Thursday, 23 April 2020

किताबें...स्मृतियों के पन्नों से



पहली कक्षा में एडमिशन के बाद नये-नये यूनीफॉर्म ,जूतों,नयी पेंसिल,रबर, डॉल.वाली पेंसिल-बॉक्स , स्माइली आकार की प्लास्टिक की टिफिन-बॉक्स,नया बैग और उसके साथ-साथ
नयी कॉपी-किताबों की ख़ुशबू से पहला परिचय हुआ मेरा।
जब उच्चारण करके किताबें पढ़ना सीखे, अक्षर-शब्द जोड़कर अटक-अटककर  तो हिंदी की किताबों की कहानी और कविताएँ बहुत अपनी लगी थी और उत्सुकता वश पूरी किताब पढ़ गये थे
प्रथम कक्षा में पढ़ी पहली कविता की चंद पंक्तियाँ आज तक याद  है..
पूरब का दरवाजा खोल
धीरे-धीरे सूरज गोल
लाल रंग बिखराता है
ऐसे सूरज आता है....
और
काली कोयल बोल रही है
डाल-डाल पर डोल रही है....

फिर तो जैसे हिंदी की किताबों से विशेष लगाव जुड़ गया था। घर पर मेरी दादी को बाल-पत्रिका पढ़ने का शौक था इसलिए चम्पक,नंदन,चंदामामा,पराग, पिंकी, बिल्लू,मोटू-पतलू,चाचा चौधरी पढ़ते-पढ़ते कब  प्रेमचंद और जयशंकर प्रसाद,पंत,निराला और महादेवी वर्मा पढ़ने लगे याद ही नहीं।
पर पढ़ना सदा से ही पसंद है।
कोई नयी साहित्यिक किताब हाथ आई नहीं कि सारा काम-धाम भूलकर डूब जाते हैं जब तक खत्म न हो जाये। इन किताबों के चक्कर में कभी-कभी खाना जल जाता तो कभी कोई जरुरी अप्वाइंटमेंट भूल जाते हैं पर किताबों से मोह कभी कम नहीं होता।


निर्जीव किताबों की सजीव बातें
भाती हैं मन को एकांत मुलाकातें
किताबें मेरी सबसे खास दोस्त 
जिसके पन्नों से आती खुशबू में डूबकर
जिनके सानिध्य में सुख-दुख भूलकर
शब्दांकन में,पात्रों में,
आम ज़िंदगी के किरदारों से
रु-ब-रु होकर,
उसमें निहित संदेश आत्मसात करके
विचारों का एक अलग ब्रह्मांड रचकर,
उसमें विचरकर, भावों के सितारे तोड़कर
उसे कोरे पन्नों पर सजाना
बहुत अच्छा लगता है।


©श्वेता सिन्हा


Monday, 20 April 2020

भीड़


रौद्र मुख ,भींची मुट्ठियाँ,
अंगार नेत्र,तनी भृकुटि
ललकार,जयकार,उद्धोष
उग्र भीड़ का
अमंगलकारी रोष।

खेमों में बँटे लोग 
जिन्हें पता नहीं
लक्ष्य का छोर
अंधाधुंध,अंधानुकरण,अंधों को
क्या फ़र्क पड़ता है
लक्ष्य है कौन?

अंधी भीड़
रौंदती है सभ्यताओं को
पाँवों के रक्तरंजित धब्बे
लिख रहे हैं
चीत्कारों को अनसुना कर
क्रूरता का इतिहास।

आत्माविहीन भीड़ के
वीभत्स,बदबूदार सड़े हुये
देह को
धिक्कार रही है
मानवता। 

©श्वेता सिन्हा
२०अप्रैल२०२०
------

Saturday, 18 April 2020

तमाशा


 भूख के नाम पर,
हर दिन तमाशा देखिये।

पेट की लकीरों का
चीथड़ी तकदीरों का,
दानवीरों की तहरीरों में
शब्दों का शनाशा देखिये।

उनके दर्द औ' अश्क़ पर
दरियादिली के मुश्क पर,
चमकते कैमरों के सामने
बातों का बताशा देखिये।

सपनों भरा पतीला लेकर
घोषणाओं का ख़लीता देकर,
ख़बरों में ख़बर होने की
होड़ बेतहाशा देखिये।

बिकते तैल चित्र अनमोल
उधड़े बदन,हड्डियों को तोल,
जीवित राष्ट्रीय प्रदर्शनी में 
चिरपरिचित निराशा देखिये।

मेंढकों की आज़माइश है
दयालुता बनी नुमाइश है, 
सिसकियों के इश्तिहार से,
बन रहे हैं पाशा देखिये।

 भूख के नाम पर,
हर दिन तमाशा देखिये।

©श्वेता सिन्हा
१८अप्रैल२०२०

शब्दार्थ:
-------
शनाशा- जान-परिचय
मुश्क  - बाँह,भुजा
ख़लीता- थैला
पाशा - तुर्किस्तान में बड़े बड़े अधिकारियों और सरदारों को दी जानेवाली उपाधि।



Thursday, 16 April 2020

सच


किसी सिक्के की तरह
सच के भी दो पहलू 
होते हैं...!

