Sunday, 21 April 2019

अमलतास

अप्रैल माह के तीसरे सप्ताह की एक सुबह 
पार्क के कोने में मौन तपस्वी-सा खड़े अमलतास
के पेड़ पर फूटते पीले फूलों में आँखें उलझ गयीं।
प्रकृति का संसार भी विचित्र है न कितना? हर ऋतु का स्वागत और श्रृंगार कितनी तन्मयता से करती है।  खूबसूरत चटख पीले रंग के सुंदर जालों की कारीगरी अंचभित करती है। 
आपने भी देखा होगा न अपने शहर में अमलतास?
भाग-दौड़,जीने की मशक्कत,जीवन की जटिलताओं के बीच गुम होकर, शीशे के झरोखे,भारी परदों,वातानुकूलित कमरों में बंद होते हम आज प्रकृति से दूर हो रहे हैं।
आप भी पढ़िये अमलतास पर फूटते मोहक फूलों को देखकर, महसूस कर लिखी मेरी कुछ पंक्तियाँ

अमलतास
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आहट पाकर गर्मी की
एक पेड़ हौले-से शरमाता है
गरम हवा संग अंगड़ाई ले
पत्तियों का दुपट्टा गिराता है

पत्रविहीन शाखों ने पहने
दिव्य वस्त्र अलंकरण खास
किस करघे से काता गया
कुरता पीला,मखमली लिबास

प्रकृति की कूची अनोखी
रचाये ऋतु अनूठा चित्र
धू-धू दिन के कैनवास पर 
पीत तितलियाँ झुंड विचित्र

ताप संग करता परिहास
सड़क किनारें बाँह पसारे
फानूस की झालर अंगूरी
मुग्ध नयन यह रुप निहारे

पथिक थका जो पास है आता
करता बालक-सा मृदुल हास
चुपके से पीला रंग लगाकर
कितना खुश होता अमलतास।

#श्वेता सिन्हा


Thursday, 18 April 2019

मैं समाना चाहती हूँ


मैं होना चाहती हूँ
वो हवा,
जो तुम्हारी साँसों में
घुलती है 
हरपल जीवन बनकर
निःशब्द!


जाड़ों की गुनगुनी धूप,
गर्मियों के भोर के
सूरज का मासूम चेहरा
वो उजाला
जो तुम्हारी 
आँखों को चूमता है
हर दिन।


बादल का वो
नन्हा-सा टुकड़ा 
जो स्वेद में भींजते
धूप से परेशान
तुम्हारे थकेे बदन को
ढक लेता है
बिना कुछ कहे।


बारिश की 
नन्हींं-नन्हीं लड़ियाँ
जो तुम्हारे मुखड़े पर
फिसलकर
झूमती है इतराकर।


तुम्हारी छत के
मुंडेर से,
झरोखे से झाँकते
आसमान के स्याह
चुनरी पर गूँथे
सितारों की
भीड़ में गुम
एक सितारा बन
तुम्हें देखना चाहती हूँ
नींद में खोये
सारी रात
चुपचाप....


जल की स्वाति-बूँद
बनकर
कंठ में उतरकर
तुम्हारे अंतर में
विलीन होना चाहती हूँ।


तुम्हारे आँगन की माटी
जिसे तुम्हारे पाँव 
कोमलता से दुलारते हैं
अनजाने ही
वो फूल जिसकी खुशबू
तुम कभी भुला नहीं पाते।


सुनो! मैं निःशब्द,मौन
समाना चाहती हूँ
तुम्हारे जीवन में
प्रकृति के 
हर उस कण की तरह
जो मौजूद है साथ तुम्हारे
शाश्वत
जन्म-जमांतर।

#श्वेता सिन्हा




Tuesday, 16 April 2019

गर्मी के दिन


राग-रंग बदला मौसम का
बदले धूप के तेवर
रुई धुन-धुन आसमान के
उड़ गये सभी कलेवर

सूरज की पलकें खुलते ही
लाजवंती बने पेड़ विशाल
कोयल कूके भोर-साँझ को
ताप घाम से रक्तिम गाल

पीत वसन पहने मुस्काये
झुमके झूमर अमलतास
चंदन-सी शीतल लगती
गुलमोहर की मीठी हास

टप-टप चुये अँचरा भींजे
अकुलाये दुपहरी न बीते
धूप-छाँव के खेल से व्याकुल
कुम्हलाई-सी कलियाँ खीझे

कंठ सूखते कूप,ताल के 
क्षीण हुई सरिता की धारा
लहर-लहर मरुआये रोये
निष्ठुर तपन है कितना सारा

साँझ ढले सिर से अवनि के
सूरज उतरा तपन मिटाने  
छुप गया सागर की लहरों में
ओढ़ चाँदनी नींद बहाने

फूल खिले नभ पर तारों के
महकी बेला अंजुरी जोड़े
सारी  रात चंदा बतियाये
नींद की परियाँ पाँखें खोले

नीम निबौरी चिडिया बोली
साँस ऋतु की पल-पल गिन
चार दिवस फुर्र से उड़ जाये
चक्ख अमिया-सी गर्मी के दिन।

#श्वेता सिन्हा

Friday, 12 April 2019

मैं रहूँ या न रहूँ


कभी किसी दिन
तन्हाई में बैठे
अनायास ही
मेरी स्मृतियों को 
तुम छुओगे अधरों से
झरती कोमल चम्पा की
कलियों को
समेटकर अँजुरी से
रखोगे
उसी पिटारे में 
जिसमें 
मेरे दिये नामों-उपनामों की
खनकती सीपियाँ बंद है
तुम्हारी उंगलियों के स्पर्श से
स्पंदित होकर
जब लिपटेगे वो बेतुके नाम 
तुम्हारी धड़कनों से 
कलोल के
मीठे स्वर हवाओं के 
परों पर उड़ - उड़कर
तुम्हें छेड़ेगे
सुनो!
उस पल 
तुम मुस्कुराओगे न?
मैं रहूँ या न रहूँ।

