Saturday, 7 October 2017

तेरा साथ प्रिय

जीवन सिंधु की स्वाति बूँद
तुम चिरजीवी मैं क्षणभंगुर,
इस देह से परे मन बंधन में
मादक कुसुमित तेरा साथ प्रिय।

पल पल स्पंदित सम्मोहन
दृग छू ले तो होती सिहरन,
विह्वल उर की व्याकुलता
अंतस तृप्ति तेरा साथ प्रिय।

अव्यक्त व्यक्त भावों का गीत
विस्मृत स्वप्नों के तुम मनमीत,
कंटक से भरे जीवन पथ पर
मृदु मोरपंखी तेरा साथ प्रिय।

स्वर्ण मृग जग छलती माया में
क्षण क्षण मिटती इस काया में,
निशि कानन के विस्तृत अंचल 
रवि किरणों सा तेरा साथ प्रिय।

    श्वेता🍁



Wednesday, 4 October 2017

आँख के आँसू छुपाकर


आँख के आँसू छुपाकर
मीठी नदी की धार लिखना,
घोंटकर के रूदन कंठ में
खुशियों का ही सार लिखना।

सूखते सपनों के बिचड़े
रोपकर मुस्कान लिखना,
लूटते अस्मत को ढककर
बातों के आख्यान लिखना,
बुझ गये चूल्हों पर लोटते
बदन के अंगार लिखना।

कब्र बने खेतों की माटी में
लहलहाते फसल लिखना,
कटते वन पेड़ों के ठूँठों पर
खिलखिलाती गज़ल लिखना,
वनपखेरू बींधते आखेटकों का
प्रकृति से अभिसार लिखना।

दूधमुँहों से छीनी क्षीर पर
दान,गर्व का स्पर्श लिखना,
लथपथे जिस्मों के खूं पर
राष्ट्र का उत्कर्ष लिखना,
गोलियों से छलनी बदन पर
रूपयों की बौछार लिखना।

देशभक्त कहलवाना है तो
न कोई तुम अधिकार लिखना,
न भूलकर लिखना दर्द तुम
न वोटों का व्यापार लिखना,
फटे जेब में सपने भरे हो
उस देश का त्योहार लिखना।

      #श्वेता🍁

Tuesday, 3 October 2017

एक थी सोमवारी

चित्र साभार गूगल

सुबह सुबह अलार्म की आवाज़ सुनकर अलसायी मैं मन ही मन बड़बड़ायी उठ कर बैठ गयी।
ऊँघती जम्हाईयाँ लेती अधमूँदी आँखों से बेडरूम से किचन तक पहुँच गयी लाईट ऑन कर पीने का पानी गर्म करते सोचने लगी आज सत्तू के पराठें बना लेती हूँ दोनों पापा बेटी को बहुत पसंद बिना नानुकुर किये टिफिन ले जायेगे।

अचानक बाहर से आती ऊँची आवाज़ो ने उसे चौंका दिया।
सोचती इतनी सुबह कौन हल्ला कर रहा बाहर गैस ऑफ कर बाहर बालकनी में आ गयी । सामने बन रहे अर्धनिर्मित इमारत के सामने भीड़ जमा थी।एक पुलिस जीप खड़ी थी कुछ पुलिस वाले भी थे।

क्या हुआ होगा?

उत्सुकता से आस पास देखने लगी कोई दिखे तो पूछूँ आखिर हुआ क्या ??

देखा तो पड़ोस की मिसेज त्रिपाठी भी अपनी बालकनी में नज़र आई ।
उनसे पूछा तो पता चला आज सुबह कोई लड़की नदी में बह गयी ।मैनें नाम पूछा तो बोली वही लड़की जो रहती थी यहाँ।

'सोमवारी! मैं स्तब्ध रह गयी, कुछ भी नहीं पूछा और चुपचाप अंदर आकर दैनिक काम निपटाने लगी। यंत्रवत हाथ चल रहे थे,और दिमाग उलझकर रह गया सोमवारी में।आखिर में यही होना था क्या उसका अंजाम।खुद के सवालों में उलझी रही।
अनमनी सी दोनो पापा बेटी को जगाया , उनके स्कूल और ऑफिस जाने के बाद निढाल सी आँखें बंद कर लेट गयी।
सिवा सोमवारी के और कोई ख्याल कैसे आते।

