Saturday, 23 November 2019

परदेशी पाहुन

चित्र:साभार गूगल

(१)★★★★★★
अपनी जड़ों में 
वापस लौटने का,
स्वप्न परों में बाँधे
आते हैं परदेशी
नवजीवन की चाह में
आस की डोरी थामे
नगर,महानगर
नदी,पोखरा
सात समुंदर पार से
सरहद विहीन 
उन्मुक्त नभ की 
पगडंडियों में
हवाओं की मौन ताल पर
थिरकते 
इंद्रधनुषी धूप की
रेशमी जाल कुतरते
कतारबद्ध,अनुशासित
दाना-पानी की
टोह में प्रकृति के सुरम्य
गोद में उतरते हैं 
ऋतुओं की डोली से
प्रतिवर्ष असंख्य
परदेशी पाहुन...।
मेघदूत बने
अनगिनी,अनसुनी,अनदेखी
कहानियों की पुर्ज़ियाँ ....
बर्फीली वादियों की,
हँसते श्वेत फूलों की,
बादलों के चादर ताने सोये 
शर्मीले चंदा की,
सजग सीमा प्रहरियों के 
डबडबायी आँखों की,
अनगिनत संदेशों के लिफ़ाफ़े 
अपने चोंच में दबाये
अबूझ बोलियों में
सुनाकर,बाँटकर आँसू
मुसकान देने आते हैं
परदेशी पाहुन।

(२)★★★★★★★★
इस बार भी
अपनी यादों में
एक मदहोश मौसम
की खुशबू बसाये 
प्रवासी उत्सुकता में
आये हैं मिलने,सुनने-सुनाने
यात्रा-विवरण 
मिलकर अपने 
चिरपरिचित मित्रों से
पेड़ों,झुरमुटों,पर्वतों
घाटियों,नदियों से...
सुनाने झीलों को साइबेरियाई गीत... 
उत्साह में चहचहाते,किलकते
हज़ारों मील की
थकान बिसराये
प्रवेश करते हैं शहरों की
सीमाओं में
दमघोंटू धुँध में...
परपराती आँखों 
जलते कलेजे से घबराये
सुस्ताने की चाह में 
ढूँढते अपने वृक्ष मित्रों को,
समतल होते
पर्णहीन पर्वत शिखरों के
टूटे पाषाण के टुकड़े हताशा से निहारते,
ठूँठ वनों की दुर्दशा का
क्षोभ नन्हें हृदय में समेटे,
छुई-मुई-सी
नदियों की तट पर ठिठके,
अपनी प्रिय झील की
बाहों में आकर चैन मिला
राह की भयावह कटु स्मृतियों की
 वेदना बिसरा देना चाहते थे
झील की मेहमाननवाज़ी में
उछलते-कूदते,शोर मचाते
चक्ख़ते ही भोजन-पानी
"एवियन बॉटुलिज्‍म" का शिकार
सुस्त पड़कर,ऐंठकर
पटपटाकर मौत की आग़ोश में
सो गयें।
निर्दोष,निर्मल झील
मनुष्य के कर्मों के द्वारा शापित
होकर मौन पीड़ा सहती
अपने मासूम,निरीह परदेशी पाहुनों के
बेजान देह लिये पथराई
सामूहिक हत्या का दोष 
कलंकित आतिथ्य
का बोझ आजीवन ढोने को
मजबूर हैं।

#श्वेता

Thursday, 21 November 2019

संस्कार संक्रमण



हाय! हम क्यों नहीं सोच रहे?
अपने भविष्य की सीढ़ियों को
अपने आने वाली पीढियों को
कैसी धरोहर हम सौंप रहे?
धर्म और शिक्षा में राजनीति
 संस्कार संक्रमण रोप रहे?

भाषाओं को पहनाकर धर्म 
अस्पृश्य बना रहे हो क्यों?
ढोंगी मानवता के रक्षक
हृदयों को बाँट रहे हो क्यों?
 समाज के स्वार्थी ठेकेदारों
क्यों विषधर खंजर घोप रहे?

आधुनिकता का भोंपू ताने
बेतुके तमाशे बेमतलब का शोर
बदलाव का क्यों भरते हैं दंभ
बाहर आ जाते मन के चोर
अपने आँगन के पौधों को
क्यों काँटों से हम तोप रहे?

