रोटी-दाल,
चावल-सब्जी से इतर
थाली में परोसी गयी
पनीर या खीर देख
खुश हो जाना,
बहुत साधारण बात होती है शायद...
भरपेट मनपसंद भोजन और
आरामदायक बिस्तर पर
चैन से रातभर सो पाने की इच्छा।
जो मिला जीवन में
कुछ शिकायतों के साथ
नियति मानकर स्वीकार करना
बिना फेर-बदल किये
रस्मों रिवाजों,परंपराओं में,
ढर्रे को सहजता से अपनाना
चंद साधारण सपने देखना।
भीड़ का गुमनाम चेहरा,
एक मौन भीड़,
भेड़-बकरी के झुंड की तरह
किसी चरवाहे के इशारे पर
सर झुकाये पगडंडियों की
धूल उड़ाना और बिना प्रतिकार किये
बेबस,निरीह मानकर
स्वयं अपने कंठ में बँधी
रस्सी का सिरा किसी
असाधारण के हाथ थमा देना।
जन्म से मृत्यु तक की
बेआवाज़ यात्रा
करने वाले बेनाम,
जिन्हें धिक्कारा गया
साधारण मनुष्य कहकर,
जो प्रेम और सुख की लालसा में
जी लेते हैं पूरा जीवन।
सोचती हूँ...
क्यों निर्रथक लगता है
साधारण होना...
इतिहास में दर्ज़ सभ्यताओं के
अति विशिष्ट योद्धाओं,विद्रोहियों
असाधारण मनुष्यों के अवशेष
गवाह हैं
सृष्टि ने जीवों की रचना
कालजयी होने के लिए नहीं की
क्या सचमुच फ़र्क पड़ता है
साधारण, विशिष्ट या अतिविशिष्ट
होने से...
सभी तो जन्म लेते हैं
देह में कफ़न लपेटे।
#श्वेता सिन्हा
६ जुलाई २०२०
लाजवाब
ReplyDeleteबहुत आभारी हूँ सर।
Deleteसादर
प्रणाम सर।
ब्लॉग का कायापलट एवं अति सुंदर रचना के लिए बहुत बधाई आपको
ReplyDeleteभरम में जीने वालों को कफ़न याद नहीं रह पाता है
ReplyDeleteवाह बेहतरीन रचना ।
ReplyDeleteबेहतरीन रचना श्वेता।तुमनें तो साधारण को असाधारण बना दिया।अशेष आशीष।
ReplyDeleteनये भाव के साथ अप्रतिम रचना 💐💐
ReplyDeleteवाह!श्वेता ,आपकी रचना जब भी पढती हूँ नमन करने का मन करता है । हाँ ,साधारण ,विशिष्ट और अति विशिष्ट का भेद है ,जब तक जीवन है ..तत्पश्चात ततो सभी को माटी में ही मिलना है एक सी माटी ।
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 07 जुलाई 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteवाह!.....क्या कहूँ?....कुछ कहूँ या जिन विचारों की गहराई में आपने डूबो दिया वही चुपचाप डूबी हुई आपकी पंक्तियों पर विचार करती रहूँ और उस अजब शांति में कुछ देर खो जाऊँ संसार के झूठे शोर से निकालकर जहाँ आपकी रचनाएँ भेज देती।
ReplyDelete.........आदरणीया दीदी जी बारंबार नमन आपको,आपके विचारों को और आपकी लेखनी को 🙏
साहित्य का कर्म है मनुष्य को उचित नज़रिया देना जो आपकी रचनाएँ सदा ही करती हैं।
" सृष्टि ने जीवों की रचना
कालजयी होने के लिए नहीं की
क्या सचमुच फ़र्क पड़ता है
साधारण, विशिष्ट या अतिविशिष्ट
होने से...
सभी तो जन्म लेते हैं
देह में कफ़न लपेटे। "
आपकी इन पंक्तियों ने पाठकों को वह उचित नज़रिया निश्चित ही दे दिया।
सराहना से परे इस रचना हेतु आपको हार्दिक बधाई सादर प्रणाम 🙏
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (08-07-2020) को "सयानी सियासत" (चर्चा अंक-3756) पर भी होगी।
ReplyDelete--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
--
सुन्दर प्रस्तुति.
ReplyDeleteसारगर्भित, श्वेता जी ।
ReplyDeleteसोच का सब फेर है ।
विशेष या अति विशिष्ठ सच तो यही अहि की दो जून की दो रोटी ही खानी है ... पर शायाद वासनाओं ने जन्म दिया इस प्रतियोगिता को ... जो रहता है इंसान में निखर हो कर ...
ReplyDeleteअतिविशिष्ट होना ईश्वर की दृष्टि में कोई मायने नहीं रखता इसीलिए उसने हर आमोखास के लिए सृष्टि में एक ही नियम रखा है | पर ख़ास लोगों का जीवन ज्यादातर अपनी विशिष्टता को सहेजने में ही खर्च हो जाता है | आम इंसान आम तरीके से सहजता से जीता हुआ शायद विशेष लोगों से बेहतर जीता है | सार्थक रचना प्रिय श्वेता , जो चिंतन को प्रेरित करती है | |
ReplyDeleteबहुत खूब शब्दों से बुना है जीवन का ताना बाना
ReplyDeleteपढ़कर कर अच्छा।लगा श्वेता जी
सभी तो जन्म लेते हैं
ReplyDeleteदेह में कफ़न लपेटे।
वाह!! बहुत सुंदर भावपूर्ण और एक दार्शनिक सोच से ओतप्रोत,बेहतरीन सृजन श्वेता जी,सादर नमन आपको
. बहुत दिनों के बाद आप की कलम की जादू ने इतना शानदार लिखा कि शब्द ही नहीं है क्या कहूं ....एक कालजायी रचना वाकई में दी ऐसा ही आप लिखिए बहुत कमाल का लिखा हैं
ReplyDeletenice post thanks for sharing
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