Saturday, 12 December 2020

पहले जैसा


कोहरे की रजाई में
लिपटा दिसंबर,
जमते पहाड़ों पर
सर्दियाँ तो हैं
पर, पहले जैसी नहीं...।

कोयल की पुकार पर
उतरता है बसंत 
आम की फुनगी से
मनचले भौंरे महुआ पीकर
फूलों को छेड़ते तो हैं
पर, पहले जैसा नहीं...।

पसीने से लथपथ,
धूप से झुलसता बदन
गुलमोहर की छाँव देख
सुकून पाता तो है
पर,पहले जैसा नहीं...।

घुमड़ते बादलों की धुन पर
मोर नाचते हैं
बूँदों का अमृत चक्ख
बीज अँखुआते हैं
बारिशें लुभाती तो हैं 
पर, पहले जैसी नहीं...।

मौसम बदलते  हैं
कैंलेडर की तिथियों के साथ
सर्दी, गर्मी,बारिश बसंत,पतझड़
वर्ष उतरते हैं समय की रथ से
धरती का शृंगार करने
स्मृतियों में कैद ऋतुएँ
पर कभी लौटकर
पहले जैसा नहीं आती,

बचपन,यौवन,प्रौढ़,बुढ़ापा
तन के साथ-साथ
मन की भावनाओं का आलोड़न
महसूस तो होता है,
पर स्मृतियों में कैद पल
भींच लेते हैं सम्मोहन में
फिर, उलझा मन लौटता है  
स्मृतियों के परों से वापस
असंतोष वर्तमान का
कानों में फुसफुसाता है
ज़िंदगी चल तो रही है
पर, पहले जैसी नहीं...।

पल-पल बदलते परिदृश्यों में
बीते हुए खूबसूरत क्षणों को
 फिर से उसी प्रकार जी लेने की
उत्कट तृष्णा 
अतृप्ति से स्मृतियों की गुफा में 
मुड़-मुड़कर देखती है
'पहले जैसा' की अभिलाषा में
साथ चलते पलों की अनदेखी से
उदासी और दुःख में डूब
जाती हैं उम्मीदें,
'परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है'
सोदाहरण 
जानता,समझता तो है मन
पर जाने क्यों
आत्मसात कर सत्य
'पहले जैसा' के जाल से
मुक्त क्यों न हो पाता है?

©श्वेता सिन्हा




 

Wednesday, 9 December 2020

लय मन के स्फुरण की

पकड़ती हूँ कसकर 
उम्र की उंगलियों में
और फेंक देती हूँ 
गहरे समंदर में 
ज़िंदगी के 
जाल एक खाली 
इच्छाओं से बुनी..
तलाश में
कुछ खुशियों की।

भारी हुई-सी जाल 
 निकालती हूँ जब 
उत्सुकतावश,
आह्लाद से भर  
अक़्सर जाने क्योंकर
फिसल जाती हैं 
सारी खुशियाँ।
और .. रह जाती हैं
अटकी हथेलियों में  
दुःख में डूबी 
सच्चाईयों की
चंद किलसती मछलियाँ।

स्मृतियाँ तड़पती आँखों, 
व फूलती साँसों की 
छप-सी जाती हैं
मासूम हृदय पर।
यातना के धीपाये हुए 
सलाखों के
गहरे उदास निशां में
ठहर जाती है लय
मन के स्फुरण की।

#श्वेता सिन्हा


Sunday, 6 December 2020

किसान


चित्र: मनस्वी प्रांजल

धान ,गेहूँ,दलहन,तिलहन
कपास के फसलों के लिए
बीज की गुणवत्ता
उचित तापमान,पानी की माप
मिट्टी के प्रकार,खाद की मात्रा
निराई,गुड़ाई या कटाई का
सही समय
मौसम और मानसून का प्रभाव
भूगोल की किताब में
पढ़ा था मैंने भी
पर गमलों में पनपते
बोनसाई की तरह जीने की
विवशता ने
सीमित कर दिया
अर्जित ज्ञान। 

