Thursday, 5 December 2019

सौंदर्य-बोध

दृष्टिभर
प्रकृति का सम्मोहन
निःशब्द नाद
मौन रागिनियों का
आरोहण-अवरोहण
कोमल स्फुरण,स्निग्धता
रंग,स्पंदन,उत्तेजना,
मोहक प्रतिबिंब,
महसूस करता सृष्टि को 
प्रकृति में विचरता हृदय
कितना सुकून भरा होता है
पर क्या सचमुच,
प्रकृति का सौंदर्य-बोध
जीवन में स्थायी शांति
प्रदान करता है?
प्रश्न के उत्तर में
उतरती हूँ पथरीली राह पर
 कल्पनाओं के रेशमी 
 पंख उतारकर
ऊँची अटारियों के 
मूक आकर्षण के 
परतों के रहस्यमयी,
कृत्रिमताओं के भ्रम में
क्षणिक सौंंदर्य-बोध
के मिथक तोड़
खुले नभ के ओसारे में
टूटी झोपड़ी में
छिद्रयुक्त वस्त्र पहने
मुट्ठीभर भात को तरसते
नन्हें मासूम,
ओस में ओदायी वृक्ष के नीचे
सूखी लकडियाँ तलाशती स्त्रियाँ
बारिश के बाद
नदी के मुहाने पर बसी बस्तियों
की अकुलाहट
धूप से कुम्हलायी
मजदूर पुरुष-स्त्रियाँ
कूड़ों के ढेर में मुस्कान खोजते
नाबालिग बच्चे
ठिठुराती सर्द रात में
बुझे अलाव के पास
सिकुड़े कुनमुनाते 
भोर की प्रतीक्षा में
कंपकंपाते निर्धन,
अनगिनत असंख्य
पीड़ाओं,व्यथाओं 
विपरीत परिस्थितियों से
संघर्षरत पल-पल...
विसंगतियों से भरा जीवन
असमानता,असंतोष
क्षोभ और विस्तृष्णा
अव्यक्त उदासी के जाल में
भूख, 
यथार्थ की कंटीली धरा पर
रोटी की खुशबू तलाशता है
ढिबरी की रोशनी में
खनकती रेज़गारी में
चाँद-तारे पा जाता है
कुछ निवालों की तृप्ति में
सुख की पैबंदी चादर
और सुकून की नींद लेकर
जीवन का सौंदर्य-बोध 
पा जाता है
जीवन हो या प्रकृति
सौंदर्य-बोध का स्थायित्व
मन की संवेदनशीलता नहीं
परिस्थितिजन्य
 भूख की तृप्ति
 पर निर्भर है।

#श्वेता

साहित्य कुंज फरवरी द्वितीय अंक में प्रकाशित।

http://m.sahityakunj.net/entries/view/saundrya-bodh



Monday, 2 December 2019

गाँव शहर हो जाते हैं


सभ्यताएँ करती हैं बग़ावत
परंपराओं की ललकार में
भूख हार मान जाती है
सोंधी माटी से तकरार में
रोटी की आस में जुआ उतार
गमछे में कुछ बाँध चबेने
गाँव शहर हो जाते हैं...।

सूनी थाली बुझती अंगीठी
कर्ज़ में डूबी धान बालियाँ
फटा अँगोछा,झँझरी चुनरी
गिरवी गोरु,बैल,झोपड़ियाँ
सपनों के कुछ बिचड़े चुनकर
नन्ही-सी गठरी बँधते ही
गाँव शहर हो जाते हैं...।

पकी निबौरी, सखुआ,महुआ 
कटते वृक्ष,पठार बेहाल
ताल,पोखरा,कूप सिसकते
चिड़िया चुप,निर्जन चौपाल
कच्ची पगडंडी पर चलते
स्मृतियों की खींच लकीरें
गाँव शहर हो जाते हैं...।


माँ-बाबू के भींगे तकिये
गुड़िया ब्याहती बहन के सपने
बेगारी की बढ़ती डिग्री
बे-इलाज़ मरते कुछ अपने
अमिया चटखाते हाथों में
वक़्त घड़ी के बँधते ही
गाँव शहर हो जाते हैं...।

सूखे बबूल के काँटों में
उलझी पतंगे,आँख-मिचौली
मांदर-ढोल भूले बिरहा,चैता
 टूटी आस की बँसुरी,ढफली 
'प्रेमचंद',' रेणु' की चिट्ठियाँ
'गोंडवी' के संदेशे पढ़ते-पढ़ते
गाँव शहर हो जाते है....।



#श्वेता सिन्हा

Friday, 29 November 2019

कब तक...?


