कुरुक्षेत्र के जीवन रण में
गिरकर फिर चलना सीखो
कंटक राहों के अनगिन सह
छिलकर भी पलना सीखो
लिए बैसाखी बेबस बनकर
कुछ पग में ही थक जाओगे
हिम्मत तो करो अब पाँव तले
हर डर को तुम दलना सीखो
पट बिन नयनों के खोले ही
कहते हो तम का पहरा है
तुम आग हो एक चिंगारी हो
जगमग-जगमग जलना सीखो
खोना क्यों दीदा रो-रोकर
न विगत लौट फिर आयेगा
बीत रहा जो उस क्षण के
रंगों में घुल ढलना सीखो
पिघल धूप में जाते हो
क्यों फूलों सा मुरझाते हो
सुनो मोम नहीं फौलाद बनो
नेह आँच में ही गलना सीखो
सलवटों में उमर की छुपी हुई
दबी घुटी हुई कुछ निशानियाँ
पूरा करना हो स्वप्न अगर
गले हौसलों के मिलना सीखो
-श्वेता सिन्हा
नयनों के पट बिन खोले ही
ReplyDeleteकहते हो कि तम का पहरा है
तुम आग हो एक चिंगारी हो
जगमग-जगमग जलना सीखो
जोश जाग्रत करती हुई रचना
हम कई मुद्दों को छोड़ देते हैं ये सोच के कि बस दुश्वार है ये काम तो..हमसे ना हो पायेगा.
ReplyDeleteये आँख मूंद कर विश्वास करने का नतीजा है दुनियां पर.दुनियां जिस काम को मुस्किल बताती है उसको हम भी मुस्किल समझ लेते हैं. दरअसल में आँख बंद होती है हमारी..हम अपनी शक्ति को नहीं पहचानते.
आपकी रचना जानदार है..
मुर्दे में जान फूंकने वाली.
अर्जुन’ संज्ञाशून्य न होना,
ReplyDelete‘कुरुक्षेत्र’ की धरती पर.
किंचित घुटने नहीं टेकना,
जीवन की सूखी परती पर...
जीवन समर में संघर्ष भाव की संजीवनी घोलती सुंदर कविता!
बहुत सुन्दर सीख भरी भावपूर्ण रचना श्वेता जी ।
ReplyDeleteपिघल धूप में जाते हो
ReplyDeleteक्यों फूलों सा मुरझाते हो
सुनो मोम नहीं फौलाद बनो
नेह आँच में ही गलना सीखो
वाह शानदार रचना
सुंदर रचना ।संघर्ष के बाद आकर्ष।बेहद मर्मस्पर्शी
ReplyDeleteरचना की हर पंक्ति एक सकारात्मकता का संकेत दे रही है।अतः आभार आपका श्वेता जी इस सुंदर कविता के लिये। .
ReplyDeleteपर सच यह है कि हममें से अनेकों के मन के एक कोने में अंधकार छिपा बैठा है,एक रिक्तता है। जिस पर इंसान पर्दा किये रहता है, उसे निकाल नहीं पाता और न ही दूसरों को बता पाता है..
वह इस व्याकुल पथिक की तरह समाज में स्वयं को लज्जित भी नहीं करना चाहता है..
यह कह कर कि बाहर तो उजाला है, मगर दिल में अंधेरा...
पर समाज में अंधकार है निश्चित..
कल की बात लें यहां की नयी सड़क गड्ढे वाली पर पिता की बाइक क्या फिसली स्कूली बैग लिया पुत्र काल के गाल समा गया। हाहाकार कर उठा मन.. इस भ्रष्टाचार पर हम सभी ने अनेकों बार लिखा, परंतु भ्रष्टाचार का आवरण अंधकार बना छाया है..
इस समाज में मिलावट, बनावट और दिखावट का रोग लग गया है। आप जैसी रचनाकार चाहे जितना भी झकझोरा करे.. नहीं दूर होगी उदासी। पच्चीस वर्ष पूर्व 10% कमीशन बहुत होता था अब 50% कम है।
इसी अनुपात में हमारी आकांक्षाएं बढ़ी है और नकारात्मक भाव भी..
आभार
इस व्याकुल पथिक का।
वाह!!श्वेता ,एक-एक पंक्ति लाजवाब ,सकारात्मकता से भरी हूई ।
ReplyDeleteसकारात्मकता से भरी हुई बहुत ही सुंदर रचना, श्वेता।
ReplyDeleteवाह स्वेता जी बहुत शानदार रचना।
ReplyDeleteकाफी प्रेणा दयाक और यथार्थ से परिचय करती हैं।
पट बिन नयनों के खोले ही
कहते हो तम का पहरा है
ये lines तो जैसे दिल को छू गयी।यही हम सब की कमज़ोरी हैं।बिन लड़े ही हार मरना।
इसीसे जीत गये तो जीत गये।
आभार
पिघल धूप में जाते हो
ReplyDeleteक्यों फूलों सा मुरझाते हो
सुनो मोम नहीं फौलाद बनो
नेह आँच में ही गलना सीखो
वाहवाह ...श्वेता जी सुन्दर सीख देती कमाल की रचना लिखी है आपने...
सकारात्मकता से परिपूर्ण भरपूर हौसला भरती शानदार कृति के लिए बधाई आपको...
वाह! श्वेता जी बेहतरीन रचना 👌
ReplyDeleteबहुत खूब ...
ReplyDeleteजिंदगी कुरुक्षेत्र ही है जहाँ संको अपना अपना युद्ध खुद लड़ना होता है ...
कुछ हिम्मत से लड़ते हैं कुछ बीच राह में हार जाते हैं ...
बहुत इ खूबसूरत शब्दों से साहस और प्रेरित करते हैं आपबे शब्द ...
जीवन के रण के रूप में एक बहुत ही शानदार रचना प्रस्तुत हुई है। इसके लिये आपका धन्यवाद।
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