है
वृद्ध होता वृक्ष
यौवन का उल्लास लिये
काल के कपाल पर नित
उगता ,खिलखिलाता,
मुस्काता,थमता,मरुआता,
टूटता,मिटकर फिर से 
हरियाता निरंतर
प्रवाहित जीवन चक्र,
आस-निराश का सार समझाता है।

#श्वेता सिन्हा






Friday 8 March 2019

स्त्री:वैचारिकी मंथन


गोरी,साँवली,गेहुँआ,काली
मोटी,छोटी,दुबली,लम्बी,
सुंदर,मोहक,शर्मीली,गठीली
लुभावनी,मनभावनी,गर्वीली
कर्कशा,कड़वी,कंटीली
विविध संरचनाओं से निर्मित
आकर्षक ,अनाकर्षक
देह के खोल में बंद
अग्नि-सी तपती
फैलकर अदृश्य प्राणवायु-सी
विस्तृत नभ हृदय आँचल में 
समेटती संसार
बुझाती मन की तृष्णा 
प्रेम के शीतल जल से सींचकर
बीजों को पालती
अच्छी-बुरी,अनुकूल-प्रतिकूल
परिस्थितियों के हर खाँचें में
व्यवस्थित हो जाती 
सृष्टि के पंचभूत मूल में
निहित भावों की प्रामाणिक
परिभाषा स्त्री से है।

जो भी रंग बिखरा है 
प्रकृति का कण-कण
जिसकी छुअन से निखरा है
कोमल,रेशमी,नाज़ुक
पशमीना,मादक,नशीला
सोच के रस डूबे विचारों का
अनवरत सिलसिला है
शून्य में गुंजित आह्लाद
सुरीली सरगम,अनहद नाद
श्रृंगार और विलास
रंज़,ख़ुशी,क्षोभ,शोक,व्यथा
उल्लास,उमंग,चटकीला है
दंभ,ओज,पराक्रम,गर्व
पौरुष को मान जो मिला है
धरा पर सृजन का गान
सुरभित उजास
महसूस करो सब स्त्री से है।

#श्वेता सिन्हा
८ मार्च २०१९

Wednesday 6 March 2019

उम्मीदें

ऐ दिल,
यही ज़िंदगी है 
समझ ले
भरम हैं ख़्वाब,
सच है टूटती उम्मीदें

छू भी नहीं पाते,
जमीं के 
जलते पाँव,
दरख़्तों से
सायों की, 
बेमानी उम्मीदें

मरकर दर्द में 
फिर से
ज़िंदा होती हैं,
बदलकर पैरहन 
मचलती
बेशर्म उम्मीदें

#श्वेता सिन्हा

Sunday 3 March 2019

उद्देश्य

पूछती हूँ 
काल के चक्रों को छू
है जन्म क्यों और 
जन्म का उद्देश्य क्या? 

हूँ खिलौना ईश का
तन का बदलता रुप मैं
आना-जाना पल ठिकाना
किरदार का संदेश क्या?

बनाकर के तुम मिटाते
सृष्टि का महारास रचते
शून्य,जड़-चेतन तुम्हीं से
जीवों में बचता शेष क्या?

जन्म से मरण तक 
काँपती लौ श्वास रह-रह
मोह की परतों में उलझा
जीवन का असली वेश क्या?

क्यों बता न जग का फेरा
मायावी कुछ दिन का डेरा
चक्रव्यूह रचना के मालिक
है सृष्टि का उद्देश्य क्या?

©श्वेता सिन्हा
३ मार्च २०१९
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Friday 15 February 2019

असमर्थ हूँ मैं....