मौसम की बेरुख़ी
साहूकार,
भूख, मँहगाई,
अनवरत, अनगिनत
साज़िशों से
रात-दिन लड़ते 
आत्मसम्मान गिरवी रखते
अन्नदाताओं की
अनगिनत कहानियाँ
पढ़-सुनकर निकली
आह!! 
प्रेम कथाओं से अटी
किताब की अलमारी में
नीचे दबती गयी...
तिलिस्मी, कल्पनाओं में
विचरती
अहसास की तितलियाँ
ज्यादा सुखद लगी।

आज़ादी के बाद
अनगिनत सरकारी
योजनाओं की घोषणाओं
के पश्चात भी
कृषि और कृषकों की
दयनीय दशा की तस्वीर
'बैल से ट्रैक्टर'
'साहूकार से बैंक'
मात्र इतनी ही बदली, 
मजबूर कृषकों की
मज़दूरी की विवशता,
आत्महत्या की संख्या में बढ़ोतरी,
खेतीहर भूमि पर पनपते 
विषैला धुँआ उगलते उद्योग,
बिचौलियों और पूंजीपतियों का
बढ़ता वर्चस्व
संज्ञाशून्य होकर
पढ़ती रही,देखती रही... 
देश के विकास के
कानफोड़ू नारों से
 भावनाएँ पथराकर
तटस्थता में परिवर्तित होकर
वैचारिकी उर्वरता सोख़ चुकी थी।

बदलते परिदृश्य में
अनाज़ की पोटली बाँधे
हक़ की बात पर
लाव-लश्कर के साथ
गाँव से राजधानी की ओर
कूच करते कुछ खास
प्रदेशों के समृद्ध अन्नदाता 
संगठित,ओजपूर्ण
जोशीले, जिद्दी और
सजग हैं, उनके तेवर
हाशिये पर पड़े प्रदेशों के
मरियल, मिमियाते
हालात की पहेलियों में
उलझे गरीब,मजबूर किसानों से
बिल्कुल नहीं मिलते
 एक भिन्न रूप,
सशक्त क्रांतिकारी चिंगारी
का प्रतिनिधित्व करते
अन्नदाताओं ने
बरसों से ज़मा की गयी
अत्याचार,रोष और असंतोष
से पीड़ित,शोषित ,
माटी में दफ़न इतिहास,
पुरखों के सम्मान से रिसते घावों
को पोंछकर,
कराहती आत्माओं का
प्रतिशोध लेने की ठानी है,
सारी नीतियों, रणनीतियों
का चक्रव्यूह ध्वस्तकर
ऋणमुक्त करने का
संकल्प लिया है
पूरे अधिकार से
छीनकर अपने हिस्से
की रोटियाँ,
भर-भरकर मुट्ठियों से बीज़
खलिहानों में बिखेरकर
वो सींचना चाहते हैं  
स्वस्थ अंकुरण की नयी खेप
और उगाना चाहते हैं 
न सपनें नहीं,
यथार्थ में सोना,हीरा और मोती,
अपने लिए
अपने ख़ातिर,अपनों के
सुरक्षित भविष्य की
ख़ुशहाली के लिए।

हाँ, मैं किसान नहीं हूँ
नहीं समझ सकती उनके संघर्ष,
दुरूहता या जीवटता, 
परिस्थितियों के आधार पर
अव्यवहारिक रूप से
मैंने पढ़ी और समझी है किसानी
पर फिर भी
मुझे बहुत फ़र्क़ पड़ता है
किसानों की गतिविधियों से
अपने-अपने
कर्मपथ के जुझारू पथिक
हैं हम दोनों ...  
देश का पेट भरने वाले
 किसानों की
बिरादरी से नहीं हूँ मैं
पर महसूस करती हूँ
मुझमें और उनमें है तो
अन्योन्याश्रित संबंध।

