Monday, 10 June 2019

तोड़कर तिमिर बंध

चीर सीना तम का
सूर्य दिपदिपा रहा
तोड़कर तिमिर बंध
भोर मुस्कुरा रहा

उठो और फेंक दो तुम
जाल जो अलसा रहा
जो मिला जीवन से उसको
मन से तुम स्वीकार लो
धुँध आँखों से हटा लो
मन से सारे भ्रम मिटा लो
ज़िंदगी उर्वर जमीं है
कर्मों का श्रृंगार कर लो

जो न मिला न शोक कर
जो मिल रहा उपभोग कर
तू भागे परछाई के पीछे
पाँव यह दलदल में खींचे
न बने मन काँच का घट
ठेस लग दरके हृदय पट
अपने जीवन की कथा के
मुख्य तुम किरदार हो

बन रहे हो एक कहानी
कर्म तेरे अपनी ज़ुबानी
बोलते असरदार हो
बस लेखनी को धार कर  
लड़कर समर है जीतना
हर बखत क्या झींकना
विध्न बाधा क्या बिगाडे
तूफां में अडिग रहे ठाडे

निराशा घुटन की यातना
ये बंध कठिन सब काटना
चढ़कर इरादों के पहाड़
खोल लो नभ के किवाड़
खुशियाँ मिलेंगी बाँह भर
भर अंजुरी स्वीकार कर लो

#श्वेता सिन्हा

Friday, 7 June 2019

रात


अक्सर जब शाम की डोली
थके हुये घटाओं के
शानों से उतरती है
छनकती चाँदनी की पाजेब से
टूटकर घुँघरू
ख़्वाबों के आँगन बिखरती है

ख़ामोश दरख़्तों के
गीली बाहों में
परिदों के सो जाने के बाद
बेआवाज़ 
पत्तियाँ जुगनुओं से
रातभर बातें करती हैं।

स्याह दामन के नर्म 
तन्हाइयों में सोयी 
दूध-सी झीलों के
बियाब़ां किनारे पर
ख़ामोशी के रेज़ों को 
चुन-चुनकर
शब झोली में भरती है।

लम्हा-लम्हा सरकती रात
हवाओं की थपकियों से
बेज़ान लुढ़क कर
पहाड़ी के कोहान पर 
सिर टिकाये 
भोर की राह तकती है।

 #श्वेता सिन्हा

Tuesday, 4 June 2019

तुम्हारी आँखें

ठाठें मारता 
ज्वार से लबरेज़
नमकीन नहीं मीठा समुंदर
तुम्हारी आँखें

तुम्हारे चेहरे की
मासूम परछाई
मुझमें धड़कती है प्रतिक्षण
टपकती है सूखे मन पर
बूँद-बूँद समाती
एकटुक निहारती
तुम्हारी आँखें

नींद में भी चौंकाती
रह-रह कर परिक्रमा करती
मन के खोह,अबूझ कंदराओं,
चोर तहखानों का
स्वप्न के गलियारे में 
थामकर उंगली
अठखेलियाँ करती
देह पर उकेरती 
बारीक कलाकृत्तियाँ
तुम्हारी आँखें

बर्फ की छुअन-सी
तन को सिहराती
कभी धूप कभी चाँदनी
कभी बादल के नाव पर उतारती
दिन के उगने से रात के ढलने तक
दिशाओं के हर कोने से
एकटुक ताकती
मोरपंखी बन सहलाती
तुम्हारी आँखें

