Wednesday, 8 August 2018

अजीर्णता नदियों की



देखते-देखते जलधारा ने
लिया रुप विकराल
लील गयी पग-पग धरती का
जकड़ा काल कराल 

तट की चट्टानों से टकरा
विदीर्ण जीवन पोत हुआ
बिखरा, टूटा, अवसादग्रस्त
क्रंदन से विह्वल स्रोत हुआ

करुण चीत्कार,हाय पुकार
दहती गृहस्थी ,टूटते सपने
आँख पनीली,कोई देखे कैसे?
जलसमाधि में बचे न अपने

नभ ताकती भूखी आँखों से
गिरता हया-शरम का पानी
सिकुड़ी आँतें,सूखे अधर पर
है विप्लव की पड़ी निशानी

राहत शिविर,रिरियाता बेबस
दानों को मुहताज कलपता
लाशों का व्यापार सीखकर
मददगार अपना घर भरता

फ्लैश चमकती,सुर्खियाँ बनती
ख़बर चटपटी,स्वादिष्ट हो छनती
मुआवज़े का झुनझुना थमाकर
योजनायें,जाँच-समितियाँ जनतींं

जी-भर मनमानी कर पानी
लौटा अपनी सीमाओं में
संड़ांध,गंदगी,महामारी की 
सौगात भर गयी राहों में

हाय! अजीर्णता नदियों की
प्रकृति का निर्मम अट्टहास
मानव पर मानव की क्रूरता
नियति का विचित्र परिहास

--श्वेता सिन्हा

Tuesday, 31 July 2018

क़लम के सिपाही


क़लम के सिपाही,
जाने कहाँ तुम खो गये?

है ढूँढती लाचार आँख़ें
सपने तुम जो बो गये
अन्नदाता अन्न को तरसे
मरते कर्ज और भूख से

कौन बाँटे दर्द बोलो
हृदय के सब भाव सूखे
कृषक जीवन के चितरे
जाने कहाँ तुम खो गये?

जो कहे बदली है सूरत
आईना उनको दिखाते
पेट की गिनकर लकीरें
चीख़कर मरहम लगाते

पोतकर स्याही कलम की
जयगान सब लिखने लगे
जली प्रतियाँ लेकर गुम हुए
जाने कहाँ तुम खो गये?

वो नहीं अभिशप्त केवल
देह,मन उसका स्वतंत्र है
नारी तुम्हारी लेखनी से
शुचि सतत पूजन मंत्र हैं

रो रही, बेटियाँ तेरी याद में
लगा है, बाज़ार अब तो प्रेम का
सौंदर्य मन का पूछता तेरा पता
जाने कहाँ तुम खो गये?

जाति,धर्म की तलवार से
बँट के रह गयी लेखनी
प्रेम और सौहार्द्र स्वप्न हैं
स्याही क़लम अब फेंकनी

जन-मन कथा सम्राट तुम
जीवन का कटु यथार्थ तुम
साहित्य की साँसों को लेकर
जाने कहाँ तुम खो गये?

--श्वेता सिन्हा


Sunday, 29 July 2018

क्यूँ जीते जाते


ब्रह्मांड में धरा का जन्म
धरा पर जीवन का अंकुरण
प्रकृति के अनुपम उपहारों का
क्यूँ मान नहीं कर पाते हैं?

जीवन को प्रारब्ध से जोड़
नियति को सत्य मानकर
आड़ी-तिरछी रेखाओं में उलझे
क्यों कर्म से पीछा छुड़ाते है?

माया-मोह में गूँथ भाव मन
दुख-सुख का अनुभव करते
मन की पीड़ा में उलझकर
हम स्वयं का अस्तित्व मिटाते है?

जनम का उद्देश्य सोचती
है क्या मेरे होने न होने से अंतर
मोह क्यों इतना जीवन से
क्यूँ भौतिक सुख में भरमाते हैं?

जीवन-मरण है सत्य शाश्वत
नश्वर जग,काया-माया छलना
जीव सूक्ष्म कठपुतली ब्रह्म के
हम जाने क्यूँ जीते जाते है?

व्यथा जीवन की भुलाती
गंध मृत्यु की बड़ी लुभाती 
जीवन से अनंत की यात्रा में
चिर-निद्रा में पीड़ा से मुक्ति पाते है।

-श्वेता सिन्हा

Monday, 23 July 2018

बरखा


                   

श्यामल नभ पर अंखुआये 
कारे-कारे बदरीे गाँव
फूट रही है धार रसीली
सुरभित है बरखा की छाँव

डोले पात-पात,बोले दादुर
मोर,पपीहरा व्याकुल आतुर
छुम-छुम,छम-छम नर्तन 
झाँझर झनकाती बूँद की पाँव

किलकी नदियाँ लहरें बहकी
जलतरंग जल पर चहकी
इतराती बलखाती धारा में
गुनगुन गाती मतवारी नाव

गीले नैना भर-भर आये
गीला मौसम गीली धरती
न हरषाये न बौराये 
बरखा बड़ी उदास सखी

आवारा ये पवन झकोरे
अलक उलझ डाले है डोरे
धानी चुनरी चुभ रही तन को
मन संन्यासी आज सखी 

 बैरागी का चोला ओढ़े
गंध प्रीत न एक पल छोड़े
अंतस उमड़े भाव तरल
फुहार व्यथा अनुराग सखी