पिछले साल नवम्बर में मेरी बिल्डिंग के सामने वाली खाली जमीन पर किसी बिल्डर ने फ्लैट बनवाना शुरु किया था। खाली जमीन पर अब दिनभर मजदूरों की उठापटक , छेनी हथौड़ी की धम धड़ाम सो -सो ,सी सी,मशीनों की आवाजें गूँजने लगी थी। सुबह आठ बजे से से शाम के पाँच बजे तक मेला लगा रहता ,शुरु शुरु उत्सुकतावश खुले छत की लोहे की रेलिंग पकड़े बच्चों की तरह घंटों खडे होकर उन मज़दूरों की गतिविधि देखती रहती थी , सुबह सबके जाने के बाद घर के सारे काम निबटाकर छत पर चेयर डालकर गुनगुनी धूप में कोई किताब लेकर बैठती तो सारा ध्यान ईट गारे से जुड़ती बनती इमारत पर रहता था। अब इमारत की नींव पड़ चुकी थी खूब सारे मजबूत खंभों पर पहली फ्लोर के लिए छत की ढलाई हुये दो सप्ताह बीते होगे।

जाड़ो में अंधेरा जल्दी घिरने लगता है, एक शाम छत से कपड़े उठा रही थी, नज़र आदतन सामने वाली अर्द्धनिर्मित इमारत पर चली गयी, इमारत के कोने मे एक बड़ा सा पानी का हौजा था जिसको हर सुबह बगल के घर से पाईप द्वारा भर दिया जाता था, दिनभर इसी से मज़दूर पानी निकालकर काम करते रहते थे।शाम को पाँच बजे छुट्टी के समय सब मजदूर और रेजा औरतें यही मुँह हाथ पैर धोते फिर कंघी चोटी कर टिपटॉप हो अपने घर चले जाते।

उसी हौजे के की दीवार की ओट लिये एक लड़की छाती तक पेटीकोट बाँधे प्लास्टिक की मग से तल्लीनता एक बाल्टी में पानी भर रही थी।मुझे आश्चर्य हुआ शाम घिर रही थी सब तो चले गये ये कौन है??

 दो चार मिनट के बाद उस लड़की का ध्यान मुझपर गया एक पल को वो रूकी और दूसरे पल आधी भरी बाल्टी लिये झट से नीचे बैठ गयी।उसकी ऐसी हरकत पर मुझे हँसी आ गयी। मौसम की  सिहरन महसूस होने लगी मैं अंदर आ गयी ।

दूसरे दिन सुबह सुबह छ: बजे नहा कर पूजा के लिए गमलों से फूल तोड़ने छत पर गयी तो देखा सामने वाली
इमारत के एक कोने में ईंटों को जोड़कर लकड़ी डालकर चूल्हा सुलगाया गया था जिसपर बड़ा सा पतीला चढ़ा था, वही लड़की मटमैले पीले फूल वाली नाईटी उसपर एक चमकीला हरे रंग शॉल ओढ़े सिर झुकाये सूप में चावल बीन रही थी और एक आदमी जो कि उस लड़की से लगभग दूनी उमर का था ,थोड़ी ही दूर पर गमछा बाँधे गंदला सा गाजरी रंग का स्वेटर पहने आधा लेटा सा बीड़ी पी रहा था। मैं अनुमान लगाया कि ये शायद मजदूर होगे। बिल्डर ने रखा होगा इन्हें।

वैसे तो उस बिल्डिंग एक एक ही हिस्सा दिखता था मुझे पर नये लोगों को जानने की उत्कंठा में दो दिन में ही उनदोंनों की सारी दिनचर्या मुझे याद हो गयी ।मेरे जगने के पहले ही वो लड़की उठ जाती होगी , खर खर करती झाड़ू की आवाज़ मुँह अँधेरे ही सुनाई पड़ती थी।इमारत के नीचे वाले हिस्से एक कोने में चटाई को आड़ा तिरछा घेर कर हवाओं से बचने के लिए ईंट जोड़कर चूल्हे जलाती , बड़े पतीले में भरकर चावल और साथ में कोई सब्जी बनाती, फिर सारा खाना ऊपर तल के कोने में रख देती, वो आदमी जो शायद उसका पति होगा उसको बड़े कटोरे में खाना परोसती वो खा लेता और चला जाता तो कटोरा धोकर वो भी खाती। फिर दिनभर ईटों को ढोती, सिर पर  एक बार में बारह ईंटें रखकर क्या गज़ब चलती।

