Monday, 30 November 2020
Saturday, 28 November 2020
सीख क्यों न पाया?
सृष्टि के प्रारंभ से हीब्रह्मांड के कणों मेंघुली हुईनश्वर-अनश्वर कणों की संरचना के अनसुलझेगूढ़ रहस्यों की पहेलियों की अनदेखी करज्ञान-विज्ञान,तर्कों के हवाले सेमनुष्य सीख गयापरिवर्तित करनाकर्म एवं मानसिकता सुविधानुसारआवश्यकता एवंपरिस्थितियों काराग अलापकर।
भोर की तरहधूप का अंश होकर,बादल या आकाशकी तरह,चंदा-तारों की तरहरात और चाँदनी कीगवाही परजीवन का स्पंदनमहसूसनाकण-कण मेंदृश्य-अदृश्य रूप मेंसंलिप्त, खोकर अस्तित्व स्व कानिरंतर कर्मण्य, निर्लिप्त होनासृष्टि के रेशों में बंधीप्रकृति की तरह ...प्रकृति का सूक्ष्म अंशहै मानवफिर भी...सीख क्यों न पायाप्रकृति की तरहनिःस्वार्थ,निष्कलुष एवंनिष्काम होना?
#श्वेता
सृष्टि के प्रारंभ से ही
ब्रह्मांड के कणों में
घुली हुई
नश्वर-अनश्वर
कणों की संरचना के
अनसुलझे
गूढ़ रहस्यों की
पहेलियों की
अनदेखी कर
ज्ञान-विज्ञान,
तर्कों के हवाले से
मनुष्य सीख गया
परिवर्तित करना
कर्म एवं मानसिकता
सुविधानुसार
आवश्यकता एवं
परिस्थितियों का
राग अलापकर।
भोर की तरह
धूप का अंश होकर,
बादल या आकाश
की तरह,
चंदा-तारों की तरह
रात और चाँदनी की
गवाही पर
जीवन का स्पंदन
महसूसना
कण-कण में
दृश्य-अदृश्य रूप में
संलिप्त,
खोकर अस्तित्व
स्व का
निरंतर कर्मण्य,
निर्लिप्त होना
सृष्टि के रेशों में बंधी
प्रकृति की तरह ...
प्रकृति का सूक्ष्म अंश
है मानव
फिर भी...
सीख क्यों न पाया
प्रकृति की तरह
निःस्वार्थ,
निष्कलुष एवं
निष्काम होना?
#श्वेता
Thursday, 26 November 2020
डर
मुझे डर नहीं लगता
त्रासदी के घावों से
कराहती,ढुलमुलाती
चुपचाप निगलती
समय की
खौफ़नाक भूख से।
मुझे डर नहीं लगता
कफ़न लेकर
चल रही हवाओं के
दस्तक से खड़खड़ाते
साँकल के
भयावह पैगाम से।
मुझे डर नहीं लगता
आग को
उजाला समझकर
भ्रमित सुबह की
उम्मीद के लिए
टकटकी बाँधे
निरंतर जागती
जिजीविषा से।
मुझे डर नहीं लगता
क्योंकि
अंर्तमन को
अनसुना करना,
बात-बात पर चुप्पी साधना
मज़लूमों की सिसकियों को
परे धकियाना
जीने के लिए तटस्थ होना
सीख लिया है।
पर जाने क्यों
बहुत डर लग रहा है...
नफ़रत और उन्माद
का रस पीकर मतायी
लाल नरभक्षी चींटियों
के द्वारा
मानव बस्तियों की
घेराबंदी से।
✍️ श्वेता सिन्हा
Thursday, 5 November 2020
धर्म
(१)
कर्तव्य, सद् आचरण,अहिंसा
मानवता,दया,क्षमा
सत्य, न्याय जैसे
'धारण करने योग्य'
'धर्म' का शाब्दिक अर्थ
हिंदू या मुसलमान
कैसे हो सकता है?