फिर से होंगी सभाएँ
मोमबत्तियाँ 
चौराहों पर सजेंगी
चंद आक्रोशित नारों से
अख़बार की 
सुर्खियाँ फिर रंगेंगी
हैश टैग में 
संग तस्वीरों के
एक औरत की 
अस्मत फिर सजेगी
आख़िर हम कब तक गिनेंगे?
और कितनी अर्थियाँ 
बेटियों की सजेंगी?
कोर्ट,कानूनों और भाषणों 
के मंच पर ही
महिला सशक्तिकरण 
भ्रूण हत्या,बेटी बचाओ
की कहानियाँ बनेंगी
पुरुषत्व पर अकड़ने वाले को
नपुंसक करने की सज़ा 
कब मिलेगी?
मुज़रिमों को
पनाह देता समाज
लगता नहीं 
यह बर्बरता कभी थमेगी
क्यों बचानी है बेटियाँ?
इन दरिन्दों का 
शिकार बनने के लिए?
पीड़िता, बेचारी,अभागी
कहलाने के लिए
बेटियाँ कब तक जन्म लेंगी ?

#श्वेता सिन्हा

और कितनी दरिंदगी बाकी है
इंसानी भेड़ियों क्यों तुम्हारी ज़िंदगी बाकी है...?
वासना के लिजलिजे कीड़ों 
वहशियत और कितनी गंदगी बाकी है?





Tuesday, 26 November 2019

ग़ुलाम

चित्र: साभार गूगल
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बेबस, निरीह,डबडबाई आँखें
नीची पलकें,गर्दन झुकाये
भींचे दाँतों में दबाये
हृदय के तूफां
घसीटने को मजबूर देह
विचारों से शून्य
जीते गये,जबरन 
मोल लिये गये ग़ुलाम।

बिकते ही
 मालिक के प्रति
वफ़ादारी का पट्टा पहने
मालिक की आज्ञा ही
ओढ़ना-बिछौना जिनका
अपने जीवन को ढोते  ग़ुलाम।

सजते रहे हैं,
सदियों से लगते रहे हैं
खुलेआम ग़ुलामों के बाज़ार
स्त्री-पुरुष और बच्चों की भूख,
दुर्दशा,लाचारी और बेबसी का भरपूर 
सदुपयोग करते रहे हैं
धनाढ्य,सत्ताधारी,व्यापारी 
और पूँजीपति वर्ग,
बनाते रहे हैं ग़ुलाम।

कालान्तर में प्रकृति अनुरूप
समय के चक्र में परिवर्तन की
तर्ज़ पर,क्रांति के नाम पर,
आज़ादी का हवाला देकर
आधुनिक ग़ुलामों का 
परिवर्तित स्वरुप दृष्टिगोचर है...।

अंतर तो है ही
प्राचीन और आधुनिक गुलामों में
यूनान और यूनान के गुलामों की भाँति
अब गिरवी नहीं रखे जाते 
यूरोपीय देशों के बंधक गुलामों की तरह
 बर्बर अत्याचार नहीं भोगने पड़ते हैं
अब निरीह और बेबस नहीं अपितु 
भोली जनता के 
अधिकारों के लिए छद्म संघर्ष में रत
'बहुरुपिये ग़ुलाम'
अब लोहे की ज़जीरों में जकड़े
अत्याचार से कराहते नहीं बल्कि
 स्वार्थ और लोलुपता में जकड़े हुये
"मौकापरस्त गुलामों" का खुलेआम बाज़ार 
 आज भी लगता है।

 देश के विकास के नाम पर
 अपने वैचारिकी मूल्यों से समझौता करते
 मासूम जनमानस की भावनाओं 
 को ठगने वालों के लिए
 बोलियाँ अब भी लगती हैं
कुछ सालों के पट्टे पर
आज भी उपलब्ध हैं "नामचीन ग़ुलाम"
पर सावधान!
वफ़ादारी की प्रत्याभूति(गारंटी) 
अब उपलब्ध नहीं...,
सिंहासन के युद्ध में
धन-बल-छल से युक्त प्रंपच से
सत्ता के सफल व्यापारी
सक्षम है करने को आज भी
मानव तस्करी।