दिन भर हाड़ तोड़ मेहनत के बाद शाम को नहाकर फिर भात पकाती, रात के समय उस आधे बने इमारत के एक कोने में टिमटिमाती मद्धिम पीली रोशनी जब बंद हो जाती तो आस पास की इमारतों से आ रही परछाई में देखा मैंने
उसका पति देर शाम पीकर लुढ़क जाता और वो चुपचाप उसके बलिष्ठ शरीर को नाजुक कंधे और मजबूत हाथों का सहारा देकर लड़खड़ाती हुयी सी चारपाई पर लिटा देती।फिर अपना चटाई बिछाकर बन रहे इमारत के मुंडेर विहीन कोने पर बैठ जाती , बहुत उदास सी कभी कभी परछाई रोती सी लगती, शरीर हिलता दिखता,घुटनों पर सिर झुकाये वो हिलक हिलक के रोती होगी । ऐसे देखकर उसे मन भर आता। उनके क्रियाकलाप के दौरान ध्यान देने योग्य यही था कि वो लड़की और उसके पति के बीच कोई बात नहीं होती, सब कुछ यंत्रचालित सा हो रहा हो जैसे।

एक सप्ताह के बाद मुझे मौका मिला उससे पहली बार रूबरू होने का ।मैं बाज़ार से लौट रही थी, वो शायद कुछ लेने गयी थी मुहल्ले के राशन दुकान से, हमदोंनों ही एक दूसरे को  देखकर ठिठक गये। पहली बार सामने से देखा उसे ताबंई रंग दो बड़ी बड़ी उदास आँखें जो बरबस ध्यान खींच रही थी घुँघराले बालों की कमर तक चोटी, थोड़े से लटके मोटे होठों पर फीकी मुस्कान ,सुंदर संतुलित शारीरिक गठन , झोलदार मटमैली पीले काले फूल वाली नाईटी पहने थी , गहने के नाम काला धागा में गूँथा गया चाँदी के रंग का एक रूपये के सिक्के जैसा कुछ था और एडियों से थोड़ी ऊपर नाईटी के झालर के नीचे चाँदी का ही पतला कड़ा पहने थी। उमर बीस बाईस साल से ज्यादा नहीं थी।

मैने ही बातों का सिरा सँभाला ज्यादा उसे चुपचाप देखकर , जैसे उसे बात करना आता ही नहीं मैंने कहा कल शाम आना घर ,तुमने देखा है न उस बिल्डिंग में चौथे माले पर ।
छोटे बच्चों सा सिर हिलाकर वो तेजी से भाग गयी।
दूसरे दिन शाम को आयी वो मेरे ड्राईग में अंदर आने से झिझक रही थी, मैंने हाथ पकड़कर अंदर खींचा उसे। वो सहमी सी सकुचायी सी गोल गोल आँखों से मेरे ड्राईग रूम को देख रही थी । मैं चाय बना लाई और साथ में बिस्किट भी वो न न करती रही पर मैंने साग्रह उसे थमा दिया , इधर उधर की बातें करते थोड़ी देर में वो सहज लगने लगी।

उसने बताया "उसके माँ बाप बचपन में मर गये उसके रिश्ते के चाचा और चाची ने पाला पोसा , पढ़ना लिखना नहीं आता , बचपन घर और खेत खलिहानों में खटते बीता पन्द्रह साल की उमर में गाँव के एक आदमी से ब्याह दी गयी। वो आदमी जो उसका पति है , उसकी  पहली बीबी मर गयी थी , चाचा ने उससे कर्जा लिया था वो सधा नहीं पाये तो उसका ब्याह कर दिया उस आदमी से। वो बहुत डरती है अपने आदमी से, गुस्सा आए तो रूई जैसा धुन देता है बिना गलती के भी। कहते कहते उसे झुरझुरी आ गयी । मेरा मन भर आया। वो चली गयी अपना बोझ मेरे मन पर रख कर।