विभिन्न सम्प्रदायों के समूह,
विचारधाराओं की विविधता
संकीर्ण मानसिकता वाले
शब्दार्थ से बदलकर
मानव को मनुष्यता का
पाठ भुलाकर
स्व के वृत में घेरनेवाला
'धर्म' कैसे हो सकता है?
कोमल शाखाओं के
पुल बनने की प्रक्रिया में
संक्रमित होकर
संवाद के विषाक्त जल में
गलकर विवाद के
दलदल में सहजता से
बिच्छू बन जाना
धर्म कैसे हो सकता है?
सभ्यता की
विकास यात्रा में
बर्बर होती संवेदना की
अनदेखी कर
उन्मादित शिलापट्टीय
परंपरा वहन करना
धर्म कैसे हो सकता है?
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(२)
धर्म की परिभाषा
गढ़ने की यात्रा में
शताब्दियों से सींची जा रही
रक्तपोषित नींव
अभेद्य दीवार खड़ी कर चुकी है
आदमी और आदमियत के मध्य।
और...
वाचाल कूपमंडूकों के
एडियों से कुचलकर
वध कर डाले गये
मानवीय गुणों के शव एवं
गर्दयुक्त दृष्टिकोण से प्रदूषित हो
तिल-तिल मरती
संभावनाओं की दुर्दशा पर
धर्म स्तब्ध है!!
#श्वेता
५नवंबर२०२०
Saturday, 31 October 2020
सोचती हूँ...
२७ जून २०१८ को आकाशवाणी जमशेदपुर के कार्यक्रम सुवर्ण रेखा में पहली बार एकल काव्य पाठ प्रसारित की गयी थी। जिसकी रिकार्डिंग २२ जून २०१८ को की गयी थी।
बहुत रोमांचक और सुखद अवसर था। अति उत्साहित महसूस कर रही थी,
मानो कुछ बहुमूल्य प्राप्त हो गया हो
उसी कार्यक्रम में मेरे द्वारा पढ़ी गयी
एक कविता
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सोचती हूँ..
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बित्तेभर विचारों का पुलिंदा और
एक पुलकती क़लम लेकर
सोचने लगी थी
लिखकर पन्नों पर
क्रांति ला सकती हूँ युगान्तकारी
पलट सकती हूँ
मनुष्य के मन के भाव
प्रकृति को प्रेमी-सा आलिंगन कर
जगा सकती हूँ
बोझिल हवा,
सिसकते फूल,
घायल वन,
दुहाते पहाड़ों और
रोती नदियों के प्रति संवेदना
पर,
सहृदयताओं की कविताएँ लिखने पर भी तो
न मिटा सकी मैं
निर्धन की भूख
अशिक्षा का अंधकार
मनुष्य की पाश्विकता
मन की अज्ञानता
ईष्या-द्वेष,लोलुपता
नारियों का अभिशाप
हाँ शायद...
कविताओं को पढ़ने से
परिवर्तित नहीं होता अंतर्मन
विचारों का अभेद्य कवच
कुछ पल शब्दों के
ओज से प्रकाशित होती है
विचारों की दीप्ति
चंद्रमा की तरह
सूर्य की उधार ली गयी रोशनी-सी
फिर आहिस्ता-आहिस्ता
घटकर लुप्त हो जाती है
अमावस की तरह
सोचती हूँ...