मुस्तफ़ा खाँ 'मद्दाम' का 
समृद्ध उर्दू-हिंदी शब्दकोश
क्यों न हम रोक सके थे...?
'बुल्के' का रामकथा पर शोध
भाषा कल-कल बहता नीर
सरहदों में बाँध क्यों रोक रहे?

मत बनाओ नस्लों को
साम्प्रदायिकता का शिकार
संकीर्ण मनोवृत्तियों से पनपी
'कूपमंडूकता' है एक विकार
संस्कृति के नाम पर कैसी
रुग्ण मानसिकता थोप रहे?

जाने हम क्यों नहीं सोच रहे?

#श्वेता सिन्हा

Sunday, 17 November 2019

मैं भूल जाना चाहती हूँ



भुलक्कड़ रही सदा से
बचपन से ही
कभी याद न रख सकी
सहेज न सकी
कोई कड़ुवाहट
सखियों से झगड़ा
सगे या चचेरे-ममेरे
भाई बहनों से तीखी तकरार
हाथ-पाँव पर लगे
चोट पर लगा दिया करती थी
चुपचाप अपने आँसुओं का फ़ाहा
बिना किसी दर्द के शिकायत के
दादी-बुआ के तानों का
पास-पड़ोस के गप्प गोष्ठियों में
अपने रुप की तुलनात्मकता का
सहपाठियों के उपहास का
कोई शब्द याद नहीं
बदसूरती के तमगे को
हँसकर सहजता से स्वीकार किया
 तिरस्कार की खाद पर
उगाती रही मुस्कुराकर सदैव
खूबसूरत रिश्तों के फूल

उम्रभर
कभी बाँट न सकी
मन की व्यथा
भुलाती रही हमेशा
विषैले नश्तर
छीलकर मन की
कठोर परतों को
बोती रही कोमलता
जीवन के हर मोड़ पर
प्रक्षालित करती रही आत्मा
स्व का आकलन करती रही
 हर पड़ाव में
बाँटती रही खुशियाँ

पर फिर भी जाने कैसे
कुछ अटका रह गया 
जिसे चाहकर भी,
तमाम कोशिशों के बाद भी
भुला नहीं पाया मन
कुछ चुभाये गये दंश
सहजता से भूलने की आदत
कभी कोई नाम आते ही
सजग हो जाता है,
अस्फुट बड़बड़ाहट
अनवरत गूँजते हैं कानों में
मन की परतों को उधेड़ने लगते हैं,
बेकल छटपटाहट 
प्रार्थना करती है
हर वो शब्द मन से मिटाने का
जो लहुलुहान करता है,
एहसास होता है कि भूलना
कभी-कभी सरल नहीं होता...।

आजीवन सोचती रही
पर्याप्त होता है
पूर्ण समर्पित प्रेम होना
बिना किसी आशा के
आकांक्षारहित होकर
प्रेम के चरणों में
पवित्र मन के पुष्प अर्पित करने
भर से ही
प्रेम अबोले मन की भाषा के
अव्यक्त भाव पढ़कर
प्रतिदान स्वरूप "प्रेम" उड़ेल देगा
रिक्त झोली में
अपने भ्रम को सत्य की तरह
जीती रही
विश्वास और अतिभावुकता
के रेशे से गूँथती रही "नेह"....,
पर अब भूल जाना चाहती हूँ
दी हुई सिसकती निशानियाँ
पीड़ा और टूटे विश्वास की
सारी किर्चियाँ...

झाड़-पोंछकर स्वच्छ कर देना
चाहती हूँ 
अपने मन पर उगे काँटें
निकाल देना चाहती हूँ
कोमल और अबोध हृदय पर
पनपे नेह वृक्ष
जो सिर्फ़ प्रेम के लिये
मंगलकामनाएँँ करता है
उसे प्रतिदिन अंजुरीभर 
निःस्वार्थ भावजल से सींचना
चाहती हूँ...
किसी भी प्रतिदान
की अपेक्षा किये बगैर।

#श्वेता

Wednesday, 13 November 2019

इन खामोशियों में...