 --श्वेता सिन्हा


Wednesday, 18 July 2018

मेरा मन

ये दर्द कसक दीवानापन
ये उलझा बिगड़ा तरसता मन
दुनिया से उकताकर भागा
तेरे पहलू में आ सुस्ताता मन


दो पल को तुम मेरे साथ रहो

तन्हा है तड़पता प्यासा मन
तेरी एक नज़र को बेकल
पल-पल कितना अकुलाता मन


नज़रें तो दर न ओझल हो

तेरी आहट पल-पल टोहता मन
खुद से बातें कभी शीशे से
तुझपे मोहित तुझे पाता मन


तेरी तलब तुझसे ही सुकून

हद में रह हद से निकलता मन
दुनिया के शोर से अंजाना
तुमसे ही बातें करता मन


बेरूख़ तेरे रूख़ से आहत

रूठा-रूठा कुम्हलाता मन
चाहकर भी चाहत कम न हो
बस तुमको पागल चाहता मन

        #श्वेता सिन्हा

Thursday, 12 July 2018

तुम नील गगन में


आँखों में भर सूरत उजली
मैं स्वप्न तुम्हारे बुनती हूँ
तुम नील गगन में रहते हो
मैं धरा से तुमको गुनती हूँ

न चाहत तुमको पाने की
न दुआ है संग मर जाने की
तुम हँसकर एक नज़र देखो
ख़्वाहिश दिल की मैं सुनती हूँ

तेरा साथ मुझे अपना-सा लगे
गुलकंदी इक सपना-सा लगे
रिमझिम बरसे रस चंदनियाँ
तेरी महक साँस में चुनती हूँ

 तुम्हें देख के आहें भरती हूँ
 सच कहती हूँ तुमपे मरती हूँ
 उजले लबों की छुअन तेरी
 छलकी,बहकी मैं बहती हूँ

मेरे चाँद ये दिल था वैरागी
तुझसे ही मन की लगन लागी
मन वीणा के निसृत गीतों में
प्रिय चाँद की धुन मैं सुनती हूँ

   -श्वेता सिन्हा


Saturday, 7 July 2018

कचरे में ज़िंदगी की तलाश


अक्सर गली के उस मुहाने पर आकर
थम जाते है मेरे पैर
जहाँ मुहल्लेभर का कचरा 
बजबजाते कूड़ेदान के आस-पास बिखरा होता है
आवारा कुत्तों की छीना-झपटी के बीच
चीकट,मटमैली 
फटी कमीज, गंदला निकर पहने
वो साँवले मासूम बच्चेे 
बात-बात पर
ऊँची आवाज़ में भद्दी गालियाँ देते
ठहाके लगाते
पीली आँखें मिचमिचाते
बिखरे भूरे जटा-जूट बाल,
मरियल कुपोषित तन लिए
कचरे के ढेर से
अपने सपने बीनते है
गंदी प्लास्टिक की बोतल,
टीन,गत्ते के डब्बे, टूटे खिलौने
और भी न जाने क्या-क्या
आवारा  चौपायों 
के बीच से चुनकर
किसी बेशकीमती मोती-सा
 प्लास्टिक के बदबूदारे बोरे में भरते
पीठ पर स्कूल बैग की जगह
कचरे का बोझ लादे नौनिहाल
जन्मते ही यकायक जिम्मेदार हो जाते हैं
पेट की आग बुझाने को
बेचते हैं कचरा,
फुटपाथ, मंदिर की सीढ़ियों,
गंदे नालों के किनारे
फटे,मैले टाट ओढ़े निढाल
सिकुड़े बेसुध सो जाते हैं 
डेंडराइट के नशे में चूर।
किसी भी फोटोग्राफी प्रतियोगिता के लिए
सर्वश्रेष्ठ चेहरे बनते 
अखबार और टेलीविजन पर
दिए जाने वाले 
"बचपन बचाओ" के नारों से बेख़बर,
कचरे में अपनी ज़िंदगी तलाशते
मासूमों को देखकर,
बेचैन होकर कहती हूँ ख़ुद से
गंदगी की परत चढ़ी
इनके कोमल जीवन के कैनवास पर
मिटाकर मैले रंगों को
भरकर ख़ुशियों के चटकीले रंग
काश! किसी दिन बना पाऊँ मैं
इनकी ख़ूबसूरत तस्वीर।

     --श्वेता सिन्हा


Thursday, 5 July 2018

काश! हमें जो.प्यार न होता


हृदय हीनता के हाथों
प्रहर प्रथम प्रहार न होता
मान और मनुहार न होता
काश! हमेंं जो प्यार न होता

अब आयेंगे सोच सोच कर
उत्कंठा अपरावार न रहता
उपेक्षा की चोट ये उनकी
बारम्बार ये वार न सहता

नयनों का नैश नशा उनका
अब भी मन को मदमा जाता
किन्तु कुटिल के कूट कृत्य
छल भी क्षण में भरमा जाता

कहते है कंकरीले पथ पर
पुष्प पराग पसारेंगे
धुक-धुक करती धमनी में
अनुरक्त रक्त वह ढारेंगे

 फिर जगे जब सपने आसों के
डरते निर्दय दुत्कार न होता
 समर्पण का व्यापार न होता
काश! हमेंं जो प्यार न होता

 -श्वेता सिन्हा
  

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...