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Tuesday, 31 July 2018

क़लम के सिपाही


क़लम के सिपाही,
जाने कहाँ तुम खो गये?

है ढूँढती लाचार आँख़ें
सपने तुम जो बो गये
अन्नदाता अन्न को तरसे
मरते कर्ज और भूख से

कौन बाँटे दर्द बोलो
हृदय के सब भाव सूखे
कृषक जीवन के चितरे
जाने कहाँ तुम खो गये?

जो कहे बदली है सूरत
आईना उनको दिखाते
पेट की गिनकर लकीरें
चीख़कर मरहम लगाते

पोतकर स्याही कलम की
जयगान सब लिखने लगे
जली प्रतियाँ लेकर गुम हुए
जाने कहाँ तुम खो गये?

वो नहीं अभिशप्त केवल
देह,मन उसका स्वतंत्र है
नारी तुम्हारी लेखनी से
शुचि सतत पूजन मंत्र हैं

रो रही, बेटियाँ तेरी याद में
लगा है, बाज़ार अब तो प्रेम का
सौंदर्य मन का पूछता तेरा पता
जाने कहाँ तुम खो गये?

जाति,धर्म की तलवार से
बँट के रह गयी लेखनी
प्रेम और सौहार्द्र स्वप्न हैं
स्याही क़लम अब फेंकनी

जन-मन कथा सम्राट तुम
जीवन का कटु यथार्थ तुम
साहित्य की साँसों को लेकर
जाने कहाँ तुम खो गये?

--श्वेता सिन्हा


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मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...