बेबस, निरीह,डबडबाई आँखें
नीची पलकें,गर्दन झुकाये
भींचे दाँतों में दबाये
हृदय के तूफां
घसीटने को मजबूर देह
विचारों से शून्य
जीते गये,जबरन
मोल लिये गये ग़ुलाम।
बिकते ही
मालिक के प्रति
वफ़ादारी का पट्टा पहने
मालिक की आज्ञा ही
ओढ़ना-बिछौना जिनका
अपने जीवन को ढोते ग़ुलाम।
सजते रहे हैं,
सदियों से लगते रहे हैं
खुलेआम ग़ुलामों के बाज़ार
स्त्री-पुरुष और बच्चों की भूख,
दुर्दशा,लाचारी और बेबसी का भरपूर
सदुपयोग करते रहे हैं
धनाढ्य,सत्ताधारी,व्यापारी
और पूँजीपति वर्ग,
बनाते रहे हैं ग़ुलाम।
कालान्तर में प्रकृति अनुरूप
समय के चक्र में परिवर्तन की
तर्ज़ पर,क्रांति के नाम पर,
आज़ादी का हवाला देकर
आधुनिक ग़ुलामों का
परिवर्तित स्वरुप दृष्टिगोचर है...।
अंतर तो है ही
प्राचीन और आधुनिक गुलामों में
यूनान और यूनान के गुलामों की भाँति
अब गिरवी नहीं रखे जाते
यूरोपीय देशों के बंधक गुलामों की तरह
बर्बर अत्याचार नहीं भोगने पड़ते हैं
अब निरीह और बेबस नहीं अपितु
भोली जनता के
अधिकारों के लिए छद्म संघर्ष में रत
'बहुरुपिये ग़ुलाम'
अब निरीह और बेबस नहीं अपितु
भोली जनता के
अधिकारों के लिए छद्म संघर्ष में रत
'बहुरुपिये ग़ुलाम'
अब लोहे की ज़जीरों में जकड़े
अत्याचार से कराहते नहीं बल्कि
अत्याचार से कराहते नहीं बल्कि
स्वार्थ और लोलुपता में जकड़े हुये
"मौकापरस्त गुलामों" का खुलेआम बाज़ार
आज भी लगता है।
देश के विकास के नाम पर
अपने वैचारिकी मूल्यों से समझौता करते
मासूम जनमानस की भावनाओं
को ठगने वालों के लिए
बोलियाँ अब भी लगती हैं
कुछ सालों के पट्टे पर
आज भी उपलब्ध हैं "नामचीन ग़ुलाम"
पर सावधान!
वफ़ादारी की प्रत्याभूति(गारंटी)
अब उपलब्ध नहीं...,
सिंहासन के युद्ध में
धन-बल-छल से युक्त प्रंपच से
सत्ता के सफल व्यापारी
सक्षम है करने को आज भी
मानव तस्करी।
#श्वेता सिन्हा
मार्मिक सत्य
ReplyDeleteजी आभारी हूँ। शुक्रिया।
Deleteबेहद उम्दा
ReplyDeleteबेहतरीन अभिव्यक्ति
जी आभारी हूँ शुक्रिया।
Deleteबहुत सुन्दर श्वेता !
ReplyDeleteहमारी स्वप्नदर्शी, भावुक कवियित्री अब अपनी रचनाओं में ज़मीनी हक़ीक़त से जुड़ रही है और उसे अब सियासत की पेचीदगियां भी समझ में आने लगी हैं.
जी आभारी हूँ सर आपकी बहुमूल्य प्रतिक्रिया उत्साह बढ़ा जाती है।
Deleteसादर।
बेहतरीन सृजन स्वेता।
ReplyDeleteजी आभारी हूँ सादर।
Deleteवाह!!श्वेता ,क्या बात है !हाल में देश में घट यही घटनाओं को बखूबी उकेरा है आपने अपनी कलम से ..।ये सत्ता लोलुप देश को कहाँ ले जाएंगे कुछ पता नही..?
ReplyDeleteजी आभारी हूँ दी शुक्रिया।
Deleteवाह!
ReplyDeleteआदरणीया दीदी जी बहुत खूब कहा आपने।
वर्तमान की पारिस्थियों पर सटीक बैठती है पंक्तियाँ। बस यही सोच रही हूँ कि जब देश ऐसे गुलामों के हाथ में हो तो भविष्य क्या होगा?
सादर नमन सुप्रभात 🙏
आभारी हूँ प्रिय आँचल। शुक्रिया।
Deleteवाह, मान गई श्वेता जी। क्या ख़ूब कही आपने। लाजबाब।
ReplyDeleteआभारी हूँ चंचल जी । शुक्रिया।
Delete'समसामयिक हलचलों से भला भावुक हृदय कब तक आँखे मूँदे बैठा रह सकता है', इसे पूरी तरह चरितार्थ करती एक अत्यंत सशक्त और सार्थक रचना। बधाई और आभार।
ReplyDeleteजी आभारी हूँ आपका आशीष मिला। सादर।
Delete. विश्व मोहन जी ने बिल्कुल सही कहा बहुत ही अलग लग रही है आपकी रचना इन मुद्दों पर आप बहुत ही कम लिखती हैं लेकिन आज जब लिखी है तो जमकर के लिखा है आपने बहुत खूब
ReplyDeleteआभारी हूँ प्रिय अनु। सस्नेह।
Deleteसिर्फ तरीका बदला है ... गुलाम तो आज भी हैं ... हम खुद भी बहुत सी बातों के गुलाम हो गए हैं आज ... अच्छी रचना है ...
ReplyDeleteजी आभारी हूँ सर।शुक्रिया।
Deleteआभारी हूँ सर। सादर।
ReplyDeleteजी बहुत आभारी हूँ सादर।
ReplyDeleteवाह !श्वेता दी बेहतरीन
ReplyDeleteइतिहास का उहाहरण वर्तमान के परिवेश में
समयसामयकी सृजन
सादर
दासत्व एक अमानवीयता भरा विकृत व्यवहार है जो संकीर्ण और निरंकुश मानसिकता का परिचायक है | गुलामी शब्द की गहराई से विवेचना करती सार्थक रचना प्रिय श्वेता | सदियों से गुलामी मानवता पर कलंक रही है आधुनिक सन्दर्भ में इसके मायने और भयावह हो गये हैं | चिंतनपरक रचना के लिए बधाई और शुभकामनायें प्रिय श्वेता ||
ReplyDeleteअच्छी रचना
ReplyDeleteवर्तमान स्थिति का सटिक विश्लेषण करती बहुत ही सुंदर रचना, श्वेता दी।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर कविता ! Thanks For Sharing
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