Wednesday, 8 April 2020

शायद....!!!


हो जो पेट भरा तो
दिमाग़ निवाले
गिन सकता है,
भात के दानों से
मसल-मसलकर
खर-कंकड़
बीन सकता है,
पर... भूख का
दिल और दिमाग
रोटी होती है
भात की बाट
जोहती आँतों को 
ताजा है कि बासी
मुँह में जाते निवाले
स्पेशल हैं
कि राजसी
फ़र्क नहीं पड़ता।

भूख की भयावहता
रोटी की गंध,
भात के दाने,
बेबस चेहरे,
सिसकते बच्चे,
बुझे चूल्हे,
ढनमनाते बर्तन,
निर्धनों के
सिकुड़े पेट की
सिलवटें गिनकर
क़लम की नोंक से,
टी.वी पर
अख़बार में
नेता हो या अभिनेता
भूख के एहसास को 
चित्रित कर
रचनात्मक कृतियों में
बदलकर
वाह-वाही, 
तालियाँ और ईनाम 
पाकर गदगद
संवेदनशील हृदय 
उस भूख को
मिटाने का उद्योग
करने में क्यों स्वयं को
सदैव असमर्थ है पाता ?
किसी की भूख परोसना
भूख मिटाने से
ज्यादा आसान है
शायद...!!

#श्वेता

Saturday, 4 April 2020

धर्म...संकटकाल में


हृदय में बहती
स्वच्छ धमनियों में
किर्चियाँ नफ़रत की
घुलती हैं जब, 
विषैली,महीन,
नसों की
नरम दीवारों से
रगड़ाकर
घायल कर देती हैं
संवेदना की मुलायम 
परतों को,
 फट जाती हैं
 लहूलुहान
 रक्तवाहिनियाँ 
 वमन करते हैं
विचारों का दूषित गरल
खखारकर थूकते हैं लोग
सेवारत मानवता के
सफेद कोट,
ख़ाकी वर्दियों पर...
देवदूतों के फेफड़ों में
भरना चाहते हैं
संक्रमित कीटाणु,
नीचता संगठित होकर
अपने धर्मग्रंथों के
पन्नों को फाड़कर
कूड़ेदानों,पीकदानों
में विसर्जित कर
मिटा देना चाहती हैं
जलाकर भस्म 
कर देना चाहती है
धर्म की सही परिभाषा।

अपनी मातृभूमि के
संकटकाल में
अपने सम्प्रदाय की
श्रेष्ठता सिद्ध करने में
इतिहास में
क्रूरता के अध्याय जोड़ते
रीढ़विहीन मनुष्यों की
प्रजातियों के
लज्जाजनक कर्म,
कालक्रम में 
नस्लों द्वारा जब
खोदे जायेंंगे
थूके गये 
रक्तरंजित धब्बों की
सूखी पपड़ीदार 
निशानियों को
 चौराहों पर
प्रश्नों के ढेर पर
बैठाकर
अमानुषिक,अमानवीय
कृतित्वों को 
उन्हीं के वंशजों द्वारा
एक दिन अवश्य
धिक्कारा जायेगा!
किसी देश के
 सच्चे नागरिक की
धर्म की परिभाषा
मनुष्यता का कर्तव्य
और कर्मठता है,
साम्प्रदायिक जुगाली नहीं।

#श्वेता सिन्हा

Thursday, 2 April 2020

असंतुलन


क्या सचमुच एकदिन 
मर जायेगी इंसानियत?
क्या मानवता स्व के रुप में
अपनी जाति,अपने धर्म
अपने समाज के लोगों
की पहचान बनकर
इतरायेगी?
क्या सर्वस्व पा लेने की मरीचिका में
भटककर मानवीय मूल्य
सदैव के लिए ऐतिहासिक
धरोहरों की तरह 
संग्रहालयों में दर्शनीय होंगे
अच्छाई और सच्चाई
पौराणिक दंतकथाओं की तरह
सुनाये जायेंगे
क्या परोपकार भी स्वार्थ का ही
अंश कहलायेगा?
क्या संदेह के विषैले बीज
 प्रेम की खेतों को
सदा के लिए बंजर कर देगा?
क्या भावनाओं के प्रतिपल
हो रहे अवमूल्यन से
विलुप्त हो जायेंगी
भावुक मानवीय प्रजाति?
क्या हमारी आने वाली पीढ़ियाँ
रोबोट सरीखे,
हृदयहीन,असंवेदनशील
इंसानों की बस्ती के
यंत्रचालित पुतले होकर
रह जायेगी?

हाँ मानती हूँ
असंतुलन सृष्टि का
शाश्वत सत्य है,
सुख-दुख,रात-दिन,
जीवन-मृत्यु की तरह ही
कुछ भी संतुलित नहीं
परंतु विषमता की मात्राओं को
मैं समझना चाहती हूँ,
क्यों नकारात्मक वृत्तियाँ
सकारात्मकता पर 
हावी रहती हैं?
क्यूँ सद्गुणों का तराजू
चंद मजबूरियों के सिक्कों के
भार से झुक जाता है?