©श्वेता सिन्हा








Monday, 30 November 2020

चाँद

ठिठुरती रात,
झरती ओस की
चुनरी लपेटे
खटखटा रही है
बंद द्वार का
साँकल।


साँझ से ही
छत की अलगनी
से टँगा
झाँक रहा है
शीशे के झरोखे से
उदास चाँद
तन्हाई का दुशाला 
ओढ़े।


नभ के
नील आँचल से
छुप-छुपकर
झाँकता 
आँखों की
ख़्वाबभरी अधखुली
कटोरियों की
सारी अनकही चिट्ठियों की 
स्याही पीकर बौराया
बूँद-बूँद टपकता
मन के उजले पन्नों पर
धनक एहसास की 
कविताएँ रचता
 चाँद।


शांत झील की 
गोद में लहराती
चाँदनी की लटें,
पहाड़ी की बाहों में बेसुध
बादलों की टोलियाँ
वृक्षों की शाखों पर
उनींदे पक्षियों की 
सरसराहटें
हवाओं की धीमी
फुसफुसाहटें
और...
ठंड़ी रात की नीरवता के
हरपल में 
चाँद के मद्धिम
आँच में धीमे-धीमे
खदबदाती
कच्चे रंगों में
स्वप्नों की 
बेरंग चुन्नियाँ  ...।


#श्वेता सिन्हा
 
 

Saturday, 28 November 2020

सीख क्यों न पाया?

सृष्टि के प्रारंभ से ही
ब्रह्मांड के कणों में
घुली हुई
नश्वर-अनश्वर 
कणों की संरचना के 
अनसुलझे
गूढ़ रहस्यों की
 पहेलियों की 
 अनदेखी कर
ज्ञान-विज्ञान,
तर्कों के हवाले से
मनुष्य सीख गया
परिवर्तित करना
कर्म एवं मानसिकता 
सुविधानुसार
आवश्यकता एवं
परिस्थितियों का
राग अलापकर।

भोर की तरह
धूप का अंश होकर,
बादल या आकाश
की तरह,
चंदा-तारों की तरह
रात और चाँदनी की
गवाही पर
जीवन का स्पंदन
महसूसना
कण-कण में
दृश्य-अदृश्य रूप में
संलिप्त, 
खोकर अस्तित्व 
स्व का
निरंतर कर्मण्य,
 निर्लिप्त होना
सृष्टि के रेशों में बंधी
प्रकृति की तरह ...
प्रकृति का सूक्ष्म अंश
है मानव
फिर भी...
सीख क्यों न पाया
प्रकृति की तरह
निःस्वार्थ,
निष्कलुष एवं
निष्काम होना?

#श्वेता


Thursday, 26 November 2020

डर

मुझे डर नहीं लगता
त्रासदी के घावों से
कराहती,ढुलमुलाती
चुपचाप निगलती
समय की
खौफ़नाक भूख से।


मुझे डर नहीं लगता
कफ़न लेकर
चल रही हवाओं के
दस्तक से खड़खड़ाते
साँकल के
भयावह पैगाम से।


मुझे डर नहीं लगता
आग को
उजाला समझकर
भ्रमित सुबह की
उम्मीद के लिए 
टकटकी बाँधे
निरंतर जागती 
जिजीविषा से।


मुझे डर नहीं लगता
क्योंकि 
अंर्तमन को
अनसुना करना,
बात-बात पर चुप्पी साधना
मज़लूमों की सिसकियों को
परे धकियाना
जीने के लिए तटस्थ होना
सीख लिया है।


पर जाने क्यों
बहुत डर लग रहा है...
नफ़रत और उन्माद
का रस पीकर मतायी
लाल नरभक्षी चींटियों
के द्वारा
मानव बस्तियों की
घेराबंदी से।

✍️ श्वेता सिन्हा



Thursday, 5 November 2020

धर्म


(१)

कर्तव्य, सद् आचरण,अहिंसा
मानवता,दया,क्षमा
सत्य, न्याय जैसे

'धारण करने योग्य'
'धर्म' का शाब्दिक अर्थ
हिंदू या मुसलमान 
कैसे हो सकता है?