इन ख़ामोशियों में बड़ी बेक़रारी है,
ग़ुजरते लम्हों में ग़म कोई तारी है।

गुज़रता न था एक पल जिनका,
 अपनी परछाई भी उन पे भारी है।

हर्फ़ तर-ब-तर धुंधला गयी तस्वीर,
दिल में धड़कनों की जगह आरी है।

दुनियावी शोर से बेख़बर रात-दिन,
उनकी  आहट  की  इन्तज़ारी है।

हिज़्र के जाम पीकर भी झूम रहे,
अजब उनके चाहत की ख़ुमारी है।

हादसों का सफ़र खुशियों से ज्यादा,
कुछ इस तरह चल रही सवारी है।

ऐ ज़िंदगी! जी चुके जी-भर हम,
अब जश्न-ए-मौत तुम्हारी बारी है।

#श्वेता सिन्हा


Sunday, 10 November 2019

इंद्रधनुष



ओ मेरे मनमीत
लगभग हर दिन
तुमसे नाराज़ होकर
ख़ुद को समेटकर
विदा कर आती हूँ
हमारा प्रेम....
फिर कभी तुम्हें
अपनी ख़ातिर
व्याकुल न करने का
संकल्प लेकर..
मुझसे बेहतर
 प्रेम का तुम्हें
प्रतिदान मिले
प्रार्थनाओं के साथ....,


पर एक डग भी नहीं
बढ़ा पाती,..
मेरा आँचल पकड़े
एक ज़िद्दी बच्चे की तरह...
ख़्यालों में तुम्हारे मुस्कुराते ही
संकल्पों का पर्वत
पिघलकर अतृप्त 
सरिता-सा
तुम्हारे नेह की बारिश 
में भींगने को
आतुर हो जाता है।

धवल चाँद का पाश 
पायलों से घायल
ख़ुरदरे पाँवों में 
 पहना देते हो तुम
मल देते हो मेरी
गीली पलकों पर
मुट्ठी भर चाँदनी....
मैं खीझ उठती हूँ
आखिर क्यों चाहिये 
तुम्हें मेरा बँटा मन?
और तुम कहते हो
पूर्णता शून्य है....

फिर हौले से
मेरी मेघ आच्छादित
पलकों से चुनकर
कुछ बूँदें रख देते हो
अपने मन के 
आसमान पर..
गुस्से का कोहरा
छँटने के बाद
भावनाओं के सूरज की
किरणें जब मुझसे
टकराकर तुम्हें छुये तो
क्षितिज के कोर पर उगे
प्रेम के अनछुये इंद्रधनुष,
जिसकी छाँव में
हम आजीवन बुनते रहेंं
अनदेखे स्वप्न और
सुलझाते रहें गाँठ
जीवन के जटिल सूत्रों के

#श्वेता सिन्हा

Thursday, 31 October 2019

सोच ज़माने की

लच्छेदार बातों के सुंदर खोल में बसा
आधुनिक युग की बेटियों का संसार
मुट्ठीभर प्रगतिशील बेटियों से हटाकर आँखें
कल्पनाओं के तिलिस्म के बाहर
अक़्सर जब यथार्थ की परतों में झाँकती हूँ
तो पूछती हूँ यह प्रश्न स्वयं से
बेटियों के लिए सोच ज़माने ने कब बदली?

आज भी तो नवजात बिटिया के 
जन्म पर,भविष्य के भार से 
काँपते कंधों को संयत करते
कृत्रिम मुस्कान से सजे अधरों और
सिलवट भरे माथे का विरोधाभास लिये
"आजकल बेटियाँ भी कम कहाँ है"
जैसे शब्दांडबर सांत्वना की थपकी देते
माँ-बाबू पर दया दृष्टि डालते परिजन की
"लक्ष्मी आई है"के घोष में दबी फुसफुसाहटें
खोखली खुशियाँ अक्सर पूछती हैं
बेटियों के लिए सोच ज़माने ने कब बदली?

देखा है मैंने 
दिन-रात की मनौतियों
देवता -पित्तर से बेटे के
आशीष की गुहार में
अनचाही उगी बेटियाँ
बाप-भाई के दूध-बताशे के कटोरे में
पानी में भीगी 
बासी रोटियाँ खाकर तृप्त
खर-पतवार-सी बढ़ती जाती हैं
पढ़ाई के लिए कॉपी के बचे पन्ने,
बिना कैप वाली आधी रिफिल 
भैय्या का पुराना बैग सहेजती
सुनती है घर के बुज़ुर्गों से
कुछ काम-काज सीख ले...
कलैक्टर बन भी गयी तो 
चूल्हा ही फूँकेंगी सुनकर सोचती हूँ
बेटियों के लिए सोच ज़माने ने कब बदली?