#श्वेता सिन्हा

Monday, 8 April 2019

मन


(१)
जीवन के बेढब
कैनवास पर
भावों की कूची से
उम्रभर उकेरे गये
चेहरों के ढेर में
ढूँढ़ती रही 
एहसास की खुशबू 
धूप ,हवा ,पानी,
जैेसा निराकार
और ईश की तरह
अलौकिक,अदृश्य
तृप्ति की बूँद,
देह के भीतर
स्पंदित श्वास
सूक्ष्म रंध्रों से
मन की तरंगों का
चेतना के तटों से
टकराकर लौटने का
अनहद नाद 
भ्रम ,माया,मरीचिका के 
मिथ्य दरकने के उपरांत
उकताया,विरक्त
सुप्त-जागृत मन ने जाना 
एहसास का कोई चेहरा नहीं होता

(२)
प्राकृत भाषा में लिखी
अबूझ पहेलियाँ
पक्षियों के कलरव की भाँति
मधुर किंतु गूढ़
मन की अवश
कल्पनाओं के
खोल के भीतर ही भीतर
गीले कागज़ पर
प्रेम की एक बूँद
टपकते ही
धमनियों की महीन वाहिनियों में
फैल जाती है।

(३)
मन का ज़ंग लगा 
चरमराता दरवाज़ा
दस्तक से चिंहुककर
ज़िद में अड़कर बंद 
रहना चाहता है
आगंतुक से भयभीत
जानता है 
यथोचित 
आतिथ्य सत्कार के 
अभाव में
जब लौटेगा वो,
तब टाँग देगा
स्मृतियों का गट्ठर
दरवाज़े की
कमज़ोर कुंड़ी पर।

#श्वेता सिन्हा


Wednesday, 3 April 2019

आकुल रश्मियाँ

पत्थर की सतह पर
लाजवन्ति के गमले केे पीछे
गालों पर हाथ टिकाये
पश्चिमी आसमां के बदलते रंग में
अनगिनत कल्पनाओं में विलीन
निःशब्द मौन साँझ की 
दस्तक सुनती हूँ
पीपल के ऊपरी शाखों से फिसलकर
मेरे चेहरे और बालों तक
पहुँचकर मुझे छूने का 
असफल प्रयास करती
बादलों की बाहों में छुपकर
मुझे निहारती एकटुक गुलाबी किरणें
धीरे-धीरे बादलों की लहरों में डूब गयी
आसमां से निकलकर
बिखर गया एक अजब-सा मौन
छुपी किरणें बादलों के साथ मिलकर
बनाने लगी अनगिनत आकृतियां
गुलाबी पगड़डियाँ,पर्वतों से निकलते
भूरे झरने, सूखे बंजर,सफेद खेत
सिंदुरी समन्दर,
हल्के बैंगनी बादल खोलने लगे
मन के स्याह पिटारों को
सुर्ख मलमल पर सोयी
फड़फड़ाने लगी सुनहरी तितलियाँ
और निकलकर बैठ गयी
मौन शाम के झिलमिलाते मुंडेरों पर
कतारबद्ध मुँह झुकाये चुपचाप
स्याह साँझ में चमकीला रंग घोलती
बेला-सी महकती
मन आँगन में 
संध्या दीप जलाती
मौन साँझ में खिलखिलाती
झर-झर झरती
एहसास की
आकुल रश्मियाँ

#श्वेता सिन्हा

Wednesday, 27 March 2019

स्वयंसिद्ध

धधकते अग्निवन के 
चक्रव्यूह में समर्पित
देती रहीं प्रमाण
अपनी पवित्रता का
सीता,अहिल्या,द्रौपदी
गांधारी,कुंती, 
और भी असंख्य हैं
आज भी
युगों से जूझ रही है
भोग रही 
सृष्टि सृजनदात्री होने का दंड
आजीवन ली गयी
परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने पर
दिया गया है देवी का सम्मान
क्यों न ली गयी
कभी किसी पुरुष की 
अग्निपरीक्षा?
पुरुष होने मात्र से ही
चारित्रिक धवलता
प्रमाणित है शायद
स्वयंसिद्ध।


-श्वेता सिन्हा

Tuesday, 26 March 2019

झुर्रियाँ


बलखाती
साँस की ताल पर
अधरों के राग पर
हौले-हौले थिरकती 
सुख-दुख की छेनी और
समय की हथौड़ी के
 प्रहार से बनी
महीन, गहरी,
कलात्मक कलाकृतियाँ,

जीवन के पृष्ठों पर 
बोली-अबोली
कहानियों की गवाह,
अनुभव का
इतिहास बताती 
चेहरे के कैनवास पर
पड़ी स्थायी सलवटें,
जिन्हें छूकर 
असंख्य एहसास 
हृदय के छिद्रों से 
रिसने लगते हैं,

पीढ़ियों की गाथाएँ
हैं लिपिबद्ध 
धुँधली आँखों से
झरते सपनों को
पोपली उदास घाटियों में समेटे
उम्र की तीलियों का
हिसाब करते
जीवन से लड़ते
थके चेहरों के
खूबसूरत मुखौटे उतार कर
यथार्थ से
परिचय करवाती हैं
झुर्रियाँ।

#श्वेता सिन्हा

"विह्वल हृदय धारा" साझा काव्य संकलन पुस्तक 
में प्रकशित।



मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...