चित्र साभार-गूगल
मौन होकर
अपलक ताकते हुये
मचलती ख़्वाहिशों के,
अनवरत ठाठों से व्याकुल
समन्दर अक्सर स्वप्न देखता है।
खारेपन को उगलकर
पाताल में दफ़न करने का,
मीठे दरिया सा
लहराकर हर मर्यादा से परे
इतराकर बहने का स्वप्न।
बाहों में भरकर
आसमान के बादल
बरसकर माटी के आँचल में
सोंधी खुशबू बनकर
धरा के कोख से
बीज बनकर फूटने का स्वप्न
लता, फूल, पेड़
की पत्तियाँ बनकर
हवाओं संग बिखरने का स्वप्न।
रंगीन मछलियो के
मीठे फल कुतरते
खगों के साथ हंसकर
बतियाने का स्वप्न।
चिलचिलाती धूप से आकुल
घनी दरख़्तों के
झुरमुट में शीतलता पाने का स्वप्न।
अपने सीने पर ढोकर थका
गाद के बोझ को छोड़कर
पर्वतशिख बन
गर्व से दिपदिपाने का स्वप्न।
मरूभूमि की मृगतृष्णा सा
छटपटाया हुआ समन्दर
घोंघें,सीपियों,शंखों,मोतियों को
बदलते देखता है
फूल,तितली,भौरों और परिंदों में,
देखकर थक चुका है परछाई
झिलमिलाते सितारें,चाँद को
उगते,डूबते सूरज को
छूकर महसूस करने का स्वप्न देखता है
आखिर समन्दर बेजान तो नहीं
कितना कुछ समाये हुये
अथाह खारेपन में,
अनकहा दर्द पीकर
जानता है नियति के आगे
कुछ बदलना संभव नहीं
पर फिर भी अनमने
बोझिल पलकों से
समन्दर स्वप्न देखता है।
#श्वेता सिन्हा
अच्छी परिकल्पना.
ReplyDeleteअति आभार आपका रंगराज जी।
Deleteअच्छी परिकल्पना.
ReplyDeleteआपके आशीर्वचनों के लिए तहेदिल से शुक्रिया आपका रंगराज जी।
Deleteसरल और सहज ढंग से भावो को अभिव्यक्त करती है आपकी रचना.. बहुत बढिया।
ReplyDeleteअति आभार आपका पम्मी जी,तहेदिल से शुक्रिया खूब सारा।
Deleteसमुन्दर की परिकल्पना बहुत खूब
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार रितु जी।
Deleteसमुन्दर की परिकल्पना बहुत खूब
ReplyDeleteतहेदिल से शुक्रिया खूब सारा रितु जी।
Deleteसुन्दर कविता
ReplyDeleteजी चाहता है चुरा लूँ
सादर
जी दी:))
Deleteआपका पूरा अधिकार है ले लीजिए न।
आपक अतुल्य नेह के लिए क्या कहे शुक्रिया।
स्नेह बना रहे आपका बस।
बहुत ही सुंदर
ReplyDeleteखूब सारा आभार लोकेश जी,तहेदिल से शुक्रिया आपका।
Deleteवाह ... कवी की कल्पना का जवाब नहीं ... समुद्र की सोच का भी जवाब नहीं ... कितना कुछ संजोये ... तूफानी पर शांत ऊपर से ...
ReplyDeleteजी नासवा जी,बहुत कुछ छुपा होता है समन्दर के सीने में।खूब सारा आभार तहेदिल से शुक्रिया आपका।
Deleteवाह !
ReplyDeleteख़ूबसूरत स्वप्न है समुंदर का।
ज़माने में सबके अपने-अपने दायरे हैं ,सीमाऐं हैं ,मर्यादाऐं भी हैं।
समुंदर का यों ख़ामोश रहकर प्रकृति की व्यापकता का विस्तार होने देना ही उत्तम है।
स्वप्न और फैंटेसी मन की कल्पनाऐं हैं जो हमें प्रकृति की सर्वोत्कृष्ट कृति होने का सुखद एहसास कराते हैं।
आपका कल्पनालोक साहित्य को समृद्ध कर रहा है।
बधाई एवं शुभकामनाऐं।
जी रवींद्र जी,
Deleteदायरा और सीमा के बंधनों से मुक्त होकर ही तो स्वप्न देखा जाता है न।
आभार आपकी सुंदर प्रोत्साहित करती प्रतिक्रिया के लिए। आपकी शुभकामनाओं का साथ सदा अपेक्षित है कृपया बनाये रखे।
आपका लेखन इतना सुघड़ होता है कि हैरत होती है। मानो तसव्वुर का एक अथाह समंदर आपके ह्रदय के अंदर ठाठें मार रहा हो। समंदर की उन्मत्त लहरों की यह गुनगुनाहट लुत्फ़ से तर कर रही है, हैरत से भर रही है। बेहद दिलकश
ReplyDeleteआपकी सुंदर शब्दों में दी गयी प्रतिक्रिया ने रचना को और सुंदर बना बना दिया।
Deleteअति आभार आपका अमित जी,तहेदिल से खूब सारा शुक्रिया जी।
Nayab kalpana-chitran.
ReplyDeleteजी आभार आपका अभि जी।
Deleteसमुद्र की कल्पना को बड़ी कुशलता से चित्रित किया है श्वेता जी .
ReplyDeleteअति आभार आपका मीना जी,तहेदिल से शुक्रिया सस्नेह।
Deleteबहुत सुंदर और सहज अभिव्यक्ति.
ReplyDeleteअति आभार आपका राजीव जी। तहेदिल से शुक्रिया आपका।
Deleteसमुंदर का स्वप्न...वाहहह...इतनी सशक्त कल्पना तो शायद समुंदर भी वास्तव में न कर पाए! बहुत सुंदर प्रस्तुति, स्वेता!
ReplyDeleteअति आभार आपका ज्योति जी।आपके नेह युक्त शब्दों से रचना की सुंदरता द्विगुणित हुई।
Deleteनए शब्दों से परिचय हुआ .......मिलकर अच्छा
ReplyDeleteलगा !
सुंदर रचना रची है आपने...
अति आभार आपका संजय जी।तहेदिल से शुक्रिया बहुत सारा।
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