#श्वेता सिन्हा

Saturday, 23 November 2019

परदेशी पाहुन

चित्र:साभार गूगल

(१)★★★★★★
अपनी जड़ों में 
वापस लौटने का,
स्वप्न परों में बाँधे
आते हैं परदेशी
नवजीवन की चाह में
आस की डोरी थामे
नगर,महानगर
नदी,पोखरा
सात समुंदर पार से
सरहद विहीन 
उन्मुक्त नभ की 
पगडंडियों में
हवाओं की मौन ताल पर
थिरकते 
इंद्रधनुषी धूप की
रेशमी जाल कुतरते
कतारबद्ध,अनुशासित
दाना-पानी की
टोह में प्रकृति के सुरम्य
गोद में उतरते हैं 
ऋतुओं की डोली से
प्रतिवर्ष असंख्य
परदेशी पाहुन...।
मेघदूत बने
अनगिनी,अनसुनी,अनदेखी
कहानियों की पुर्ज़ियाँ ....
बर्फीली वादियों की,
हँसते श्वेत फूलों की,
बादलों के चादर ताने सोये 
शर्मीले चंदा की,
सजग सीमा प्रहरियों के 
डबडबायी आँखों की,
अनगिनत संदेशों के लिफ़ाफ़े 
अपने चोंच में दबाये
अबूझ बोलियों में
सुनाकर,बाँटकर आँसू
मुसकान देने आते हैं
परदेशी पाहुन।

(२)★★★★★★★★
इस बार भी
अपनी यादों में
एक मदहोश मौसम
की खुशबू बसाये 
प्रवासी उत्सुकता में
आये हैं मिलने,सुनने-सुनाने
यात्रा-विवरण 
मिलकर अपने 
चिरपरिचित मित्रों से
पेड़ों,झुरमुटों,पर्वतों
घाटियों,नदियों से...
सुनाने झीलों को साइबेरियाई गीत... 
उत्साह में चहचहाते,किलकते
हज़ारों मील की
थकान बिसराये
प्रवेश करते हैं शहरों की
सीमाओं में
दमघोंटू धुँध में...
परपराती आँखों 
जलते कलेजे से घबराये
सुस्ताने की चाह में 
ढूँढते अपने वृक्ष मित्रों को,
समतल होते
पर्णहीन पर्वत शिखरों के
टूटे पाषाण के टुकड़े हताशा से निहारते,
ठूँठ वनों की दुर्दशा का
क्षोभ नन्हें हृदय में समेटे,
छुई-मुई-सी
नदियों की तट पर ठिठके,
अपनी प्रिय झील की
बाहों में आकर चैन मिला
राह की भयावह कटु स्मृतियों की
 वेदना बिसरा देना चाहते थे
झील की मेहमाननवाज़ी में
उछलते-कूदते,शोर मचाते
चक्ख़ते ही भोजन-पानी
"एवियन बॉटुलिज्‍म" का शिकार
सुस्त पड़कर,ऐंठकर
पटपटाकर मौत की आग़ोश में
सो गयें।
निर्दोष,निर्मल झील
मनुष्य के कर्मों के द्वारा शापित
होकर मौन पीड़ा सहती
अपने मासूम,निरीह परदेशी पाहुनों के
बेजान देह लिये पथराई
सामूहिक हत्या का दोष 
कलंकित आतिथ्य
का बोझ आजीवन ढोने को
मजबूर हैं।

#श्वेता

Thursday, 21 November 2019

संस्कार संक्रमण



हाय! हम क्यों नहीं सोच रहे?
अपने भविष्य की सीढ़ियों को
अपने आने वाली पीढियों को
कैसी धरोहर हम सौंप रहे?
धर्म और शिक्षा में राजनीति
 संस्कार संक्रमण रोप रहे?

भाषाओं को पहनाकर धर्म 
अस्पृश्य बना रहे हो क्यों?
ढोंगी मानवता के रक्षक
हृदयों को बाँट रहे हो क्यों?
 समाज के स्वार्थी ठेकेदारों
क्यों विषधर खंजर घोप रहे?

आधुनिकता का भोंपू ताने
बेतुके तमाशे बेमतलब का शोर
बदलाव का क्यों भरते हैं दंभ
बाहर आ जाते मन के चोर
अपने आँगन के पौधों को
क्यों काँटों से हम तोप रहे?

मुस्तफ़ा खाँ 'मद्दाम' का 
समृद्ध उर्दू-हिंदी शब्दकोश
क्यों न हम रोक सके थे...?
'बुल्के' का रामकथा पर शोध
भाषा कल-कल बहता नीर
सरहदों में बाँध क्यों रोक रहे?