आँखों देखी सच का
अनदेखा भाग 
समझ के अनुसार
सच होता है।

सच जानने की
उत्कंठा में
राह की भूलभूलैया में
भटकते हुये थककर
खो जाते हैं अक़्सर
अन्वेषण
सच की 
भ्रामक परछाईंयों में।

सच ठहरा होता है,
अविचल,अभेद्य
मूक-बधिर सच
निर्विकार,निश्चेष्ट
देखता-सुनता रहता है
विरूदावली
आह्वान और प्रलाप।

सच के स्थिर,सौम्य
दैदीप्यमान प्रकाश के 
पीछे का सच
उजागर करने के लिए
किये गये यत्न में
अस्थिर किरणों के
प्रतिबिंब में
खंडित सच
बरगलाता है।

सच का 
एक से दूसरे तक
पहुँचने के मध्य
दूरी चाहे शून्य भी हो तो
परिवर्तित हो जाता है 
वास्तविक स्वरूप।

सच शिला की भाँति
दृढ़प्रतिज्ञ,अडिग
मौन दर्शक होता है 
तथाकथित
सच के वाहक
करते हैं गतिमान सच 
अपने मनमुताबिक
सच के प्रवक्ता
सच के नाम पर
जितना मोहक
मायाजाल बुन पाते हैं
सच के सच्चे योद्धा
सर्वश्रेष्ठ सेनानी का 
तमगा पाते हैं।

©श्वेता सिन्हा
१६अप्रैल२०२०
----

Thursday, 9 April 2020

दायित्व


प्रकृति के कोप के
विस्फोट के फलस्वरूप
नन्हें-नन्हें असंख्य मृत्यु दूत
ब्रह्मांड के अदृश्य पटल से
धरा पर आक्रमण कर
सृष्टि से
मानवों का अस्तित्व मिटाने के लिए
संकल्प रखा हो मानो..
जीवन बचाने के लिए
वचनबद्ध,कर्मठ,
जीवन और मृत्यु के महासमर में
रक्षक बनकर
सेनापति चिकित्सक एवं उनके
असंख्य सहयोगी योद्धा
यथाशक्ति अपनी क्षमता अनुरुप
भूलकर अपना सुख,
घर-परिवार 
मृत्यु से साक्षात्कार कर रहे हैं
अस्पतालों के असुरक्षित रणभूमि में
मानव जाति के प्राणों को
सुरक्षित रखने के लिए संघर्षरत  
अनमयस्क भयभीत
क्षुद्र मानसिकता
मूढ़ मनुष्यों के तिरस्कार,
अमानवीय व्यवहार से चकित 
आहत होकर भी
अपनी कर्मठता के प्रण में अडिग
मृत्यु की बर्बर आँधी से
उजड़ती सभ्यताओं की 
बस्ती में,
सुरक्षा घेरा बनाते
अपने प्राण हथेलियों पर लिये
मानवता के
साँसों को बाँधने का यत्न करते,
जीवन पुंजों के सजग प्रहरियों को
कुछ और न सही
स्नेह,सम्मान और सहयोग देकर
इन चिकित्सक योद्धाओं का
मनोबल दृढ़ करना
प्रत्येक नागरिक का
दायित्व होना चाहिए।

#श्वेता

९अप्रैल२०२०

Wednesday, 8 April 2020

शायद....!!!


हो जो पेट भरा तो
दिमाग़ निवाले
गिन सकता है,
भात के दानों से
मसल-मसलकर
खर-कंकड़
बीन सकता है,
पर... भूख का
दिल और दिमाग
रोटी होती है
भात की बाट
जोहती आँतों को 
ताजा है कि बासी
मुँह में जाते निवाले
स्पेशल हैं
कि राजसी
फ़र्क नहीं पड़ता।

भूख की भयावहता
रोटी की गंध,
भात के दाने,
बेबस चेहरे,
सिसकते बच्चे,
बुझे चूल्हे,
ढनमनाते बर्तन,
निर्धनों के
सिकुड़े पेट की
सिलवटें गिनकर
क़लम की नोंक से,
टी.वी पर
अख़बार में
नेता हो या अभिनेता
भूख के एहसास को 
चित्रित कर
रचनात्मक कृतियों में
बदलकर
वाह-वाही, 
तालियाँ और ईनाम 
पाकर गदगद
संवेदनशील हृदय 
उस भूख को
मिटाने का उद्योग
करने में क्यों स्वयं को
सदैव असमर्थ है पाता ?
किसी की भूख परोसना
भूख मिटाने से
ज्यादा आसान है
शायद...!!