विभिन्न सम्प्रदायों के समूह,
विचारधाराओं की विविधता
संकीर्ण मानसिकता वाले
 शब्दार्थ से बदलकर
मानव को मनुष्यता का 
पाठ भुलाकर
 स्व के वृत में घेरनेवाला
'धर्म' कैसे हो सकता है?


कोमल शाखाओं के
पुल बनने की प्रक्रिया में 
संक्रमित होकर
संवाद के विषाक्त जल में 
गलकर विवाद के
दलदल में सहजता से
बिच्छू बन जाना
धर्म कैसे हो सकता है?


सभ्यता की
विकास यात्रा में
 बर्बर होती संवेदना की
 अनदेखी कर
 उन्मादित शिलापट्टीय 
परंपरा वहन करना
धर्म कैसे हो सकता है?


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(२)

धर्म की परिभाषा
गढ़ने की यात्रा में
शताब्दियों से सींची जा रही
रक्तपोषित नींव 
अभेद्य दीवार खड़ी कर चुकी है
आदमी और आदमियत के मध्य।
और...
वाचाल कूपमंडूकों के 
एडियों से कुचलकर
वध कर डाले गये
मानवीय गुणों के शव एवं
गर्दयुक्त दृष्टिकोण से प्रदूषित हो
तिल-तिल मरती
संभावनाओं की दुर्दशा पर
 धर्म स्तब्ध है!!


#श्वेता
५नवंबर२०२०

Saturday, 31 October 2020

सोचती हूँ...

 
२७ जून २०१८ को आकाशवाणी जमशेदपुर के कार्यक्रम सुवर्ण रेखा में पहली बार  एकल काव्य पाठ प्रसारित की गयी थी। जिसकी रिकार्डिंग २२ जून २०१८ को की गयी थी।
 बहुत रोमांचक और सुखद अवसर था। अति उत्साहित महसूस कर रही थी,
मानो कुछ बहुमूल्य प्राप्त हो गया हो
उसी कार्यक्रम में मेरे द्वारा पढ़ी गयी
 एक कविता 
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सोचती हूँ..
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बित्तेभर विचारों का पुलिंदा और 
एक पुलकती क़लम लेकर
सोचने लगी थी
लिखकर पन्नों पर 
क्रांति ला सकती हूँ युगान्तकारी
पलट सकती हूँ
मनुष्य के मन के भाव
प्रकृति को प्रेमी-सा आलिंगन कर
जगा सकती हूँ 
बोझिल हवा,
सिसकते फूल,
घायल वन,
दुहाते पहाड़ों और
रोती नदियों के प्रति संवेदना
पर,
सहृदयताओं की कविताएँ लिखने पर भी तो
न मिटा सकी मैं
निर्धन की भूख
अशिक्षा का अंधकार
मनुष्य की पाश्विकता
मन की अज्ञानता
ईष्या-द्वेष,लोलुपता
नारियों का अभिशाप
हाँ शायद...
कविताओं को पढ़ने से
परिवर्तित नहीं होता अंतर्मन 
विचारों का अभेद्य कवच
कुछ पल शब्दों के 
ओज से प्रकाशित होती है
विचारों की दीप्ति
चंद्रमा की तरह
सूर्य की उधार ली गयी रोशनी-सी
फिर आहिस्ता-आहिस्ता 
घटकर लुप्त हो जाती है
अमावस की तरह

सोचती हूँ...
श्वेत पन्नों को काले रंगना छोड़
फेंक कर कलम थामनी होगी मशाल
जलानी होगी आस की आग 
जिसके प्रकाश में
मिटा सकूँ नाउम्मीदी और
कुरीतियों के अंधकार
काट सकूँ बेड़ियाँ 
साम्प्रदायिकता की साँकल में
जकड़ी असहाय समाज की
लौटा पाऊँ मुस्कान
रोते-बिलखते बचपन को
काश!मैं ला पाऊँ सूरज को 
खींचकर आसमां से
और भर सकूँ मुट्ठीभर उजाला
धरा के किसी स्याह कोने में।

--श्वेता सिन्हा

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...