गीत अधूरा प्रेम का,
रह-रहकर मैं जाप रही हूँ।
व्याकुल नन्ही चिड़िया-सी
एक ही राग आलाप रही हूँ।
रह-रहकर मैं जाप रही हूँ।
व्याकुल नन्ही चिड़िया-सी
एक ही राग आलाप रही हूँ।
मौसम बासंती स्वप्नों का क्षणभर ठहरा,
पाँखें मन की शिथिल हुई सूना सहरा।
आँखों की हँसती आशाएँ बेबस हो मरीं,
भावों के मध्य एकाकीपन की धूल भरी।
विरहा की इस ज्वाला को,
स्मृतियों की आहुति दे ताप रही हूँ।
व्याकुल नन्ही चिड़िया-सी,
एक ही राग आलाप रही हूँ।
व्यग्र भावों के भोथरेपन का कोलाहल,
मधु पात्र में भरा आहों का हालाहल।
अधूरी कहानियाँ,अधलिखी कविताओं-सी
अधूरे चित्रों की रहस्यमयी नायिकाओं-सी।
तत्व-ज्ञान से परिपूर्ण इक जोगी की,
उपेक्षा हृदय में छाप रही हूँ।
व्याकुल नन्ही चिड़िया-सी,
एक ही राग आलाप रही हूँ।
समय की दरारों में पड़ा निश्चेष्ट मौन,
चेष्टाओं में प्रीत की भंगिमाएँ अब गौण।
तन के घर में मन मेरा परदेश रहा,
जीवन का अभिनय कितना शेष रहा?
प्रश्न ताल में डूबती-उतरती,
पुरइन पर बूँदों जैसी काँप रही हूँ.
व्याकुल नन्ही चिड़िया-सी,
एक ही राग आलाप रही हूँ।
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-श्वेता सिन्हा
-श्वेता सिन्हा
९अप्रैल २०२२
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शुभ संध्या..
ReplyDeleteसुंदर पंक्ति
व्याकुल नन्ही चिड़िया-सी,
एक ही राग आलाप रही हूँ।
सादर..
बहुत ही उम्दा 👌👌👌
ReplyDeleteएक नन्हीं चिड़िया के माध्यम से व्याकुल मन का खाका खींच दिया है ।
ReplyDeleteउपेक्षाओं को सहते हुए न जाने कितना वैराग्य सा छा जाता होगा , भला इसकी थाह कौन पा सकता है ? जीने की इच्छा ही जैसे खत्म हो जाती होगी ।
ऐसे में के भावों को बखूबी उकेर दिया है
।अद्भुत लेखन ।
ऐसे मन के भावों ..... पढा जाए ।
ReplyDeleteप्रिय श्वेता,जीवन में सब कुछ होते हुए भी अनगिन अधूरी कामनाएं इन्सान के भीतर जल में कंकर-सी पड़ी रहती हैं।कितने अनसुने गीत भीतर ही दम तोड़ देते हैं।
ReplyDeleteइस अपूर्णता से वैराग्य उपजता है और उम्दा सृजन भी !!! हृदय की इस टीस को शब्दों में सजा भावपूर्ण अभिव्यक्ति दी है तुमने, क्योंकि एक कवि मन ही इस अधूरेपन को शब्दांकित करने में सक्षम है। इस मर्मस्पर्शी रचना के लिए बधाई और शुभकामनाएं।
अनमोल पँक्तियाँ-------
ReplyDeleteसमय की दरारों में पड़ा निश्चेष्ट मौन,
चेष्टाओं में प्रीत की भंगिमाएँ अब गौण।
तन के घर में मन मेरा परदेश रहा,
जीवन का अभिनय कितना शेष रहा?
👌👌🌺🌺🌷🌷♥️♥️
बहुत प्यारी कविता🌷🌷
ReplyDeleteजीवन के कष्ट और तकलीफ़ों में भी जो मुस्कुराकर कविता कह दे, वही कवि है। आपको साधुवाद🌷
ReplyDeleteचुगती दाने आकुलता के,
ReplyDeleteविरह व्याकुल घूम रही हूं।
मन गहवर मदमस्त मीत को
चंचल चोंचों से चूम रही हूं।
अंतस पैठे साजन छवि को,
बहिरव्योम में व्याप रही हूं।
नहीं कदाचित व्याकुल अब मैं,
साजन - साजन जाप रही हूं।
विरह और प्रेम की भावनाओं को सँजोये सुंदर कविता
ReplyDeleteसचमुच प्रेम का हर गीत अनूठा होता है।
ReplyDeleteविरह वेदना का भावुक कर देने वाला गीत
ReplyDeleteइस गीत को पढ़कर,मनन कर लगा कि जैसे छायावादी युग लौट आया हो,उस युग कविता जीवित थी प्रेम,विरह ओर श्रृंगार के अद्भुत गीत रचे गए.
वर्तमान में कविता के नाम पर कुछ भी लिखा जा रहा है यह सुधि पाठक सब जानते हैं.
ऐसे समय में सुंदर बिंम्ब,सौंधे प्रतीक और गीत की किलकारी मन मोह लेती है.
श्वेता अपने तरह के लेखन में विश्वास रखती हैं और नए प्रतिमान गढ़ती है,यह महत्वपूर्ण गीत इसका प्रमाण है.
बहुत बहुत बधाई इस सुंदर गीत के लिए
समय की दरारों में पड़ा निश्चेष्ट मौन,
ReplyDeleteचेष्टाओं में प्रीत की भंगिमाएँ अब गौण।
तन के घर में मन मेरा परदेश रहा,
जीवन का अभिनय कितना शेष रहा?
तन के घर मन परदेशी!!!
वाह!! अद्भुत बिम्ब
चाही अनचाही परिस्थितियों में तन ही कैद रहता है मन पर किसका वश चलता है...हाँ मन के बिना तन भी तन कहाँ?
लाजवाब सृजन ।
प्रश्न ताल में डूबती-उतरती,
ReplyDeleteपुरइन पर बूँदों जैसी काँप रही हूँ.
व्याकुल नन्ही चिड़िया-सी,
एक ही राग आलाप रही हूँ।
नन्ही चिड़िया के माध्यम से प्रेम और विरह की भावना को बहुत ही खुबसूरती से व्यक्त किया है आपने, स्वेता दी।
वाह वाह व्याकुल चिड़िया की उपमा ने सब कुछ कह डाला. बहुत ही सुन्दर गीत है.
ReplyDeleteसमय की दरारों में पड़ा निश्चेष्ट मौन,
ReplyDeleteचेष्टाओं में प्रीत की भंगिमाएँ अब गौण।
तन के घर में मन मेरा परदेश रहा,
जीवन का अभिनय कितना शेष रहा?
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति।
सच में इसमें एक-एक शब्द की भागीदारी इस गीत को बहुत सुन्दर बना रहे हैं। बहुत सुंदर।
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