#श्वेता

Saturday, 4 April 2020

धर्म...संकटकाल में


हृदय में बहती
स्वच्छ धमनियों में
किर्चियाँ नफ़रत की
घुलती हैं जब, 
विषैली,महीन,
नसों की
नरम दीवारों से
रगड़ाकर
घायल कर देती हैं
संवेदना की मुलायम 
परतों को,
 फट जाती हैं
 लहूलुहान
 रक्तवाहिनियाँ 
 वमन करते हैं
विचारों का दूषित गरल
खखारकर थूकते हैं लोग
सेवारत मानवता के
सफेद कोट,
ख़ाकी वर्दियों पर...
देवदूतों के फेफड़ों में
भरना चाहते हैं
संक्रमित कीटाणु,
नीचता संगठित होकर
अपने धर्मग्रंथों के
पन्नों को फाड़कर
कूड़ेदानों,पीकदानों
में विसर्जित कर
मिटा देना चाहती हैं
जलाकर भस्म 
कर देना चाहती है
धर्म की सही परिभाषा।

अपनी मातृभूमि के
संकटकाल में
अपने सम्प्रदाय की
श्रेष्ठता सिद्ध करने में
इतिहास में
क्रूरता के अध्याय जोड़ते
रीढ़विहीन मनुष्यों की
प्रजातियों के
लज्जाजनक कर्म,
कालक्रम में 
नस्लों द्वारा जब
खोदे जायेंंगे
थूके गये 
रक्तरंजित धब्बों की
सूखी पपड़ीदार 
निशानियों को
 चौराहों पर
प्रश्नों के ढेर पर
बैठाकर
अमानुषिक,अमानवीय
कृतित्वों को 
उन्हीं के वंशजों द्वारा
एक दिन अवश्य
धिक्कारा जायेगा!
किसी देश के
 सच्चे नागरिक की
धर्म की परिभाषा
मनुष्यता का कर्तव्य
और कर्मठता है,
साम्प्रदायिक जुगाली नहीं।

#श्वेता सिन्हा

Thursday, 2 April 2020

असंतुलन


क्या सचमुच एकदिन 
मर जायेगी इंसानियत?
क्या मानवता स्व के रुप में
अपनी जाति,अपने धर्म
अपने समाज के लोगों
की पहचान बनकर
इतरायेगी?
क्या सर्वस्व पा लेने की मरीचिका में
भटककर मानवीय मूल्य
सदैव के लिए ऐतिहासिक
धरोहरों की तरह 
संग्रहालयों में दर्शनीय होंगे
अच्छाई और सच्चाई
पौराणिक दंतकथाओं की तरह
सुनाये जायेंगे
क्या परोपकार भी स्वार्थ का ही
अंश कहलायेगा?
क्या संदेह के विषैले बीज
 प्रेम की खेतों को
सदा के लिए बंजर कर देगा?
क्या भावनाओं के प्रतिपल
हो रहे अवमूल्यन से
विलुप्त हो जायेंगी
भावुक मानवीय प्रजाति?
क्या हमारी आने वाली पीढ़ियाँ
रोबोट सरीखे,
हृदयहीन,असंवेदनशील
इंसानों की बस्ती के
यंत्रचालित पुतले होकर
रह जायेगी?

हाँ मानती हूँ
असंतुलन सृष्टि का
शाश्वत सत्य है,
सुख-दुख,रात-दिन,
जीवन-मृत्यु की तरह ही
कुछ भी संतुलित नहीं
परंतु विषमता की मात्राओं को
मैं समझना चाहती हूँ,
क्यों नकारात्मक वृत्तियाँ
सकारात्मकता पर 
हावी रहती हैं?
क्यूँ सद्गुणों का तराजू
चंद मजबूरियों के सिक्कों के
भार से झुक जाता है?

सोचती हूँ,
बदलाव तो प्रकृति का
शाश्वत नियम है,
अगर वृत्तियों और प्रवृत्तियों
की मात्राओं के माप में
अच्छाई का प्रतिशत
बुराई से ज्यादा हो जाये
तो इस बदले असंतुलन से
सृष्टि का क्या बिगड़ जायेगा? 

#श्वेता सिन्हा

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...