श्वेत पन्नों को काले रंगना छोड़
फेंक कर कलम थामनी होगी मशाल
जलानी होगी आस की आग
जिसके प्रकाश में
मिटा सकूँ नाउम्मीदी और
कुरीतियों के अंधकार
काट सकूँ बेड़ियाँ
साम्प्रदायिकता की साँकल में
जकड़ी असहाय समाज की
लौटा पाऊँ मुस्कान
रोते-बिलखते बचपन को
काश!मैं ला पाऊँ सूरज को
खींचकर आसमां से
और भर सकूँ मुट्ठीभर उजाला
धरा के किसी स्याह कोने में।
--श्वेता सिन्हा
Saturday, 18 July 2020
तुम्हारे जन्मदिन पर
मैं नहीं सुनाना चाहती तुम्हें
दादी-नानी ,पुरखिन या समकालीन
स्त्रियों की कुंठाओं की कहानियां,
गर्भ में मार डाली गयी
भ्रूणों की सिसकियाँ
स्त्रियों के प्रति असम्मानजनक व्यवहार
समाज के दृष्टिकोण में
स्त्री-पुरूष का तुलनात्मक
मापदंड।
मैं नहीं भरना चाहती
तुम्हारे हृदय में
जाति,धर्म का पाखंड
आडंबरयुक्त परंपराओं की
कलुषिता
घृणा,द्वेष,ईष्या जैसे
मानवीय अवगुण
एवं अन्य
सामाजिक विद्रूपताएं।
मैं बाँधना चाहती हूँ तुम्हारी
नाजुक उम्र की सपनीली
ओढ़नी में...
अंधेरे के कोर पर
मुस्काती भोर की सुनहरी
किरणों का गुच्छा,
सुवासित हवाओं का झकोरा,
कुछ खूशबू से भरे फूलों के बाग
नभ का सबसे सुरक्षित टुकड़ा,
बादलों एवं सघन पेड़ों की छाँव,
चिड़ियों की मासूम,
बेपरवाह किलकारियाँ,
मुट्ठीभर सितारे,
सकोरा भर चाँदनी,
चाँद का सिरहाना,
सारंगी की धुन में झूमते
थार के ऊँट और
बाँधनी के खिले रंग,
समुंदर की लहरों का संयम
शंख और सीपियाँ
प्रकृति के शाश्वत उपहारों
से रंगना चाहती हूँ
तुम्हारे कच्चे सपनों के कोरे पृष्ठ
ताकि तुम्हारा कोमल हृदय
बिना आघात समझ सके
जीवन सुंदरता,कोमलता और
विस्मयकारी विसंगतियों से युक्त
गूढ़ जटिलताओं का मिश्रण है।
भौतिक सुख-सुविधाओं से
समृद्ध कर तुम्हें
सुखद कल्पनाओं का हिंडोला
दे तो सकती हूँ
किंतु मैं देना चाहती हूँ
सामान्य व्यवहारिक प्रश्न पत्र
जिसे सुलझाते समय
तुम जान सको
रिश्तों का गझिन गणित
यथार्थ के मेल
की रासायनिक प्रतिक्रियाएँ
की रासायनिक प्रतिक्रियाएँ
भावनाओं का भौतिकीय परिवर्तन
स्नेह के काव्यात्मक छंद
तर्क के आधार पर
विकसित कर सको
सारे अनुभव जो तुम्हारी
क्षमताओं को सुदृढ कर
संघर्षों से जूझने के
योग्य बनाये।
सुनो बिटुआ,
सदैव की तरह
आज भी मैं दे न पायी तुम्हें
तुम्हारे जन्मदिन पर
कोई भी ऐसा उपहार
जो मेरा हृदय संतोष से भर सके
किंतु मुझे विश्वास है मैंने जो
बीज रोपे हैं तुम्हारे मन की
उर्वर क्यारी में उसपर
फूटेंग मानवीय गुणों के
पराग से लिपटे
फूटेंग मानवीय गुणों के
पराग से लिपटे
सुवासित पुष्प,
मेरे आशीष
मेरे अंतर्मन की
मेरे अंतर्मन की
शुभ प्रार्थनाओं और
कर्म की ज्योति
प्रतिबिंबित होकर
पथ-प्रदर्शक बनकर
आजीवन तुम्हारे
साथ रहेंगे।
©श्वेता सिन्हा
१८जुलाई२०२०
Wednesday, 15 July 2020
नैतिकता
उज्जवल चरित्र उदाहरणार्थ
जिन्हें लगाया गया था
सजावटी पुतलों की भाँति
पारदर्शी दीवारों के भीतर
लोगों के संपर्क से दूर
प्रदर्शनी में
पुरखों की बेशकीमती धरोहर की तरह,
ताकि ,विश्वास और श्रद्धा से नत रहे शीश,
किंतु सत्य की आँच से
दरके भारी शीशों से
बड़े-बड़े बुलबुले स्वार्थपरता के
ईमान के लचीलेपन पर
अट्टहास कर
कर्म की दुर्बलता का
प्रमाण देने लगे।
असंतोष और विरोध,
प्रश्नों के बौछारों से
बौखलाकर,
आँखों से दूर सँकरे कोने में
स्थानांतरित कर दी गयी
चौराहे पर लगी
शिकायत पेटी
और...