आज भी तो एक लड़की के
घर से बाहर अकेले क़दम रखते ही
हर आँख तन को भेदती है
उसके कपड़े के मोटाई नापती
मुँह पर लगा क्रीम-पाउडर जाँचती
बालों की बनावट का निरीक्षण 
उसकी मुस्कुराहट और हँसी का रहस्य
उसके हर एक हाव-भाव का 
सूक्ष्म चारित्रिक विश्लेषण 
सयानी होती बेटियों के
इर्द-गिर्द घूमती दुनिया देख 
अनायास ही सोचती हूँ
बेटियों के लिए सोच ज़माने ने कब बदली?

समाज के आइने में खड़ी
दिन-रात निहारती है
बेटों के रत्नजड़ित 
आदमक़द तस्वीरों के आस-पास 
बस यूँ ही खींची गयी लकीरों में
अपनी छवियों को
आज भी सीता की तरह
चारित्रिक धवलता का प्रमाण देती
द्रौपदी की तरह अपमान सहती
अहिल्या की तरह अभिशप्त होती
शंकुतला की तरह बिसराई गयी
पुरुष के आगे बेबस बेटियों को
अपने अस्तित्व के लिए 
जूझती देखकर सोचती हूँ
बेटियों के लिए सोच ज़माने ने कब बदली?
बेटियों के लिए सोच ज़माने की कभी नहीं बदली...।


#श्वेता सिन्हा
साहित्य कुंज के फरवरी द्वितीय अंक में प्रकाशित।
http://m.sahityakunj.net/entries/view/soch-zamaane-kee


Thursday, 24 October 2019

सफ़र जीवन का....


सफ़र जीवन का यूँ अनवरत चलता रहा
अंधेरों में मन के विश्वास दीप जलता रहा

जख़्म छूकर पूछ बैठे चोट ये कैसे लगी?
दर्द मन का बूँद बनकर आँख से गलता रहा

राह की वीरानियाँ टोक देती पाँवों को
दो क़दम बस और कहकर बैठना टलता रहा

कह रही गवाहियाँ मंजिलें उसको मिली 
चाँद-सूरज की तरह जो डूबकर उगता रहा 

हार करके बैठना मत आँधियाँ पलभर की हैं
जीत उसकी ही हुई जो डग सदा भरता रहा

द्वेष मिटाता रहा मनुष्य और मनुष्यता
सृष्टि का हर एक कण बस प्रेम में पलता रहा

#श्वेता सिन्हा

Monday, 21 October 2019

अधिकार की परिभाषा

परिभाषा
-------
जब देखती हूँ 
अपनी शर्तों पर
ज़िंदगी जीने की हिमायती
माता-पिता के
प्रेम और विश्वास को छलती,
ख़ुद को भ्रमित करती,
अपनी परंपरा,भाषा और संस्कृति 
को "बैकवर्ड थिंकिंग" कहकर
ठहाके लगाती
नीला,लाल,हरा और
किसिम-किसिम से
रंगे कटे केश-विन्यास
लो जींस और टाइट टॉप
अधनंगें कपड़ों को आधुनिकता का
प्रमाण-पत्र देती
उन्मुक्त गालियों का प्रयोग करती
सिगरेट के छल्ले उड़ाती
आर्थिक रुप से सशक्त,
आत्मनिर्भर होने की बजाय
यौन-स्वच्छंदता को आज़ादी
का मापदंड मानती
अपने मन की प्रकृति प्रदत्त
कोमल भावनाओं
को कुचलकर
सुविधायुक्त जीवन जीने
के स्वार्थ में
अपने बुज़ुर्गों के प्रति
संवेदनहीन होती
लड़कों के बराबरी की
 होड़ में दिशाहीन
 आधा तीतर आधा बटेर हुई
 बेटियों को देखकर
 सोचती हूँ
आख़िर हम अपने
किस अधिकार की
लड़ाई की बात करते हैं?
क्या यही परिभाषा है
स्त्रियों की
आज़ादी और समानता की?

#श्वेता सिन्हा

हस्ताक्षर पत्रिका के मार्च अंक में प्रकाशित।
https://www.hastaksher.com/rachna.php?id=2293


मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...