अपनी छोटी-छोटी
जरुरतों के लिए
हथेली पसारे
ख़ुद में सिकुड़ी,
बेबस स्त्रियों को
जब भी देखती थी
सोचती थी...
आर्थिक रूप से
आत्मनिर्भरता ही
शर्मिंदगी और कृतज्ञता
के भार से धरती में
गड़ी जा रही आँखों को
बराबरी में देखने का
अधिकार दे सकेगा।
पर भूल गयी थी...
नाजुक देह,कोमल मन के
समर्पित भावनाओं के
रेशमी तारों से बुने
स्त्रीत्व का वजन
कठोरता और दंभ से भरे
पुरुषत्व के भारी
पाषाण की तुलना में
कभी पलडे़ में
बराबरी का
हो ही नहीं सकता।
आर्थिक आत्मनिर्भरता
"स्व" की पहचान में जुटी,
अस्तित्व के लिए संघर्षरत,
सजग,प्रयत्नशील
स्त्रियों की आँख पर
सामर्थ्यवान,सहनशील,
दैवीय शक्ति से युक्त,
चाशनी टपकते
अनेक विशेषणों की
पट्टी बाँध दी जाती है
चतुष्पद की भाँति,
ताकि
पीठ पर लदा बोझ
दिखाई न दे।
चलन में नहीं यद्यपि
तथापि स्त्री पर्याय है
स्वार्थ के पगहे से बँधा
जीवन कोल्हू के वर्तुल में
निरंतर जोते हुए
बैल की तरह
जिसे कभी कौतूहल
तो कभी सहानुभूति से
देखा जाता है,
उनके प्रति
सम्मान और प्रेम का
प्रदर्शन
छलावा के अतिरिक्त
कुछ भी नहीं
शायद...!
-------
©श्वेता सिन्हा
२९मई २०२०
स्त्री की दिनचर्या का सही विश्लेषण।
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभारी हूँ सर।
Deleteसादर प्रणाम।
बात तो सही है श्वेता लेकिन वो दिन आएगा जरूर ,चाहे देर से ही सही ..आएगा जरूर ।
ReplyDeleteजी दी, ऐसा नहीं कि परिस्थितियाँ सभी के लिए ऐसी हैं परंतु बहुल आबादी के प्रति दृष्टिकोण उदार नहीं।
Deleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 29 मई 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteवैसे तो आर्थिक स्वतंत्रता को ही मूल स्वतंत्रता माना जाता है अमूमन। यह रचना/विचार आम महिलाओं के संदर्भ में एक पक्ष हो सकता है।
ReplyDeleteइन शब्दचित्रण से भी इतर दो हालात संभव हैं - एक वो जिसमें कहीं-कहीं औरत कमाती तो है, पर उस पैसे पर उसके पुरुष-पति का तथाकथित हक़ होता है। प्रायः निम्न मध्यम वर्गों में , वो भी ज्यादातर जुआ खेलने या दारू पीने के लिए। तो कमा कर भी आर्थिक स्वतंत्रता नहीं रह पाती।
दूसरे हालात में औरत कमाती नहीं, पर घर में आपसी प्रेम और समझ के तहत खर्च करने की पूरी आज़ादी होती है।
इस रचना में पुरुष का रूप जितना विभत्स दिखलाया गया है, उतना भी नहीं है। कहीं-कहीं किसी ख़ास वर्ग या हालात में संभव भी है। पर कुछ अपवादों को लेकर कोई ठोस या पक्की अवधारणा नही बनाई जा सकती।
अब अपवाद उपरोक्त शब्दचित्रण भी हो सकता है या इनसे इतर सम्भावनाएं, यह वर्ग, समाज, काल और हालात पर निर्भर करता है।
सर्वविदित सच्ची बात तो यही है कि आदिमानव से महिला-प्रधान समाज का सफ़र तय करते हुए हम जब कभी भी पुरुष-प्रधान समाज में जीना शुरू किए होंगे, तभी यह पारिवारिक ढाँचा बना होगा कि पुरूष बाहर कमाएगा और औरत घर संभालेगी। ये तो एक अन्योन्याश्रय सम्बन्ध ही हुआ। घर में रहने के पीछे भी औरत की सबसे अनमोल क़ुदरत की मिली देन गर्भधारण की क्षमता ही रही होगी .. शायद ..।
औरत को इतना भी हीन भावना से ग्रस्त नहीं होना चाहिए, दरअसल वो मानव-नस्ल को रचयिता है (यह कोई ""छलावा"" वाली बात नहीं कह रहा) , बल्कि उसे इस के लिए गौरान्वित होना चाहिए ...
( और हाँ .. पति रूपी पुरुष को परमेश्वर मानना मेरी नज़र में मानसिक ग़ुलामी भर है। औरतों को आर्थिक ग़ुलामी से ज्यादा जरूरी है, मानसिक ग़ुलामी से निकलना। ये सारे तीज जैसे उपवास भी मानसिक ग़ुलामी ही है। पुरुष-पति अपनी महिला-पत्नी के लिए कितने उपवास करते हैं ?????)
बहुत सुंदर और सार्थक रचना श्वेता जी
ReplyDeleteसटीक विवेचना और नारी के मनोभाव का जीवंत चित्रण
ReplyDeleteप्रिय श्वेता,यूं तो नारी। जीवन में बहुत विसंगतियां और संघर्ष है ,पर। उसके लिए कोई पुरुष उतना जिम्मेवार नहीं जितनी
ReplyDeleteऔरतें।कदाचित औरतें जब पूर्वाग्रहों से मुक्त। हो , दूसरी औरतों की पीड़ा समझेंगी,तभी वे से इस छलावे से मुक्त होनें में सक्षम होंगी।वैसे से सुबोध जी का रचना पर सम्पूर्ण चिंतन, रचना का सबसे सुन्दर प्रतिउत्तर है। नारी जीवन की सार्थकता उसके समर्पण और ममत्व में है ।जननी होने का गर्व उसे सृष्टि में सर्वोच्चता दिलाता है। नारी विमर्श को प्रेरित करती रचना के लिए शुभकामनाएं।
पुरुष बाहर कमाये और स्त्री घर सम्भाले ये तो ठीक है एक गृहस्थी की शुरूआत ज्यादातर यहीं से होती है परन्तु समय के साथ ये छलावा तब बनता है जब गृहस्वामिनी को प्रत्येक निर्णय या खर्च के लिए
ReplyDeleteपति की स्वीकृत लेनी पड़ती है और एक मातृशक्ति भी फिर बुढापे में पुत्राधीन हो जाती है। अपनी ही पेन्शन भी पुत्र ही प्राप्त करता है...और ज्यादातर घरों में यही सत्य है चाहे कितना भी कटु क्यों न हो.... ये छलावा नहीं तो और क्या है...
लाजवाब सृजन।
सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteस्त्री ने ये छलावे स्वयं ही अपने चारों ओर बुन रखे हैं। वास्तव में स्त्री की भावुकता ही उसकी सबसे बड़ी कमजोरी है। जरा से स्नेह, प्रेम, साथ, मदद, सुरक्षितता की चाह में वह जीवन भर की गुलामी स्वीकारती चली जाती है। केवल पुरुषों के द्वारा ही नहीं, भोली स्त्रियाँ चालाक स्त्रियों के द्वारा भी ठगी जाती है, शोषित होती रहती हैं। एक बार ठान ले कि मर जाऊँगी पर अन्याय नहीं सहूँगी, तो ही इस मकड़जाल से निकल पाएगी।
ReplyDelete