व्यर्थ क़लम का रोना-धोना
न चीख़ का कोई अर्थ हू्ँ मैं
दर्द उनका महसूस करूँ
कुछ करने में असमर्थ हूँ मैं

न हृदय लगा के रो पाई
न चूम पाँव को धो पाई
तन के टुकड़े कैसे चुनती
आँचल छलनी असमर्थ हूँ मैं

माँ के आँखों का गंगाजल
पापा के कंधे का वो बल
घर-आँगन का दीप बुझा
न जला सकूँ असमर्थ हूँ मैं

भरी माँग सिंदूर की पोंछ
वो बैठी सब श्रृंगार को नोंच
उजड़ी बगिया सहमी चिड़िया
क्या समझाऊँ असमर्थ हूँ मैं

सब आक्रोशित है रोये सारे
गूँजित दिगंत जय हिंद नारे
वह दृश्य रह-रह झकझोर रहा
उद्विग्न किंतु असमर्थ हूँ मैं

क़लम मेरी मुझे व्यर्थ लगे
व्याकुलता का न अर्थ लगे
हे वीरों ! मुझे क्षमा करना
कुछ करने में असमर्थ हूँ मैं

मात्र नमन ,अश्रुपूरित नमन
तुम्हें शत-शत नमन कोटिश
हे वीरों ! मुझे क्षमा करना
यही कहने में समर्थ हूँ मैं

#श्वेता सिन्हा

Thursday 14 February 2019

बदसूरत लड़की


वो नहीं सँवरती
प्रतिबिंब आईने में 
बार-बार निहारकर
बालों को नहीं छेड़ती
लाली पाउडर 
ड्रेसिंग टेबल के दराजों में
सूख जाते हैं
उसे पता है 
कोई फर्क नहीं पड़ेगा
गज़रा,बिंदी लाली लगाकर
वो जानती है
कोई गज़ल नहीं बन सकती
उसकी आँखों,अधरों पर
तन के उतार-चढ़ाव पर
किसी की कल्पना की परी नहीं वो
सबकी नज़रों से
ख़ुद को छुपाती
भीड़ से आँख चुराती
खिलखिलाहटों को भाँपती
चुन्नियों से चेहरे को झाँपती
पानी पर बनी अपनी छवि को
अपने पाँवों से तोड़ती है
प्रेम कहानियाँ
सबसे छुप-छुपकर पढ़ती 
सहानुभुति,दया,बेचारगी भरी
आँखों में एक क़तरा प्रेम
तलाश कर थक चुकी
प्रेम की अनुभूतियों से
जबरन मुँह मोड़ती है
भावहीन,स्पंदनहीन
निर्विकार होने का
ढोंग करती है
क्योंकि वो जानती है
उसके देह पर उगे 
बदसूरती के काँटों से
छिल जाते है 
प्रेम के कोमल मन
बदसूरत लड़की का 
सिर्फ़ तन होता है
मन नहीं।

#श्वेता सिन्हा



Wednesday 13 February 2019

ग़रीबी-रेखा


जीवन रेखा,मस्तिष्क रेखा,
भाग्य रेखा सबकी हथेलियों में होते हैं
ऐसा एक ज्योतिष ने समझाया 
ग़रीबी-रेखा कहाँ होती है?
यह पूछने पर वह गुस्साया
कहने लगा-
ऐसी रेखाओं की माया 
ऊपरवाला ही जाने
तू पैसे निकाल और 
अपनी किस्मत चमका ले

पहुँच प्रभु के दरवाज़े पर
जोड़ विनय से हाथ कहा-
हे प्रभु!कृपा करके 
देकर मेरे कुछ सवालों के उत्तर 
मेरी अज्ञानता का अंत कीजिए
समझाइए हाथ की लकीरों के बारे में
कृपा मुझपर  दयावंत कीजिए
मुझको आप ही
ग़रीबी-रेखा वाली हाथ की 
विशेषता समझाइए
किन कर्मों को करने से
ऐसी रेखाएँ बनती है
जरा विस्तार से बताइये

लाचारी ,भूख से ऐंठती अंतड़ियों पर
हर सुबह एक आशा की लकीर का बनना
ग़रीब के घर जन्मते दुधमुँहों का
बूँदभर दूध को तरसना,
दाने को मोहताज ग़रीब 
नेता,अभिनेता के 
मुनाफ़े के प्रचार का सामान गरीब
अख़बार भी भूखों के मरने की सुर्ख़ियों से
कमा लेते है नाम
अस्थि-पंजरों पर शोधकर 
पढ़नेवाले कहलाते हैं विद्वान,
पाते है डिग्रियाँ और ईनाम