#श्वेता सिन्हा

Monday, 3 June 2019

सावित्री


वैज्ञानिक विश्लेषण में
सारहीन,अटपटा ... फिर भी ..
कच्चे धागे लपेटकर
बरगद की फेरी
नाक से माँग तक 
टीका गया पीपा सिंदूर,
आँचल के कोर को
मेंहदी लगी हथेलियों में रखकर
हाथों को जोड़कर श्रद्धापूर्वक
सावित्री की तरह
अपने सत्यवान के लिए
माँगी गयी मनौती
सत्यवान और सावित्री के 
अमर, अटल शाश्वत प्रेम की 
 कहानी तर्कों से
 काल्पनिक और
आधारहीन भले माना गया हो
पर देखियेगा पढ़कर कभी
एक भारतीय नारी के
 संस्कार और मर्यादा के 
 बंधनों के ऊपर तैरता "मन"
सघन बरगद की 
मजबूत शाखाओं-सा
गूँथकर हृदय के 
स्नेहिल स्पंदन 
प्रेम के विस्तृत आकाश को 
मौन सहेजता 
असंख्य अनगिनत
आच्छादित पत्तियों-सा
अपने रोम-रोम में
जीती महसूस करती है 
अपने मन के मीत के
साथ हर क्षण को
और बरगद के तन पर लपेटकर
भावनाओं के कच्चे सूत
वो चाहती है  
पाताल नापती जड़ जैसी
गहरा शाश्वत प्रेम... 
जीवनभर का अटूट साथ 
अजर, अमर, अटल ...
जैसे सावित्री और सत्यवान।

#श्वेता सिन्हा

Monday, 27 May 2019

तुम हो तो...


तुम हो तो तार अन्तर के
गीत मधुर गुनगुनाती है
प्रतिपल उठती,प्रतिपल गिरती
साँसें बुलबुल-सी
फुदक-फुदककर शोर मचाती है।

बिना छुए सपनों को मेरे
जीवित तुम कर जाते हो
निर्धूम सुलगते मन पर
चंदन का लेप लगाते हो
शून्य मन मंदिर में रूनझुन बातें
पाजेब की झंकार
रसीली रसधार-सी मदमाती है।

मन उद्विग्न न समझे कुछ
प्राणों के पाहुन ठहर तनिक
विरह पंक में खिलता महमह
श्वास सुवास कुमुदिनी मणिक
आस-अभिलाष की झलमल ज्योति
बाती-सी मुस्काती
उचक-उचककर चँदा को दुलराती है।

हिय सरिता की बूँद-बूँद
तुझमें विलय करूँ आत्मार्पण
तू ही ब्रह्म है तू ही सत्य बस
तुझको मन सर्वस्व समर्पण
जीवन की रिक्त दरारों में अमृत-सी
टप-टप,टिप-टिप 
संजीवनी मन की तृषा मिटाती है।

#श्वेता सिन्हा

Wednesday, 15 May 2019

गुलमोहर


तपती गर्मी में आकुल,व्यथित मानव मन और आँखों को शीतलता प्रदान करता गुलमोहर 
प्रकृति का अनुपम उपहार है। सूखी कठोर धरती पर अपनी लंबी शाखाओं ,मजबूतत बाहें  फैलाये  साथ नाममात्र की पत्तियों और असंख्य चटकीले रक्तिम फूलों के साथ मुस्कुराता है गुलमोहर,इसे  संस्कृत में "राज-आभरण" कहते है जिसका अर्थ राजसी आभूषणों से सजा हुआ। इन फूलों से भगवान श्री कृष्ण की प्रतिमा के मुकुट का श्रृंगार भी किया जाता है इसलिए इसे 'कृष्ण चूड' भी कहते हैं। गुलमोहर मकरंद के अच्छे स्रोत होते हैं।
मार्च से लेकर जुलाई तक अपने तन पर लाल,पीले नारंगी मिश्रित रंग के फूलों की मख़मली चादर लपेटे  
गुलमोहर हमें सकारात्मक संदेश दे जाता है कि चाहे जीवन में परिस्थितियाँ तपती गर्मियों की तरह चुभन वाली हो पर हमें अपने मन के गुलमोहर रुपी धैर्य और जुझारूपन के पुष्प से सुशोभित रहना चाहिए तभी हम स्वयं को और दूसरों को खुश रख पायेंगे


गुलमोहर
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बसंत झरकर पीपल से 
जब राहों में बिछ जाता है
दूब के होंठ जलने लग जाते
तब गुलमोहर मुस्काता है

कली ,फूल,भँवरें की बात
मधुमास की सिहरी रात
बन याद बहुत तड़पाता है
तब गुलमोहर मुस्काता है

धूप संटियाँ मारे गुस्से से
स्वेद हाँफता छाँव को तरसे
दिन अजगर-सा अलसाता है
तब गुलमोहर मुस्काता है

लू के थप्पड़ से व्याकुल हो
कूप,सरित,ताल आकुल हो
तट ज्वर से तपता कराहता है
तब गुलमोहर मुस्काता है

निशा के प्रथम पहर में नभ
तारों की चुनर ओढ़ शरमाये
चंदा का यौवन इठलाता है
तब गुलमोहर मुस्काता है

बिन देखे बस बातें सुनकर ही
दिल भावों से भर जाता है
जब कंटक में चटखे कलियाँ
तब गुलमोहर मुस्काता है

  #श्वेता सिन्हा

Monday, 13 May 2019

जानती हूँ....