वो फिर एक बार और.आयी बस जाने किस संकोच में वो  नहीं आती थी। एक दिन अचानक उसी रस्ते पर मिली मैं तो पहचान नहीं पायी , वो खुश लग रही थी, आज चटख गुलाबी दुपट्टा कंधे पर डाला हुआ था उसने।आँखों में काजल की महीन रेखा , बालों को खोला हुआ था घुँघराले बालों की लट उसके होठ़ो को चूम रहे थे। हाथों की लाल हरी और सुनहरी चुडि़यों की मोहक खनक बार बार लुभा रहे थे।  मैंने कहा क्या बात है बहुत सुंदर लग रही हो तो वो खिलखिला पड़ी ।तांबई गालों पे लाली छा गयी , शरमाते हुये पैर के अँगूठे से मिट्टी कुरदने लगी फिर हँसकर भाग गयी।

सर्दियाँ खत्म हो रही थी, एक दिन रात के एक बजे होगे, मेरी तबियत ठीक नहीं थी एसीडिटी की वजह से नींद नहीं आ रही थी सोचा थोड़ा दवा लेकर टहल लूँ फिर आराम आयेगा तो सो जाऊँगी। छत पर निकल कर घूमने लगी । पूरणमासी की रात थी हल्की ठंडी हवाएँ चल रही थी रजनीगंधा की खुशबू से मन प्रसन्न हो गया । स्वाभावतः उस बन रहे इमारत की ओर देखने लगी सोचने लगी आज सोमवारी खुश लग रही थी , मैं मुस्कुरा उठी सहसा एक परछाई उस इमारत की आधी अधूरी सीढ़ियों से ऊपर जाते देखा, मैं चौंक गयी इतनी रात गये कौन हो सकता है??? सोमवारी का पति तो बेसुध पड़ा है। वो परछाई छत के उस कोने में गुम हो गयी जहाँ सोमवारी सोती थी। अब सबकुछ मेरी आँखों की पहुँच से दूर था पर मन में एक झंझावत भर आया ।
'ये किस राह पर निकल पड़ी सोमवारी। मैं घबराकर भीतर आ गयी गटगटाकर पानी का गिलास.खाली.कर दिया और  बिस्तर पर गिर गयी।'

मैं उसे समझाना चाहती थी मिलकर बताना चाहती थी एक आध बार कोशिश भी की पर शायद उसे मेरी बात पसंद नहीं आयी उसने मुझसे मिलना बंद कर दिया। रस्ते पर मिलती तो नजरे चुराकर भाग जाती।

बारिश शुरू हो गयी थी, उस बन रहे बिल्डिंग का रूका हुआ था अब मैंने भी उस ओर ध्यान देना छोड़ दिया था।
दस दिन पहले की ही बात है उस शाम डोरबेल बजी मैने दरवाजा खोला तो सामने बाल बिखराये सूखे होठ और रो रोकर सूजी आँखों से निरीह सी ताकती सोमवारी को पाया।
अंदर बुलाया और पानी का गिलास थमाया और सिर पर हाथ फेरा तो फूट फूट कर रो पड़ी । मैंने रोने दिया उसे उसने कहा वो माँ बनने वाली है अगर उसके पति को पता चला तो वो उसे मार डालेगा। जिस लड़के पर उसने अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया वो अब उसकी सूरत भी नहीं देखना चाहता वो कल ही उसे उसके हाल पर छोड़कर बंबई चला गया है।

मैंने उसे दिलासा दिया और कहा कल उसे डॉक्टर के पास ले जाऊँगी। फिर वो चली गयी। मैं उसे लेकर चिंतित थी, उसकी मदद भी करना चाहती थी एक अनजाना लगाव हो गया था उससे। पर दूसरे दिन वो नहीं आयी मैं झाँकने गयी तो बिल्डिंग में पीली रोशनी लिये धीमा सा बल्ब जल रहा था पर कोई दिख नहीं रहा था। कुछ समझ नहीं आया।
सप्ताह भर से लगातार रूक रूक कर बारिश हो रही थी।
नदियाँ पूरे उफान पर थी, निचले कई इलाकों में पानी भर गया था हाई अलर्ट जारी किया गया था।

पाँच दिन पहले ही अधूरी इमारत का काम फिर से शुरू हुआ अब तीसरे माले की छत की ढलाई की तैयारी थी।
परसों ही वो वापस दिखाई दी। उदास, मरियल सी जैसे किसी ने सारा रक्त निचोड़ लिया हो उसके शरीर का।
मैं सोच ही रही थी उससे मिलने के लिए और ये हो गया।
वो हार गयी अपने जीवन के दर्द से। मेरी आँखों से लगातार आँसू बह रहे थे। डोरबेल की आवाज़ से मैं अतीत से वापस आ गयी। आँसू पोंछकर मुँह पर पानी का छींटा मारा दरवाजा खोला तो देखा महरी खड़ी थी।