और...
एक हवन कुंड बना दिया गया
लोककल्याणकारी
पवित्र यज्ञ का हवाला देकर
आह्वान कर
सुखद स्वप्नों के
कुछ तर्कशील मंत्र पढ़े गये
किंतु
नवीन कुछ नहीं था
समिधाएँ बनी एक बार फिर
नैतिकता।
चुपचाप रहकर
अपने मंतव्यों के पतंग
कल्पनाओं के आसमान में ही
उड़ाना सुरक्षित है,
मनोनुकूल परिस्थितियाँ
बताने वाली
समयानुकूल घड़ियाँ
प्रचलन में हैं आजकल
चुप्पियों की मुर्दा कलाईयों में
बँधी सूईयों की टिक-टिक
ईनाम है
निर्वासित आत्मा की
समझदार देह के लिए।
#श्वेता सिन्हा
१५ जुलाई२०२०
१५ जुलाई२०२०
Sunday, 12 July 2020
शांति
विश्व की प्राचीन
एवं आधुनिक सभ्यताओं,
पुरातन एवं नवीन धर्मग्रंथों में,
पिछले हज़ारों वर्षों के
इतिहास की किताबों में,
पिरामिड,मीनारों,कब्रों,
पुरातात्त्विक अवशेषों
के साक्ष्यों में,
मानवता और धर्म की
स्थापना के लिए,
कभी वर्चस्व और
अनाधिकार आधिपत्य की
क्षुधा तृप्ति के लिए,
किये गये संहार एवं
युद्धों के विवरण से रंगे
रक्तिम पृष्ठों में
श्लोको, ऋचाओं,
प्रेरणादायक उद्धरणों
उपदेशों के सार में
जहाँ भी शांति
का उल्लेख था
लगा दिया गया
'बुकमार्क'
ताकि शांति की महत्ता की
अमृत सूक्तियाँ
आत्मसात कर सके पीढ़ियाँ।
किंतु,
वीर,पराक्रमी और
शौर्यवान देवतुल्य
विजेताओं का महिमामंडन
हिंसा-प्रतिहिंसा की कहानियाँ
प्रेम और शांति से ज्यादा आप्लावित हुई।
दुनियाभर के महानायकों के
ओजस्वी विचारों में
सम्मोहक कल्पनाओं में
'शांति' का अनुवाद
अपनी भाषा और
अपने शब्दों में परिभाषित
करने का प्रयास,
कर्म में स्थान न देकर
दैवीय और पूजनीय कहकर
यथार्थ जीवन से अदृश्य कर दिया गया।
अलौकिक रूप से विद्यमान
प्रकृति के सार तत्वों की तरह
शांति शब्द
सत्ताधीशों के समृद्ध शब्दकोश में
'हाइलाइटर' की तरह है
जिसका प्रयोग समय-समय पर
बौद्धिक समीकरणों में
उत्प्रेरक की तरह
किया जाता है अब।
©श्वेता सिन्हा
१२ जुलाई २०२०
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मैं से मोक्ष...बुद्ध
मैं नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता मेरा हृदयपरिवर...