Monday, 22 April 2024

खो रहा मेरा गाँव

खो रहा मेरा गाँव

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पंछी और पथिक ढूँढ़ते सघन पेड़ की छाँव, 

रो-रो गाये काली चिड़िया खो रहा मेरा गाँव।


दहकती दुपहरी ढूँढ़ रही मिलता नहीं है ठौर;

स्वेद की बरखा से भींजे तन सूझे न कुछ और,

पुरवा आके सहला जा कड़वे नीम के बौर;

माटी के आँगन में हँसता बचपन का वो दौर,

बसवारी की लुका-छिपी खेलों का नहीं चाव;

यादों की सिगड़ी पर सिंकता खो रहा मेरा गाँव।


ताल-तलैया पाट दिये गुम झरनों का गीत;

बूँदों को मारे फिरें अब नदी कहाँ मनमीत,

पनघट,गगरी क़िस्से हो गये खो गये सारे रीत;

कोयल कूहके ठूँठ पर कैसे पात हो गये पीत,

साँझ ढले अब नहीं लौटते धूल उड़ाते पाँव;

भेड़-बकरियाँ मिमियायें खो रहा मेरा गाँव।


बरगद,नीम राह तके ख़ाली अब चौपाल है;

केंदु,इमली,जामुन,बेर मिल जाए तो कमाल है,

टेसू न श्रृंगार बने, सखुआ,पाकड़ का बुरा हाल है;

अमराई सूनी झूलों से भँवरों के लाख़ सवाल है,

महुआ की गंध से बौराये न काक करे अब काँव;

सरसों बिन तितली के रोये खो रहा मेरा गाँव।


शहरों की चकाचौंध ने बदल दिये सब रंग;

पगडण्डियाँ  सड़कें बन रहीं हरियाली है तंग,

खेत के काले मेड़ कहरते फैक्टरियों के संग;

दौर बदला, अब बदल गया जीने का सब ढंग,

सिकुड़ी नदियाँ बारिश में ही अब चलती है नाव,

प्रदूषण ने पैर पसारे खो रहा मेरा गाँव।


कितने क़िस्से कितनी बातें सबका एक निचोड़,

बस रहे कंकरीट के जंगल हरे पहाड़ को फोड़।

न खेत बचे तो क्या खायेंगे फिर धरती को खोड़,

मौसम का बीजगणित समझो संग प्रकृति को जोड़।

मौन आहट क़दमों की ये सब विनाश के दाँव,

धरती फूट-फूटकर रोये ख़ो रहा मेरा गाँव।


श्वेता



२७ मई २०१८

(आकाशवाणी जमशेदपुर से

साहित्यिक कार्यक्रम सुवर्ण रेखा में प्रसारित)


9 comments:

  1. कितने क़िस्से कितनी बातें सबका एक निचोड़,
    बस रहे कंकरीट के जंगल हरे पहाड़ को फोड़।
    हृदयस्पर्शी !!
    सचमुच औद्योगीकरण और शहरीकरण ने गावों को लील लिया है । सशक्त भावाभिव्यक्ति ।

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  2. खो रहे गाँव और सुरसा की तरह लील रहे कंकरीट के जंगल वाक़ई दुनिया को एक ऐसे युग में धकेल रहे हैं जिसका अंत अति भयानक हो सकता है, मानव को समय रहते चेतना होगा।
    अत्यंत प्रभावशाली लेखन श्वेता जी !

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  3. बहुत बहुत सुन्दर

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  4. सच में गाँव तो खो ही रहे हैं तथाकथित शहरीकरण वाले विकास ने प्रकृति का रंग ही बदल डाला है...इस सबके कारण हो रहे विनाश जैसे ग्लोबल वार्मिंग के अनदेखा करना हम मनुष्यों की सबसे बड़ी भूल है।

    मौन आहट क़दमों की ये सब विनाश के दाँव,
    धरती फूट-फूटकर रोये ख़ो रहा मेरा गाँव।
    इस विनाश के ओर ध्यान आकृष्ट कर सबको सचेत करती बहुत ही सारगर्भित रचना।
    बहुत ही लाजवाब।

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  5. This comment has been removed by the author.

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  6. प्रिय श्वेता यही सच है और बदलते गाँव में यही कुछ हो रहा है |भावी पीढियाँ शायद गाँव की मौलिकता कभी जान ही ना पायें | कुछ तुमसे मिलती -जुलती कुछ पंक्तियाँ कभी मैंने भी लिखी थी--
    गाँव देखने आई अम्मा
    ना पाया वैसा गाँव वहाँ!
    सूने पनघट और ताल-तलैया
    ना थी बरगद की छाँव वहाँ !
    गम हो गई सोन मछरिया .
    गंदले जल से भरी थी नदिया
    धुंधला था निर्मल जल का दर्पण
    माझी के गीत ना कोई रसिया
    परले पार पहुँचाने को अब
    ना थी दीनू की नाव वहाँ!

    बीते समय के वैभव की मधुर स्मृतियों को जगाती एक मार्मिक रचना के लिए हार्दिक बधाई |


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  7. सुधार**गुम हो गई

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आपकी लिखी प्रतिक्रियाएँ मेरी लेखनी की ऊर्जा है।
शुक्रिया।

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