काम करते करते बड़बड़ाये जा रही थी अरे मेमसाब, बरसात से भरी नदी के पास उसको उधर जाने का ही नहीं था ,क्या जरूरत थी उधर जाने की पैर फिसल गया होगा बिचारी का, उसका गुलाबी दुपट्टा वही पत्थरों में अटका मिला है।

#श्वेता🍁

Monday, 2 October 2017

भारत के लाल

अनमोल रतन दमके 
भारत के भाल पर
एक मूरत सादगी की
भारी है हर जाल पर

धन्य है मातृभूमि गर्वित
पाकर ऐसे लाल को
लाल बहादुर कहते है 
भारत माँ के लाल को

धन्य कोख माँ राम दुलारी 
पिता शारदा को नमन करे
गज़ब की शख्सियत था
विनम्रता से शत्रु दमन करे

पढ़ने की लगन में जिसने
गंगा की धार को पार किया
अभाव को बनने न दी बाधा
हर स्वप्न अपना साकार किया

कर्तव्य निष्ठ थे देश के लिए
कर दिया समर्पित स्वयं को
गाँधी जी से के चमक के आगे
न भूलो देशभक्त के जन्म को

सन् बयालीस के भारत छोड़ो में
'मरो नहीं मारो 'का नारा दिया
अपने हक के लिए लड़ने का
ओज तेज भरा विचारधारा दिया

निडर साहासी अगुआ थे वो
देश को गौरव और शान दिया
भारत पर चढ़ा जब पाक तब
मुँहतोड़ उत्तर देकर मान दिया

देश के पहरेदारों में जोश भर
सीमा पर विजयी ध्वज लहराया
जय जवान जय किसान नारा
प्राणशक्ति बना जन में महकाया

शांति दूत का सच्चा मूरत वो
मिट गया शांति के नाम पर
ताशकंद बना काल का घर
सोया लाल चिरनिद्रा धाम पर

गर्व है हमें शास्त्री जैसे लाल पर
कद के छोटे हृदय विशाल पर
नहीं था आडंबर का कोई ढ़ोग
नमन बहादुर भारत के लाल को


Saturday, 30 September 2017

रावण दहन


हर बर्ष मन की बुराइयों को मिटाकर
श्री राम के आदर्शों पर
चलने का संकल्प करते है
पुतले के संग रावण की,
हृदय की बुराइयों को जलाकर
रावण को मिटाने का प्रण करते है
स्वयं को बस भरमाते है।
स्वयं के अंतर्मन में झाँक कर
कभी देख पाए तो देखिएगा
राम का चरित्र की छाया से दूर है
रावण से भी निचले स्तर पर
आज मानव का मूल्य पाते है।
हम राक्षस और दुष्ट 
रावण के चरित्र का 
शतांश भी स्वयं में पाते हैं??
रावण के अहंकार पर हँसते हम
अपनी तिनके सी उपलब्धि पर
गर्व से उन्मत हो जाते है,
रावण की वासना को
उसके विनाश का कारण कहते हुए
उसके संयम को भूल जाते है
माता सीता के तपबल में
रावण की मर्यादा को अनदेखा कर
हम स्वयं के मन के असुर को
जीवित कर जाते है
मनुष्य  कितने चरित्रवान है आज
हर दूसरे दिन गली, मुहल्लों में
अखबार की सुर्खियों में छपे नज़र आते है
अपनी ओछी चरित्र का
प्रमाण हम स्वयं ही दे जाते है
रावण अपने दस चेहरे बाहर ही रखता था
आज हम अपना एक चेहरा ही
अनगिनत में मुखौटों की तह में
छुपाते है
अपने अंदर छुपे
रावण के दस चेहरों में
एक चेहरा ही काश कि हम मिटा पाये
चलिए न आज हम 
बुराई प्रतीक रूपी पुतले के साथ
अपने अंतर्मन की एक बुराई जलाकर
रावण दहन का असली मतलब समझे।