कितनी योजनाएँ बनती हैं
इतनी रगड़-पोंछ के बाद भी
क्यों गरीबों के आंकड़े बढ़ते है?
गहरी होती जाती है गरीबी रेखा
तकदीर शून्य ही गढ़ते हैं

विचारमग्न प्रभु ने तोड़ा मौन
कहने लगे मूर्ख  प्राणी 
मैं बस इंसानों को गढ़ता हूँ
हाथों की लकीर मैं कहाँ पढ़ता हूँ
यह सब तुम मुट्ठीभर इंसानों की
स्वार्थ का कोढ़ है
आडंबर की दुकान चलाने के लिए
इतने सारे जोड़-तोड़ हैं

तुम ही सोचो अगर
हाथ की रेखाओं से तकदीर गढ़े जाते
जीवन की कहानी 
चंद लकीरों में पढ़े जाते
तो बिना हाथ वाले मनुष्य
भला कैसे जीवन पाते?

सच तो यह है 
इन ग़रीबों को ही
जीने का शऊर नहीं,
मुफ्त की बिज़ली,पानी,ऋण माफ़ी,
गैस कनेक्शन,आवास योजना जैसी 
शाही सुविधाओं की कल्पनाओं को
भोगने का लूर नहीं

कोई धर्म,सम्प्रदाय नहीं,
अधिकारों के प्रति असजग ग़रीब
न कोई यूनियन,न कम्पेनियन
न बैनर ढंग का, न आकर्षण
हड़ताल,तोड़-फोड़ न प्रदर्शन,
अयोग्य है हेरा-फेरी में,
जोड़-तोड़,लेन-देन के हिसाब में
फिर कैसे आ पायेंगे भला
ये सम्पन्नता सूची की किताब में?

बित्तेभर हथेली में इस रेखा
को ढूँढना व्यर्थ है
जुगाड़ की तिजोरी में बंद
इस रेखा का गहन अर्थ है।

बच्चे! ग़रीबी रेखा भगवान नहीं
तुम इंसानों का बनाया मंत्र है
जिसके जाप से फल-फूल रहा
इस देश का लोकतंत्र है।

#श्वेता सिन्हा

Monday 11 February 2019

फिर आया बसंत

धूल-धूसरित आम के पुराने नये गहरे हरे पत्तों के बीच से  स्निगध,कोमल,नरम,मूँगिया लाल पत्तियों के बीच हल्के हरे रंग से गझिन मोतियों सी गूँथी आम्र मंजरियों को देखकर मन मुग्ध हो उठा।
और फूट पड़ी कविता-

केसर बेसर डाल-डाल 
धरणी पीयरी चुनरी सँभाल
उतर आम की फुनगी से
सुमनों का मन बहकाये फाग
तितली भँवरें गाये नेह के छंद
सखि रे! फिर आया बसंत

सरसों बाली देवे ताली
मदमाये महुआ रस प्याली
सिरिस ने रेशमी वेणी बाँधी
लहलही फुनगी कोमल जाली
बहती अमराई बौराई सी गंध
सखि रे! फिर आया बसंत

नवपुष्प रसीले ओंठ खुले
उफन-उफन मधु राग झरे
मह-मह चम्पा ले अंगड़ाई 
कानन केसरी चुनर कुसुमाई
गुंजित चीं-चीं सरगम दिगंत
सखि रे! फिर आया बसंत

प्रकृति का संदेश यह पावन
जीवन ऋतु अति मनभावन
तन जर्जर न मन हो शिथिल 
नव पल्लव मुस्कान सजाओ
श्वास सुवास आस अनंत
सखि रे! फिर आया बसंत।

#श्वेता सिन्हा

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...