सोचती हूँ,
बदलाव तो प्रकृति का
शाश्वत नियम है,
अगर वृत्तियों और प्रवृत्तियों
की मात्राओं के माप में
अच्छाई का प्रतिशत
बुराई से ज्यादा हो जाये
तो इस बदले असंतुलन से
सृष्टि का क्या बिगड़ जायेगा? 

#श्वेता सिन्हा

Tuesday, 24 March 2020

इंसानियत की बलि



आदिम पठारों,
के आँचल में फैले
बीहड़ हरीतिमा में छिपे,
छुट्टा घूमते
जंगली जानवरों की तरह
खूँखार,दुर्दांत ..
क्या सच्चा साम्यवादी औजार
सहज सुलभ उपलब्ध,अचूक
तस्करी की जा रही बंदूक है?
एक झटके में बारुद की गंध
हवाओं मे घुलकर 
महुआ से भी ज्यादा
खुमारी भर जाती होगी शायद?
जिसके नशे में झूमता
ख़ुद को
मार्क्स और लेनिन
के विचारों का वाहक
जताने वाला
ज्वाला,बारुद और रक्त गंध का
व्यसनी हो उठता है,

जंगल के काले चट्टानों पर
लाल रंग से लिखी 
पूँजीपतियों के विरुद्ध इबारतें
ठठाकर हँस पड़ती हैं
जब रात के अंधेरो़ में
रसूख़दारों के द्वारा
फेंकीं गयी हड्डियाँ चूसकर
डकारता है, 
विदेशी बोतलों
से बुझाकर प्यास,
नाबालिग आदिवासी बालाओं
पर करता है मनमाना अत्याचार,

कंधे पर लटकाये
क्रांति का वाहक
उंगलियों पर नचाता
पीला कारतूस 
दिशाहीन विचारों को
हथियारों के नोंक से 
सँवारने का प्रयास, 
ये रक्तपिपासु 
मानवता के रक्षक हैं?
जिनके बिछाये खूनी जाल में
उलझकर,चीथड़े हो जाते हैं 
निर्दोष सिपाहियों के 
धड़कते देह
अतड़ियाँ,चेहरे,हड्डियाँ
निर्जीव होकर
काननों की वीरान
पगडंडियों की माटी
को लाल कर देती है
विधवाओं के चीत्कार,
मासूम बच्चों की रूदन पर 
विजय अट्टहास करते
निर्दयी,
किस अधिकार की चाह लिए
इंसानियत की बलि 
चढ़ाते है?
धरती से उठते धुँयें और
चमकती धूप में उलझी दृष्टि
किसी मरीचिका की तरह
अबूझ पहेली-सी...
 सुलगती गूँज पर
सहमा हुआ वर्तमान,
सुखद भविष्य के लिये
ख़ाकी रक्त से लिखे पंचाग 
किसके लिये शुभ फलदायक 
हो सकते हैं?

#श्वेता सिन्हा
२४मार्च२०२०

Tuesday, 17 March 2020

महामारी से महायुद्ध


काल के धारदार
नाखून में अटके
मानवता के मृत,
सड़े हुये,
अवशेष से उत्पन्न
परजीवी विषाणु,
सबसे कमजोर शिकार की
टोह में दम साधकर 
प्रतीक्षा करते हैं
भविष्य के अंंधेरों में
छुपकर।

मनुष्यों के स्वार्थी
तीरों से विदीर्ण हुई
कराहती 
प्रकृति के अभिशाप से
जर्जर हुये कंगूरों पर
रेंगती लताओं से
चिपटकर चुपचाप 
परजीवी चूसते हैं
बूँद-बूँद
जीवनी शिराओं का रस
कृश तन,भयभीत मन को
शक्तिशाली होने का भ्रम दिखा 
संक्रमित कर सभ्यताओं को
गुलाम बनाकर 
राज करना चाहते हैं
संपूर्ण पृथ्वी पर।

धैर्य एवं सकारात्मकता के
कालजयी अस्त्रों
से सुशोभित 
सजग,निडर योद्धा
काल के परिस्थितिजन्य 
विषधर परजीवियों 
के साथ हुये
महाविनाशकारी
महायुद्ध में
मृत्यु के तुमुलनाद से
उद्वेलित,
काल-कलवित होते
मानवों की संख्यात्मक वृद्धि से
विचलित,
किंतु दृढ़प्रतिज्ञ,
संक्रमित नुकीले
महामारी के
विषदंतों को 
समूल नष्ट करने के लिए
अनुसंधानरत,
अतिशीघ्र
मिटाकर अस्तित्व
विषैले परजीवियों का,
विजय रण-भेरी फूँककर
आशान्वित
संपूर्ण विश्व को
चिंतामुक्त कर
आह्लादित करने को
कटिबद्ध हैं।