मौन दिन के उदास पन्नों पर
एक अधूरी कहानी लिखते वक़्त
उदास आँखों की गीली कोर 
पोंछकर उंगली के पोर से
हथेलियों पर फैलाकर एहसास को,
अनायास ही मुस्कुरा देती हूँ।

नहीं बदलना चाहती परिदृश्य 
मासूम सपनों को संभावनाओं के
डोर से लटकाये जागती हूँ 
बावजूद सच जानते हुये 
रिस-रिसकर ख़्वाब एक दिन
ज़िंदा आँखों में क़ब्र बन जायेंगे

हाँ..!जानती तो हूँ मैं 
सपने और हक़ीक़त के 
बीच के फर्क़ और फ़ासले
अनदेखा करती उलझे प्रश्न
नहीं चाहती कोई हस्तक्षेप
तुम्हारे ख़्याल और ...
मेरे मन के बीच.....।

#श्वेता सिन्हा

Saturday, 11 May 2019

सुनो न माँ....

मातृ दिवस का कितना औचित्य है पता नहीं..।
माँ तो हमेशा से किसी भी बच्चे के लिए उसके व्यक्तित्व का अस्तित्व का हिस्सा है न...फिर एक दिन क्यों निर्धारित किया जाये..?
आज सबको अपनी के लिए कुछ न कुछ लिखते,कहते देखकर हम सोचने लगे कि हम आज तक कभी भी "माँ" के लिए लिख नहीं पाये..।
ऐसा पहली बार नहीं हुआ है माँ का नाम आते ही मन के भाव शब्दों पर प्रभावी हो जाते हैं और फिर कुछ भी लिखना संभव नहीं हो पाता मुझसे।  

माँ तुम मेरी "सुपर वुमन"हो हम तो यही कहते रहे जीवनभर। आज बिना प्रयास कुछ मन की बातें
जो तुमसे हमेशा से तुमसे  कहना चाहते है हम..।

सुनो न माँ..
★★★★
कैसे कहूँ,किस सरिता में बहूँ
ममता तेरी,भावों में बाँध नहीं पाती हूँ
कैसे बताऊँ माँ तुम क्या हो?
चाहकर भी,शब्दों में साध नहीं पाती हूँ

समय की चाक पर बैठे तुमको
सबकी खुशियाँ गढ़ते देखा 
गला-गलाकर माटी-सा ख़ुद को
पात्र प्रेम का भरते देखा
माँ तुम जैसा कारीगर तिलिस्मी
जगभर में दूजा कमाल नहीं पाती हूँ

तेरे पाँव की पावन रुनझुन से
घर-आँगन मंदिर लगता है
तेरी चूड़ियों की खन-खन सुन
सूरज भी ताल में चलता है
माँ तू खुशबू में भीगा उपवन
त्रिलोक में ऐसा पुष्पमाल नहीं पाती हूँ

तुम्हारी उंगलियों का पवित्र स्पर्श पा
चिंता की लकीरें सिकुड़ जाती है
देवी-देवताओं की मनौतियाँ करती
तू बड़ की जड़-सा अड़ जाती है
मेरे जीवन की कठिन चुनौतियों में
माँ तुम-सा कोई ढाल नहीं पाती हूँ

तेरे तन पर गढ़ियाती उम्र की लकीर
मेरी खुशियों की दुआ करती है
तू मौसम के रंगों संग घुल-घुलकर
मेरी मुस्कान बनकर झरती है
तेरे आशीष के जायदाद की वारिस 
तेरे नेह की पूँजी सँभाल नहीं पाती हूँ

कैसे बताऊँ माँ तुम क्या हो?
चाहकर भी,शब्दों में साध नहीं पाती हूँ।

#श्वेता सिन्हा
११/५/२०१९

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...