मत बनाओ नस्लों को
साम्प्रदायिकता का शिकार
संकीर्ण मनोवृत्तियों से पनपी
'कूपमंडूकता' है एक विकार
संस्कृति के नाम पर कैसी
रुग्ण मानसिकता थोप रहे?

जाने हम क्यों नहीं सोच रहे?

#श्वेता सिन्हा

Sunday, 17 November 2019

मैं भूल जाना चाहती हूँ



भुलक्कड़ रही सदा से
बचपन से ही
कभी याद न रख सकी
सहेज न सकी
कोई कड़ुवाहट
सखियों से झगड़ा
सगे या चचेरे-ममेरे
भाई बहनों से तीखी तकरार
हाथ-पाँव पर लगे
चोट पर लगा दिया करती थी
चुपचाप अपने आँसुओं का फ़ाहा
बिना किसी दर्द के शिकायत के
दादी-बुआ के तानों का
पास-पड़ोस के गप्प गोष्ठियों में
अपने रुप की तुलनात्मकता का
सहपाठियों के उपहास का
कोई शब्द याद नहीं
बदसूरती के तमगे को
हँसकर सहजता से स्वीकार किया
 तिरस्कार की खाद पर
उगाती रही मुस्कुराकर सदैव
खूबसूरत रिश्तों के फूल

उम्रभर
कभी बाँट न सकी
मन की व्यथा
भुलाती रही हमेशा
विषैले नश्तर
छीलकर मन की
कठोर परतों को
बोती रही कोमलता
जीवन के हर मोड़ पर
प्रक्षालित करती रही आत्मा
स्व का आकलन करती रही
 हर पड़ाव में
बाँटती रही खुशियाँ

पर फिर भी जाने कैसे
कुछ अटका रह गया 
जिसे चाहकर भी,
तमाम कोशिशों के बाद भी
भुला नहीं पाया मन
कुछ चुभाये गये दंश
सहजता से भूलने की आदत
कभी कोई नाम आते ही
सजग हो जाता है,
अस्फुट बड़बड़ाहट
अनवरत गूँजते हैं कानों में
मन की परतों को उधेड़ने लगते हैं,
बेकल छटपटाहट 
प्रार्थना करती है
हर वो शब्द मन से मिटाने का
जो लहुलुहान करता है,
एहसास होता है कि भूलना
कभी-कभी सरल नहीं होता...।

आजीवन सोचती रही
पर्याप्त होता है
पूर्ण समर्पित प्रेम होना
बिना किसी आशा के
आकांक्षारहित होकर
प्रेम के चरणों में
पवित्र मन के पुष्प अर्पित करने
भर से ही
प्रेम अबोले मन की भाषा के
अव्यक्त भाव पढ़कर
प्रतिदान स्वरूप "प्रेम" उड़ेल देगा
रिक्त झोली में
अपने भ्रम को सत्य की तरह
जीती रही
विश्वास और अतिभावुकता
के रेशे से गूँथती रही "नेह"....,
पर अब भूल जाना चाहती हूँ
दी हुई सिसकती निशानियाँ
पीड़ा और टूटे विश्वास की
सारी किर्चियाँ...

झाड़-पोंछकर स्वच्छ कर देना
चाहती हूँ 
अपने मन पर उगे काँटें
निकाल देना चाहती हूँ
कोमल और अबोध हृदय पर
पनपे नेह वृक्ष
जो सिर्फ़ प्रेम के लिये
मंगलकामनाएँँ करता है
उसे प्रतिदिन अंजुरीभर 
निःस्वार्थ भावजल से सींचना
चाहती हूँ...
किसी भी प्रतिदान
की अपेक्षा किये बगैर।

#श्वेता

Wednesday, 13 November 2019

इन खामोशियों में...


इन ख़ामोशियों में बड़ी बेक़रारी है,
ग़ुजरते लम्हों में ग़म कोई तारी है।

गुज़रता न था एक पल जिनका,
 अपनी परछाई भी उन पे भारी है।

हर्फ़ तर-ब-तर धुंधला गयी तस्वीर,
दिल में धड़कनों की जगह आरी है।

दुनियावी शोर से बेख़बर रात-दिन,
उनकी  आहट  की  इन्तज़ारी है।

हिज़्र के जाम पीकर भी झूम रहे,
अजब उनके चाहत की ख़ुमारी है।

हादसों का सफ़र खुशियों से ज्यादा,
कुछ इस तरह चल रही सवारी है।

ऐ ज़िंदगी! जी चुके जी-भर हम,
अब जश्न-ए-मौत तुम्हारी बारी है।

#श्वेता सिन्हा


मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...