#श्वेता सिन्हा
१७/०३/२०२० 


Sunday, 8 March 2020

लालसा


रंगीन,श्वेत-स्याह
तस्वीरों में 
जीवन की
उपलब्लियों की 
छोटी-बड़ी
अनगिनत गाथाओं में
उत्साह से लबरेज़
आत्मविश्वास के साथ
मुस्कुराती 
बेपरवाह स्त्रियाँ,
समाज की आँखों में 
स्वयं के लिए
समानता और सम्मान 
का प्रतिबिंब
देखने की जिद में,
पगहा तोड़कर,
रचती है नयी कहानियाँ,
अपने अस्तित्व का खूँटा
गाड़ आती है
आसमान की
छाती पर।
 पर फिर भी,
अपने हृदय के एकांत में
सर्वाधिकार सौंपकर
होना चाहती है
निश्चिंत
मन के सबसे महीन
भावों के 
रेशमी लच्छियों का
एक सिरा थामे
उलझती जाती है...,
मुँह जोहती हैं,
आजीवन स्वेच्छा से
समझौता करती हैं,
अपने प्रिय पुरुष के
सानिध्य में अपने लिए
प्रेम का शाश्वत स्पंदन
महसूस करने की
लालसा में।

#श्वेता
८/०३/२०२०


Tuesday, 3 March 2020

उम्र


उम्र के पेड़ से
निःशब्द
टूटती पत्तियों की
सरहराहट,
शिथिल पलों में
सुनाई पड़ती है,
मौन एकांत में
समय की खुली
संदूकची से निकली
सूखी स्मृतियों की
कच्ची गंध 
अनायास
हरी हो जाती है

ख़्वाबों की
मोटी किताब में
धुंधली पड़ती
नींद की स्याही से,
जीवन के बही-खातों का
हिसाब लिख,
उम्र सारे कर्ज़
 सूद समेत
 दोहराती है।

सूर्योदय से सूर्यास्त तक
अनदेखे पलों की
रहस्यमयी नक्काशी को
टटोलने की उत्सुकता में,
उम्र ढोती है पीठपर,
चाहे-अनचाहे,
जीवन के बेढ़ब
घट का भार,
साँसों के थककर
समय के समुंदर की
गुमनाम
लहर बन जाने तक।

बँधे गट्ठर से जीवन के
एक-एक कर फिसलती
उम्र की लुआठी
 बची लकड़ियाँ 
कौन जाने किस पल
काल की घाटी में
राख बन उड़ जायेंगी!!!

#श्वेता सिन्हा


Sunday, 23 February 2020

विरहिणी/वसंत


सूनी रात के अंतिम प्रहर
एक-एककर झरते
वृक्षों से विलग होकर
गली में बिछे,
सूखे पत्रों को
सहलाती पुरवाई ने
उदास ड्योढ़ी को
स्नेह से चूमा,
मधुर स्मृतियों की
साँकल खड़कने से चिंहुकी,
कोयल की  पुकार से उठी 
मन की हूक को दबाये
डबडबाई पलकें पोंछती 
पतझड़ से जीवन में 'वह'
वसंत की आहट सुनती है।

हवाओं में घुली
नवयौवना पुष्पों की गंध,
खिलखिलाई धूप से
दालान के बाहर 
ताबंई हुई वनचम्पा
जंगली घास से भरी
 क्यारियों में
 बेतरतीब से खिले
डालिया और गेंदा
 को रिझाते
अपनी धुन में मगन
भँवरों की नटखट टोलियाँ,
मुंडेर पर गूँटर-गूँ करते
भूरे-सफेद कबूतर
फुदकती बुलबुल
नन्हें केसरी बूटों
की फुलकारी से शोभित 
नागफनी की कंटीली बाड़ से
उलझे दुपट्टे उंगली थामे
स्मृतियों का वसंत 
जीवंत कर जाते हैं।

विरह की उष्मा  
पिघलाती है बर्फ़
पलकों से बूँद-बूँद
टपकती है वेदना 
भिंगाती है धरती की कोख 
सोये बीज सींचे जाते हैं,
फूटती है प्रकृति के
अंग-प्रत्यंग से सुषमा,
अनहद राग-रागिनियाँ...,
यूँ ही नहीं 
ओढ़ते हैं निर्जन वन
सुर्ख़ ढाक की ओढ़नी,
मौसम की निर्ममता से
ठूँठ हुयी प्रकृति का 
यूँ ही नहीं होता 
नख-शिख श्रृंगार,
प्रेम की प्रतीक्षा में 
चिर विरहिणियों के
अधीर हो कपसने से,
अकुलाई,पवित्र प्रार्थनाओं से
अँखुआता है वसंत

#श्वेता सिन्हा
२३/०२/२०२०



मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...