   #श्वेता🍁

Thursday, 28 September 2017

नारी हूँ मै


सृष्टि के सृजन का अधिकार
प्रभु रूप सम एक अवतार
नारी हूँ मैं धरा पर बिखराती
कण कण में खुशबू, सुंगध बहार,

आदर्श और नियमोंं के जंजीरों में
पंख बाँधे गये घर की चौखट से
अपनों की खुशियों को रोपती हूँ
हर दिन तलाशती अपना आधार

हर युग में परीक्षा मेरे अस्तित्व की है
सीता मैं राम की,अग्नि स्नान किया
द्रौपदी मैं,बँटी वस्तु सम पाँच पुरुष में 
मैं सावित्री यम से ले आयी पति प्राण,

शक्ति स्वरूपा असुर निकंदनी मैं माता
मंदोदरी, अहिल्या तारा सती विख्याता
कली, पुष्प ,बीज मैं ही रूप रंग श्रृंगार
मेरे बिन इस जग की कल्पना निराधार,

मैं भोग्या वस्तु नही, खिलौना नहींं
मैं मुस्काती,धड़कती जीवन श्वाास हूँ
साँस लेने दो,उड़ने को नभ दो मुझे
नारी हूँ मैं चाहती जीने का सम आधार,

न पूजो मुझे  बस नवरात्रों में ही
रखकर मान हृदय में स्थान दो 
मसल कर रख दोगे नन्ही कली गर
कैसे रचा पाऊँगी मैं सुंदर संसार।

        #श्वेता🍁

Tuesday, 26 September 2017

समन्दर का स्वप्न

चित्र साभार-गूगल

मौन होकर
अपलक ताकते हुये
मचलती  ख़्वाहिशों  के,
अनवरत ठाठों से व्याकुल 
समन्दर अक्सर स्वप्न देखता है।
खारेपन को उगलकर
पाताल में दफ़न करने का,
मीठे दरिया सा 
लहराकर हर मर्यादा से परे
इतराकर बहने का स्वप्न।
बाहों में भरकर
आसमान के बादल
बरसकर माटी के आँचल में
सोंधी खुशबू बनकर 
धरा के कोख से
बीज बनकर फूटने का स्वप्न
लता, फूल, पेड़
की पत्तियाँ बनकर
हवाओं संग बिखरने का स्वप्न।
रंगीन मछलियो के
मीठे फल कुतरते
खगों के साथ हंसकर
बतियाने का स्वप्न।
चिलचिलाती धूप से आकुल
घनी दरख़्तों के
झुरमुट में शीतलता पाने का स्वप्न।
अपने सीने पर ढोकर थका
गाद के बोझ को छोड़कर
पर्वतशिख बन
गर्व से दिपदिपाने का स्वप्न।
मरूभूमि की मृगतृष्णा सा
छटपटाया हुआ समन्दर
घोंघें,सीपियों,शंखों,मोतियों को
बदलते देखता है
फूल,तितली,भौरों और परिंदों में,
देखकर थक चुका है परछाई
झिलमिलाते सितारें,चाँद को
उगते,डूबते सूरज को
छूकर महसूस करने का स्वप्न देखता है
आखिर समन्दर बेजान तो नहीं
कितना कुछ समाये हुये
अथाह खारेपन में,
अनकहा दर्द पीकर
जानता है नियति के आगे 
कुछ बदलना संभव नहीं
पर फिर भी अनमने
बोझिल पलकों से
समन्दर स्वप्न देखता है।

   #श्वेता सिन्हा



Friday, 22 September 2017

हरसिंगार


नीरव निशा के प्रांगन में हैं
सर सर  मदमस्त बयार,
महकी वसुधा चहका आँगन
खिले हैं हरसिंगार।

निसृत अमृत बूँदे टपकी
जले चाँद की मुट्ठी से,
दूध में चुटकी केसर छटकी
धवल दमकती बट्टी से,
सुंदर रूप नयन को भाये
खिले हैं  हरसिंगार।

संग सितारे बोले हौले 
मौन है उसका गीत,
कूजित है हरित पात पर
पीर भरा संगीत,
लिपटे टहनी के अधरों से
खिले हैं हरसिंगार।

भोर किरण को छूकर चूमे
दूब के गीले छोर,
शापित देव न चरण चढ़े
व्यथित छलकती कोर,
रवि चंदा के मिलन पे बिछड़े
खिले है हरसिंगार।

#श्वेता🍁

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...