Saturday 6 October 2018

जीवन रण में


 कुरुक्षेत्र के जीवन रण में
गिरकर फिर चलना सीखो 
कंटक राहों के अनगिन सह
छिलकर भी पलना सीखो

लिए बैसाखी बेबस बनकर
कुछ पग में ही थक जाओगे
हिम्मत तो करो अब पाँव तले
हर डर को तुम दलना सीखो

 पट बिन नयनों के खोले ही
कहते हो तम का पहरा है
तुम आग हो एक चिंगारी हो
जगमग-जगमग जलना सीखो

 खोना क्यों दीदा रो-रोकर
न विगत लौट फिर आयेगा
बीत रहा जो उस क्षण के
रंगों में घुल ढलना सीखो

पिघल धूप में जाते हो 
क्यों फूलों सा मुरझाते हो
सुनो मोम नहीं फौलाद बनो
नेह आँच में ही गलना सीखो

सलवटों में उमर की छुपी हुई
दबी घुटी हुई कुछ निशानियाँ 
पूरा करना हो स्वप्न अगर 
गले हौसलों के मिलना सीखो

-श्वेता सिन्हा

14 comments:

  1. नयनों के पट बिन खोले ही
    कहते हो कि तम का पहरा है
    तुम आग हो एक चिंगारी हो
    जगमग-जगमग जलना सीखो

    जोश जाग्रत करती हुई रचना

    ReplyDelete
  2. हम कई मुद्दों को छोड़ देते हैं ये सोच के कि बस दुश्वार है ये काम तो..हमसे ना हो पायेगा.
    ये आँख मूंद कर विश्वास करने का नतीजा है दुनियां पर.दुनियां जिस काम को मुस्किल बताती है उसको हम भी मुस्किल समझ लेते हैं. दरअसल में आँख बंद होती है हमारी..हम अपनी शक्ति को नहीं पहचानते.
    आपकी रचना जानदार है..
    मुर्दे में जान फूंकने वाली.

    ReplyDelete
  3. अर्जुन’ संज्ञाशून्य न होना,
    ‘कुरुक्षेत्र’ की धरती पर.
    किंचित घुटने नहीं टेकना,
    जीवन की सूखी परती पर...
    जीवन समर में संघर्ष भाव की संजीवनी घोलती सुंदर कविता!

    ReplyDelete
  4. बहुत सुन्दर सीख भरी भावपूर्ण रचना श्वेता जी ।

    ReplyDelete
  5. पिघल धूप में जाते हो
    क्यों फूलों सा मुरझाते हो
    सुनो मोम नहीं फौलाद बनो
    नेह आँच में ही गलना सीखो
    वाह शानदार रचना

    ReplyDelete
  6. सुंदर रचना ।संघर्ष के बाद आकर्ष।बेहद मर्मस्पर्शी

    ReplyDelete
  7. रचना की हर पंक्ति एक सकारात्मकता का संकेत दे रही है।अतः आभार आपका श्वेता जी इस सुंदर कविता के लिये। .
    पर सच यह है कि हममें से अनेकों के मन के एक कोने में अंधकार छिपा बैठा है,एक रिक्तता है। जिस पर इंसान पर्दा किये रहता है, उसे निकाल नहीं पाता और न ही दूसरों को बता पाता है..
    वह इस व्याकुल पथिक की तरह समाज में स्वयं को लज्जित भी नहीं करना चाहता है..
    यह कह कर कि बाहर तो उजाला है, मगर दिल में अंधेरा...
    पर समाज में अंधकार है निश्चित..
    कल की बात लें यहां की नयी सड़क गड्ढे वाली पर पिता की बाइक क्या फिसली स्कूली बैग लिया पुत्र काल के गाल समा गया। हाहाकार कर उठा मन.. इस भ्रष्टाचार पर हम सभी ने अनेकों बार लिखा, परंतु भ्रष्टाचार का आवरण अंधकार बना छाया है..

    इस समाज में मिलावट, बनावट और दिखावट का रोग लग गया है। आप जैसी रचनाकार चाहे जितना भी झकझोरा करे.. नहीं दूर होगी उदासी। पच्चीस वर्ष पूर्व 10% कमीशन बहुत होता था अब 50% कम है।
    इसी अनुपात में हमारी आकांक्षाएं बढ़ी है और नकारात्मक भाव भी..
    आभार
    इस व्याकुल पथिक का।

    ReplyDelete
  8. वाह!!श्वेता ,एक-एक पंक्ति लाजवाब ,सकारात्मकता से भरी हूई ।

    ReplyDelete
  9. सकारात्मकता से भरी हुई बहुत ही सुंदर रचना, श्वेता।

    ReplyDelete
  10. वाह स्वेता जी बहुत शानदार रचना।
    काफी प्रेणा दयाक और यथार्थ से परिचय करती हैं।
    पट बिन नयनों के खोले ही
    कहते हो तम का पहरा है
    ये lines तो जैसे दिल को छू गयी।यही हम सब की कमज़ोरी हैं।बिन लड़े ही हार मरना।
    इसीसे जीत गये तो जीत गये।
    आभार

    ReplyDelete
  11. पिघल धूप में जाते हो
    क्यों फूलों सा मुरझाते हो
    सुनो मोम नहीं फौलाद बनो
    नेह आँच में ही गलना सीखो
    वाहवाह ...श्वेता जी सुन्दर सीख देती कमाल की रचना लिखी है आपने...
    सकारात्मकता से परिपूर्ण भरपूर हौसला भरती शानदार कृति के लिए बधाई आपको...

    ReplyDelete
  12. वाह! श्वेता जी बेहतरीन रचना 👌

    ReplyDelete
  13. बहुत खूब ...
    जिंदगी कुरुक्षेत्र ही है जहाँ संको अपना अपना युद्ध खुद लड़ना होता है ...
    कुछ हिम्मत से लड़ते हैं कुछ बीच राह में हार जाते हैं ...
    बहुत इ खूबसूरत शब्दों से साहस और प्रेरित करते हैं आपबे शब्द ...

    ReplyDelete
  14. जीवन के रण के रूप में एक बहुत ही शानदार रचना प्रस्तुत हुई है। इसके लिये आपका धन्य‍वाद।

    ReplyDelete

आपकी लिखी प्रतिक्रियाएँ मेरी लेखनी की ऊर्जा है।
शुक्रिया।

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...